अतीत को भूले बिना पश्चिम के साथ

राजा राममोहन राय (1772-1833) ने पश्चिमी विचार और संस्कृति की सकारात्मक चीजें अपनाकर हमारे समाज

Update: 2021-06-06 16:47 GMT

राजा राममोहन राय (1772-1833) ने पश्चिमी विचार और संस्कृति की सकारात्मक चीजें अपनाकर हमारे समाज और धर्म में सुधार लाने की कोशिश की थी। इस अर्थ में उनकी भूमिका वैसी ही थी, जैसी कि पश्चिमी संदर्भ में मार्टिन लूथर (1483-1546) की थी। लूथर ने जिस तरह मध्यकालीन गिरावट और भ्रष्टाचार के खिलाफ बाइबल को मानक बनाया, उसी तरह राममोहन ने वेद को मानक माना, क्योंकि उन्होंने पाया कि यह प्राचीनतम हिंदू धर्मग्रंथ पवित्र और मिलावट रहित है। लेकिन लूथर से वह इस अर्थ में अलग थे कि उन्होंने दूसरी सभ्यताओं, संस्कृतियों और धर्मों में जो कुछ श्रेष्ठ और उपयोगी पाया, उसे हिंदू धर्म और विचार में शामिल किया। उदाहरण के लिए, मुस्लिमों से मेलजोल के कारण उन्हें एकेश्वरवाद ने आकर्षित किया, तो ईसाइयत की नैतिक शिक्षा से भी वह प्रभावित थे और मानते थे कि आध्यात्मिक चिंतन के लिए संन्यास या वैराग्य जरूरी नहीं है।

सुभाष चंद्र बोस ने यह रेखांकित किया कि राममोहन पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने भारतीय संस्कृति को पश्चिम की वैज्ञानिक संस्कृति से जोड़ा। सुशोभन सरकार के मुताबिक, 'भारतीय पुनर्जागरण यह धारणा विकसित करने के कारण ही संभव हो पाया कि भारत अपने अतीत को भूले बिना बाहरी दुनिया के आधुनिक सभ्यता के साथ घुल-मिल सकता है।' राममोहन भारतीय पुनर्जागरण काल के शुरुआती दौर के सबसे प्रभावशाली उदाहरण थे। इतिहासकार रमेश चंद्र मजूमदार के मुताबिक, 19 वीं शताब्दी के समाज, धर्म और राजनीति से जुड़े तमाम महत्वपूर्ण विचारों और गतिविधियों से संबंधित उपलब्धियां राममोहन के कारण ही थीं। पश्चिमी समाज के लिए हेगेल जितने महत्वपूर्ण थे, भारतीय समाज के लिए राममोहन उतने ही महत्वपूर्ण हैं।
राममोहन राय ने अध्ययन के दौरान यह पाया कि प्राचीन वैदिक युग अच्छा दौर था, लेकिन परवर्ती युग में आए बदतर बदलावों ने मूर्तिपूजा, बहुदेववाद, बाल विवाह, विधवा विवाह पर प्रतिबंध, सती प्रथा, जाति प्रथा और ब्राह्मणवाद जैसी सामाजिक बुराइयों को जन्म दिया। उन्होंने सप्रमाण यह तर्क दिया कि व्यापक रूप से प्रचलित हो चुकी इन समकालीन प्रथाओं के बारे में वेदों और उपनिषदों में उल्लेख नहीं है, इसलिए मौलिक परंपराओं का पुनरुद्धार हमारा सबसे महत्वपूर्ण लक्ष्य होना चाहिए। लेकिन यह सुधार और पुनरुद्धार बहुत कठिन काम था और सामाजिक उन्नति में ब्रिटिश सरकार को बड़ी भूमिका निभानी थी। सरकार को व्यापक रूप से दो क्षेत्रों में कदम उठाने चाहिए थे, पहला-अमानवीय सामाजिक प्रथाओं पर प्रतिबंध लगाना, तथा दूसरा-अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को प्रोत्साहित करना।
इस प्रक्रिया में सरकार समर्थित शिक्षा महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती थी, क्योंकि अज्ञान के कारण सामाजिक बुराइयों के प्रति समाज में जो स्वीकार्यता पैदा हो गई थी, उसे शिक्षा ही दूर कर सकती थी। चारों और कुतर्क का वातावरण था। ऐसे में, ब्रिटिश प्रशासन ही देश में व्याप्त गंभीर सामाजिक बुराइयों को दूर करने का सबसे उपयुक्त माध्यम हो सकता था, जो अपने शासन को ऐसा दूरदर्शी और कृपालु कदम मानता था, जिसके जरिये भारत सामाजिक उन्नति और अंततः आजादी हासिल कर सकता था। ब्रिटिशों का पहला कदम शादी, उत्तराधिकार, राजस्व, आपराधिक कानून और न्याय प्रणाली के क्षेत्र में उदारवादी कानूनी सुधार था। देसी शिक्षा पद्धति को पश्चिमी शिक्षा से बदल दिया जाना था, क्योंकि भारतीय शिक्षा का समाज में व्यावहारिक इस्तेमाल नहीं हो सकता था।
राममोहन ने आधुनिक दर्शनशास्त्र, रसायन विज्ञान, शरीर रचना शास्त्र और दूसरे जरूरी विज्ञान को अपनाया। इसी तरह मूर्ति पूजा, जाति प्रथा और ब्राह्मणवाद से छुटकारा दिलाने के लिए उन्होंने ब्रह्म समाज की स्थापना की। देश में आधुनिकता का प्रसार करने के लिए राममोहन उस हिंदू कॉलेज की स्थापना से जुड़े, जो बाद में प्रेसीडेंसी कॉलेज के रूप में प्रसिद्ध हुआ। राममोहन के महत्व को इसी से समझा जा सकता है कि देश में 19वीं सदी से जुड़े सभी सुधार उन्हीं से जुड़े थे। इन शानदार उपलब्धियों के पीछे राममोहन के योगदान पर रानाडे का कहना है, 'वह एक ही साथ समाज सुधारक, एक महान धार्मिक आंदोलन के संस्थापक और राजनेता थे। इन तीनों क्षेत्रों में उनका प्रदर्शन इतना चमकदार था कि आज के दौर में इस क्षेत्र की बेहतरीन प्रतिभाएं भी उनके सामने बौनी हैं।'
कुछ विचारकों ने राममोहन की कतिपय सीमाओं को भी रेखांकित किया है। जैसे कि उनका धार्मिक सुधार कट्टर और कृत्रिम था। हालांकि यह सच नहीं है, क्योंकि राममोहन ने धार्मिक कट्टरता के खिलाफ लिखा। यह भी कहा जाता है कि वह हिंदुत्व की सच्ची भावना का एहसास नहीं कर पाए। दूसरा यह है कि वह राष्ट्रीय शिक्षा की कोई रूपरेखा तैयार नहीं कर पाए। पर इस सच्चाई से इन्कार नहीं किया जा सकता कि देश का शिक्षित वर्ग राममोहन से प्रभावित हुआ। उन्होंने भारतीय शिक्षा को वैज्ञानिकता से लैस किया। तीसरा यह कि उनके राजनीतिक विचारों में कल्पनाशीलता नहीं थी। ऐसे ही, उनका बौद्धिक नेतृत्व समाज के उच्च वर्ग तक सीमित था।
राममोहन वस्तुतः मानवीय स्वतंत्रता, समानता और आनंद के विराट लक्ष्य को समर्पित एक आधुनिक धर्मनिरपेक्षवादी थे। इसी कारण सुभाष चंद्र बोस ने उन्हें 'नए दौर का पैगंबर' कहा, तो रवींद्रनाथ ने उनके पदचिह्नों का अनुसरण किया।
क्रेडिट बाय अमर उजाला 
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