10 मार्च के बाद क्या पेट्रोल-डीजल की कीमतें अचानक आसमान छुएंगी?

पेट्रोल और डीजल की कीमतों में भारी मूल्य वृद्धि की आशंका से पूरे देश में हाहाकार मचा हुआ है

Update: 2022-03-07 06:05 GMT
पेट्रोल और डीजल की कीमतों ( Petrol- Diesel Rate) में भारी मूल्य वृद्धि की आशंका से पूरे देश में हाहाकार मचा हुआ है. पिछले साल 3 नवंबर 2021 को केंद्र सरकार ने पेट्रोल पर 10 रुपये प्रति लीटर और डीजल पर 5 रुपये प्रति लीटर एक्साइज ड्यूटी घटाई थी. इसके बाद से देशभर में पेट्रोल और डीजल की कीमतों में कोई बढ़ोतरी नहीं की गई. माना जा रहा है कि उत्तर प्रदेश, पंजाब समेत 5 राज्यों में विधानसभा चुनाव ( 5 State assembly election) की वजह से कीमतों में वृद्धि नहीं की गई. अब 7 मार्च को चुनाव संपन्न होने और 10 मार्च को नतीजे आने के साथ ही लोगों को भय सताने लगा है कि पेट्रोल और डीजल की कीमतों में भारी बढ़ोतरी होगी. मीडिया रिपोर्ट्स भी इस बात की पुष्टि कर रही हैं. लेकिन क्या लोगों का यह भय वाकई सच में बदलने वाला है? तो क्या इस परिस्थिति में सरकार एक्साइज ड्यूटी (Excise Duty) घटाकर लोगों को राहत नहीं दे सकती है? निश्चित रूप से ये सवाल बेहद विचारणीय हैं.
पेट्रोल-डीजल मूल्य वृद्धि की क्या है पूरी कहानी?
अगर हम पेट्रोल और डीजल के मूल्य वृद्धि की बात करते हैं तो इसके पीछे जो सबसे अहम भूमिका होती है वह अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत होती है. घरेलू स्तर पर ईंधन की कीमतें तेल की अंतरराष्ट्रीय कीमतों से सीधे तौर पर प्रभावित होती हैं क्योंकि भारत अपनी तेल की जरूरत का 85 प्रतिशत हिस्सा आयात करता है. इसके अलावा रुपये के मुकाबले अमेरिकी डॉलर की कीमत और देश में तेल की डिमांड भी अपने-अपने तरीके से मूल्य वृद्धि में अपनी भूमिका निभाती है. लेकिन जब से सरकार ने इसे बाजार के हवाले कर दिया है तब से केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा वसूला जाने वाला टैक्स मूल्य वृद्धि में सबसे बड़ी भूमिका निभाने लगा है. मोदी सरकार ने साढ़े सात साल के कार्यकाल में पेट्रोल और डीजल पर 13 बार एक्साइज ड्यूटी बढ़ाई और 4 बार घटाई. 1 अप्रैल 2014 की बात करें तो तब पेट्रोल पर 9.48 रुपये प्रति लीटर और डीजल पर 3.56 रुपये प्रति लीटर की एक्साइज ड्यूटी थी. 3 नवंबर 2021 को यह पेट्रोल पर 27.90 रुपये प्रति लीटर और डीजल पर 21.80 रुपये प्रति लीटर हो गया. मतलब यह कि पेट्रोल पर 18.42 रुपये और डीजल पर 18.24 रुपये प्रति लीटर की एक्साइज ड्यूटी मोदी सरकार अब तक बढ़ा चुकी है.
हाल की रिपोर्ट्स में बताया जा रहा है कि तेल की लागत और खुदरा बिक्री दरों के बीच का अंतर लगातार बढ़ता जा रहा है. आईसीआईसीआई सिक्योरिटीज ने अपनी एक रिपोर्ट में खुलासा किया है कि बीते दो महीनों में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तेल के दाम बढ़ने से सरकारी स्वामित्व वाले खुदरा तेल विक्रेताओं को लागत वसूली के लिए 16 मार्च 2022 या उससे पहले ईंधन के दामों में कम से कम 12.10 रुपये प्रति लीटर की वृद्धि करनी ही होगी. अगर इसमें तेल कंपनियों के मार्जिन को भी जोड़ लें तो यह वृद्धि 15.10 रुपये प्रति लीटर को छू जाएगा.
अब देखना यह है कि सरकार अपनों पे ये सितम एकमुश्त वृद्धि के रूप में ढाती है या फिर आहिस्ता-आहिस्ता लोगों की जेब पर डाका डालती है.
कच्चा तेल ही नहीं, सरकार भी कर रही है खेल
इस बात से इनकार नहीं है कि भारत जो कच्चा तेल खरीदता है उसके दाम तीन मार्च 2022 को 117.39 डॉलर प्रति बैरल हो गए हैं. ये भी सच है कि ईंधन का यह मूल्य साल 2012 के बाद सबसे ज्यादा है. पिछले साल नवंबर की शुरुआत में जब पेट्रोल और डीजल की कीमतों में वृद्धि पर रोक लगी थी, तब कच्चे तेल की औसत कीमत 81.50 डॉलर प्रति बैरल थी. मतलब कच्चे तेल में करीब-करीब 36 डॉलर प्रति बैरल कच्चे तेल की कीमत बढ़ गई है. लेकिन अगर हम साल 2014 से साल 2021 तक की गणना करें तो सरकार किस तरह से जनता को लूट रही है पूरी तरह से स्पष्ट हो जाता है. मई 2014 में अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत 106 डॉलर प्रति बैरल थी और तब पेट्रोल की कीमत 71.41 रुपये थी. अक्टूबर 2020 की बात करें तो तब कच्चे तेल की कीमत 41 डॉलर प्रति बैरल थी और तब पेट्रोल की कीमत 81.06 रुपये प्रति लीटर थी. जनवरी 2022 की बात करें तो कच्चे तेल की कीमत 86.27 डॉलर प्रति बैरल थी और तब पेट्रोल की कीमत 95 रुपये से 110 रुपये प्रति लीटर थी.
मतलब साफ है, केंद्र और राज्य सरकारों ने लगातार टैक्स बढ़ाया जिसकी वजह से सस्ते कच्चे तेल का फायदा उपभोक्ताओं को नहीं मिला. इसे इस रूप में भी समझ सकते हैं कि पेट्रोल और डीजल की एक्साइज ड्यूटी में हर एक रुपये की बढ़ोतरी से केंद्र सरकार के खजाने में 13,000-14,000 करोड़ रुपये सालाना की बढ़ोतरी होती है. तो आप सोच सकते हैं कि मोदी सरकार ने अपने कार्यकाल में अब तक सिर्फ पेट्रोल-पेट्रोल पर 18.42 रुपये का एक्साइज टैक्स बढ़ा चुकी है. सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि इन सात वर्षों में सरकारी खजाने में कितने लाख करोड़ की वृद्धि हो चुकी है. इतना ही नहीं अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतें घटने से सरकार को व्यापार घाटा भी कम करने में मदद मिलती है. बावजूद इसके सरकार ने जनता को इसका कोई लाभ नहीं दिया.
रूस-यूक्रेन की जंग ने बढ़ाए कच्चे तेल के भाव
रूस-यूक्रेन युद्ध का असर अब वैश्विक बाजार और दुनिया के देशों में आम जनजीवन पर पड़ना शुरू हो गया है. इसी का नतीजा है कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल का दाम 10 साल के उच्चतम स्तर पर पहुंच गया.
24 फरवरी 2022 को यूक्रेन पर रूसी हमले के तुरंत बाद दुनियाभर के शेयर बाजार धराशाई हो गए थे, सोने की कीमतें बढ़ गईं और कच्चा तेल रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गया. रूस ऑयल और नेचुरल गैस का बड़ा उत्पादक देश है. बीपी स्टैटिकल रिव्यू के अनुसार 2020 में रूस कच्चा तेल और नेचुरल गैस कंडेनसेट के उत्पादन के मामले में दूसरे नंबर पर था. प्रतिदिन के हिसाब से गणना करें तो रूस 50 लाख से 60 लाख बैरल कच्चा तेल एक्सपोर्ट करता है. यूक्रेन पर हमले की वजह से चूंकि रूस पर कई तरह की पाबंदियां लगाई गई हैं. इससे कच्चे तेल की आपूर्ति प्रभावित हो रही हैं. इन्हीं वजहों से अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चा तेल हर दिन नया रिकॉर्ड बना रहा है.
भारत की बात करें तो यह कच्चे तेल की 85 प्रतिशत से ज्यादा आपूर्ति के लिए अन्य देशों पर निर्भर है. हालांकि, भारत काफी कम यानी तेल आयात का एक प्रतिशत रूस से आयात करता है. लेकिन अंतरराष्ट्रीय बाजार में दाम बढ़ने का सीधा असर तो पड़ेगा ही. ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या हमारी सरकार के पास पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों को स्थिर बनाए रखने या कीमतें कम करने का कोई विकल्प नहीं है? निश्चित तौर पर सरकार के पास इन उत्पादों के दाम घटाने के विकल्प हैं. इनमें कीमतों को डीरेगुलेट करने और इन पर टैक्स घटाने के विकल्पों पर विचार किया जा सकता है. ये पूरी तरह से सरकार के हाथ में है. टैक्स घटाकर सरकार ईंधन को सस्ता कर लोगों को राहत दे सकती है. एक्साइज और वैट में कटौती की भरपाई सरकारें अपने फिजूलखर्ची को कम करके कर सकती है. लेकिन सरकार की मंशा भी तो होनी चाहिए.
कमजोर विपक्ष का फायदा तो नहीं उठा रही सरकार?
केंद्र सरकार को पता है कि देश में एक कमजोर विपक्ष है जो पेट्रोल-डीजल की बढ़ती कीमतों के खिलाफ लड़ाई जमीन पर उतरकर लड़ने में सक्षम नहीं है. और इसका पूरा फायदा सरकार उठा रही है. इस तरह के मसलों पर विपक्ष को जोरदार तरीके से आवाज उठानी होती है, लेकिन चूंकि विपक्ष बिखरा हुआ है, सशक्त नहीं है इसलिए इसकी कीमत देश की गरीब जनता भुगत रही है. दूसरा, पिछले साल कोरोना महामारी की वजह से सरकार का राजस्व काफी घट गया, जीएसटी, कॉरपोरेट टैक्स, इनकम टैक्स जैसे राजस्व के स्रोत कमजोर हुए हैं तो सरकार का खर्च इस दौरान काफी बढ़ गया है. ऐसे में सरकार राजस्व बढ़ाने और फिस्कल डेफिसिट को बढ़ने से रोकने के लिए ईंधन पर टैक्स कम नहीं कर रही है. सरकार के लिए शराब और पेट्रोल, डीजल कमाई का सबसे बढ़िया जरिया है. चूंकि ये जीएसटी के दायरे में नहीं आते हैं, लिहाजा इनपर टैक्स बढ़ाने के लिए सरकार को जीएसटी काउंसिल में जाने की भी मजबूरी नहीं है. जब मर्जी हुई, एक्साइज ड्यूटी में वृद्धि लाद दी जाती है.
बहरहाल, सीधे तौर पर बात की जाए तो कोरोना महामारी के दौरान अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के दाम नीचे आए, ऐसे में पेट्रोल और डीजल के दाम भी गिरने चाहिए थे, लेकिन सरकार ने ऐसा नहीं होने दिया. पिछले महीने भाजपा सांसद सुब्रमण्यम स्वामी ने ट्वीट कर अपनी ही सरकार पर सीधा हमला बोलते हुए पेट्रोल और डीजल की बढ़ती कीमतों को जनता के शोषण का हथियार बताया था. पेट्रोल और डीजल के दाम अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के दाम पर कितना निर्भर करता है? कच्चे तेल के सस्ते होने का लाभ जनता को क्यों नहीं दिया जाए ? पेट्रोल और डीजल को जीएसटी के दायरे में क्यों नहीं लाया गया? आखिर क्यों बार-बार पेट्रोल और डीजल पर एक्साइज ड्यूटी बढ़ाई गई? इन सारे सवालों पर सरकार को देश की जनता को बताना चाहिए और येन केन प्रकारेण इस बात की कोशिश करनी चाहिए कि पेट्रोल-डीजल की भारी मूल्यवृद्धि का बोझ देश की जनता पर कम से कम पड़े.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)
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