मोदी सरकार ने तीन कृषि कानूनों को वापस क्यों लिया, जानें 6 बड़े कारण
तीन कृषि कानूनों को वापस
आखिरकार नरेंद्र मोदी सरकार (Narendra Modi Government)ने तीन विवादास्पद कृषि कानूनों (Farm Laws)को वापस करने का फैसला कर लिया. खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आज गुरु नानक के जन्मोत्सव पर प्रकाश पर्व के पावन अवसर पर राष्ट्र के नाम संदेश में इसकी घोषणा की. जहां आंदोलनकारी किसान संगठनों ने इसका स्वागत किया है, वहीं उन्होंने यह भी कहा है कि जब तक संसद में इसे मूर्त रूप नहीं दे दिया जाता, तब तक वे अपना आंदोलन जारी रखेंगे. उन्होंने अपनी मांगों की सूची को लंबा करते हुए एमएसपी को कानूनी दर्जा देने, मृतक किसानों के परिवारवालों को मुआवजा देने और आंदोलनकारी किसानों पर लगाए गए मुकदमों को वापस लेने की मांग पर भी जोर दिया है. वहीं विपक्षी पार्टियों ने सरकार के अहंकार को लेकर हमले किए और इस फैसले की टाइमिंग पर सवाल उठाए. कल तक इन कृषि कानूनों को ऐतिहासिक बताने वाली बीजेपी अब इन कानूनों को वापस लेने के फैसले को ऐतिहासिक बताने में जुट गई है. पार्टी और सरकार कहती आ रही थी कि ये कानून किसी भी सूरत में वापस नहीं होंगे, लेकिन अचानक ऐसा क्या हुआ कि पीएम मोदी ने अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बने इन कानूनों पर यूटर्न करने का फैसला किया. इसके पीछे के प्रमुख कारण ये हैं-
पश्चिमी उत्तर प्रदेश
बीजेपी का अपना फीडबैक है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किसान आंदोलन के कारण जमीनी हालात तेजी से बदल रहे हैं. लगातार तीन चुनावों में बीजेपी को यहां जबर्दस्त समर्थन मिला. जाटों के नेता माने जाने वाले अजित सिंह खुद चुनाव हार गए. वैसे तो प्रमुख रूप से गन्ने की फसल उगाने वाले इस क्षेत्र में इन कृषि कानूनों के कारण किसानों के हक पर कोई चोट नहीं हो रही थी, लेकिन धारणा यह बन गई कि सरकार किसान विरोधी है, हालांकि योगी सरकार ने गन्ने के समर्थन मूल्य में बढोत्तरी और बकाया चुकाने की घोषणा की, लेकिन आंदोलन को लेकर जिस तरह से सरकार की ओर से सख्ती बरती गई और बीजेपी नेताओं के बयान आए उससे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट खासतौर से नाराज हुए. राकेश टिकैत इस आंदोलन का चेहरा बन गए. उनके द्वारा राज्य में बुलाई गई महापंचायतों को विपक्षी पार्टियों का जमकर समर्थन मिला. इसी तरह राष्ट्रीय लोक दल भी अपना खोया जनाधारा वापस पाने में जुट गई. सपा और रालोद के बीच समझौता भी बीजेपी के लिए चिंता का कारण है. पंचायत चुनाव में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बीजेपी के खराब प्रदर्शन को भी इसी से जोड़ा गया. मुजफ्फपुर हिंसा के बाद टूटी जाट मुस्लिम एकता फिर से जुड़ने लगी. बीजेपी को यह भी डर रहा कि चुनाव प्रचार में उतरने पर उसके नेताओं को कहीं वैसे ही विरोध का सामना न करना पड़े जैसे हरियाणा और पंजाब में हुआ. खुद पीएम मोदी 25 नवंबर को ग्रेटर नोएडा में जेवर में नोएडा अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे की आधारशिला रखने जा रहे हैं. इसमें बीजेपी दो से ढाई लाख लोगों को जुटाना चाह रही है, लेकिन किसान आंदोलन के चलते उसे इस कार्यक्रम में विरोध का डर था. अमित शाह कह चुके हैं कि 2024 में अगर मोदी को फिर पीएम बनाना है तो यूपी में 2022 में योगी को जिताना जरूरी है, लेकिन किसान आंदोलन के चलते पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बीजेपी को नुकसान की आशंका थी. लखीमपुर खीरी की घटना ने भी बीजेपी का नुकसान किया.
कैप्टन अमरिंदर सिंह
जिस दिन कैप्टन अमरिंदर सिंह ने कहा कि वे कांग्रेस छोड़ रहे हैं लेकिन बीजेपी में शामिल होने के बजाए उससे गठबंधन करेंगे, उसी दिन यह संकेत मिल गया था कि कृषि कानूनों पर मोदी सरकार पुनर्विचार कर रही है. कैप्टन अमरिंदर सिंह के पंजाब का मुख्यमंत्री रहते हुए खुद बीजेपी ही उन पर यह आरोप लगाती थी कि दिल्ली की सीमाओं पर पंजाब के किसानों को भेजने के पीछे कैप्टन ही हैं। लेकिन अब हालात बदल गए. बीजेपी के पास पंजाब में न पाने को कुछ है, न खोने को कुछ. उसे उम्मीद है कि कैप्टन अमरिंदर सिंह की नई पार्टी से उसका गठबंधन होने पर वह शहरी क्षेत्रों में हिंदू वोटों के सहारे थोड़ी-बहुत ताकत पा सकती है. बीजेपी कृषि कानूनों की वापसी के पीछे कैप्टन को अगर खुल कर श्रेय दे दे तो हैरानी नहीं होगी. इसी तरह, इसी मुद्दे पर बीजेपी से अलग हुए अकाली दल के लिए भी अब बीजेपी के साथ वापस आने में ज्यादा परेशानी नहीं होगी, खासतौर से चुनाव के बाद जरूरत पड़ने पर. बीजेपी नेता आज बताते हुए नहीं थक रहे कि सिखों के लिए पीएम मोदी ने क्या क्या कदम उठाए. इनमें करतारपुर साहिब कॉरीडोर दोबारा खोलना, कोविड के बावजूद गुरु तेग बहादुर का 400 वां प्रकाश पर्व मनाना, पीएम मोदी का खुद गुरुद्वारे जाना, गुजरात के सीएम रहते हुए कच्छ में भूकंप से तबाह हुए लखपत गुरुद्वारे का पुनर्निर्माण, हाल ही में अफगानिस्तान से सिख समुदाय लोगों की सुरक्षित भारत वापसी और गुरु ग्रंथ साहिब को ससम्मान वापस लाना आदि शामिल हैं. गुरु गोविंद सिंह का 350 वां प्रकाश पर्व और गुरु नानक देव जी का 500 वां प्रकाश पर्व मोदी सरकार ने बहुत उत्साह के साथ मनाया। बीजेपी नेताओं के मुताबिक अपने राजनीति जीवन में मोदी ने बहुत समय पंजाब में बिताया और इसीलिए सिख समुदाय के प्रति उनके मन में बहुत सम्मान है। यही कारण है कि कृषि कानूनों की वापसी का फैसला गुरु नानक देव के प्रकाश पर्व पर किया गया.
हरियाणा में उग्र प्रदर्शन
बीजेपी ने जाटों की नाराजगी के बावजूद हरियाणा में दूसरी बार सरकार बनाई लेकिन उसे सरकार बनाने के लिए जाट नेता दुष्यंत चौटाला का साथ लेना पड़ा. किसान आंदोलन उसके बाद शुरू हुआ लेकिन पिछले एक साल से हरियाणा युद्ध के मैदान में तब्दील हो गया था. राज्य के अधिकांश टोल बूथ पर किसान आंदोलनकारी बैठे हुए थे और दिल्ली से सटी सीमाओं पर आवाजाही बंद थी. लोगों का रोजगार छिन रहा था. सड़कें बंद होने से आम लोग परेशान हैं और कई बार किसानों और स्थानीय लोगों के बीच टकराव की नौबत भी आई. उधर, राज्य भर में राजनेताओं की शामत आ चुकी थी. खासतौर से बीजेपी नेताओं के लिए सड़कों पर निकलना और कोई राजनीतिक कार्यक्रम करना मुश्किल हो गया था. ऐसी कई घटनाएं हुईं जिनमें बीजेपी नेताओं के कपड़े फाड़ दिए गए. कई जगहों पर हिंसक टकराव भी हुआ. बीजेपी पर उपमुख्यमंत्री दुष्यंत चौटाला का भी दबाव था कि इस आंदोलन को जल्द खत्म किया जाए. हाल के उपचुनाव में बीजेपी के वोट जरूर बढ़े लेकिन हार को किसान आंदोलन से ही जोड़ा गया.
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पीएम की छवि को धक्का
बीजेपी ने किसानों की आमदनी दोगुना करने का लक्ष्य रखा है. पार्टी दावा करती है कि किसानों के हित में कई बड़े फैसले किए गए. इनका श्रेय पीएम मोदी को दिया जाता है. किंतु, किसान आंदोलन में सीधे पीएम मोदी पर हमले किए जाने लगे. उनके पुतले जलना, उनके खिलाफ नारेबाजी होना, यह सब बीजेपी को रास नहीं आया. इससे न केवल पीएम मोदी बल्कि पूरी सरकार के खिलाफ नकारात्मक माहौल बनने लगा. विरोध केवल कृषि कानूनों तक ही सीमित नहीं रहा, बल्कि इसमें महंगाई, बेरोजगारी जैसे शाश्वत मुद्दे भी जुड़ने लगे. बीजेपी के भीतर से भी आवाजें उठने लगीं. मणिपुर के राज्यपाल सत्यपाल मलिक, बीजेपी सांसद वरुण गांधी, पूर्व केंद्रीय मंत्री चौधरी वीरेंद्र सिंह खुल कर किसान आंदोलन का समर्थन करने लगे. दबी जुबान में पार्टी के अन्य किसान नेता भी इस आंदोलन से उठने वाले नुकसान की तरफ ध्यान दिलाने लगे. आरएसएस के पूर्व महासचिव भैय्याजी जोशी को सार्वजनिक रूप से कहना पड़ा कि किसान आंदोलन का हल निकाला जाना चाहिए. पार्टी को फीडबैक मिला कि किसान आंदोलन के कारण पांच राज्यों के आने वाले विधानसभा चुनावों में दिक्कत हो सकती है. हालांकि कानूनों को वापस लेना भी पीएम मोदी की छवि को धक्का ही है. इससे पहले वे भूमि अधिग्रहण कानूनों को भी वापस ले चुके हैं. नोटबंदी, अनुच्छेद 370 और सर्जिकल स्ट्राइक जैसे कड़े फैसलों के बूते एक कठोर प्रशासक के तौर बनी उनकी छवि को इन कानूनों पर चल रहे आंदोलन से भी चोट पहुँच रही थी और अब कानूनों की वापसी से भी नुकसान पहुंचेगा.
दिल्ली पुलिस ने गणतंत्र दिवस हिंसा मामले में जम्मू से एक किसान नेता को हिरासत में लिया
राष्ट्रीय सुरक्षा
बीजेपी नेता कहते हैं कि लंबे समय से चला आ रहा यह आंदोलन आगे चल कर एक बड़ी समस्या का रूप भी ले सकता था. देश विरोधी और अलगाववादी ताकतें इस असंतोष का फायदा उठाने की फिराक में थीं. बीजेपी नेता गणतंत्र दिवस पर लाल किले पर हुई हिंसा का उदाहरण देते हैं. सुरक्षा एजेंसियों को चिंता थी कि पंजाब जैसे बॉर्डर राज्य में अलगाववादी ताकतें इस आंदोलन को हाईजैक कर सकती थीं. पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह इस बारे में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार और गृह मंत्री अमित शाह को प्रजेंटेशन देकर भी आए थे. बीजेपी नेताओं का मानना है कि देश को कमजोर करने वाली ताकते सक्रिय हो रही थीं. पीएम मोदी ने कृषि कानूनों को वापस करने का फैसला करते समय इस बात का भी खासतौर से ध्यान रखा.
गतिरोध न टूटना
किसानों और सरकार के बीच लगातार बातचीत हुई लेकिन कोई नतीजा नहीं निकल सका. दोनों ही अपने-अपने रुख पर अड़े रहे. इसके अलावा मामला सुप्रीम कोर्ट में भी गया लेकिन कोर्ट के कहने पर बनाई गई समिति भी गतिरोध नहीं तोड़ सकी.सड़कें बंद होने को भी कोर्ट में चुनौती दी गई जिस पर सुनवाई लगातार जारी है. किसानों को दिल्ली में आने से रोकने के लिए दिल्ली पुलिस ने जो बाड़बंदी की थी कि वह हटाई गई. सरकार ने आंदोलन खत्म करने के लिए कृषि कानूनों को दो साल के लिए मुल्तवी करने का प्रस्ताव दिया था जो किसानों ने ठुकरा दिया था. वे कानूनों की वापसी से कम पर राजी नहीं थे. यही कारण है कि सरकार को अपने कदम पीछे खींचने पड़े.
मोटे तौर पर यही कारण हैं जिनके चलते मोदी ने इन कृषि कानूनों को वापस लेने का फैसला किया, हालांकि इससे उनकी छवि को धक्का जरूर पहुंचा है और सुधारों को लेकर कारोबारी जगत को सही संदेश नहीं गया, लेकिन फिलहाल बीजेपी की प्राथमिकता पांच राज्यों के चुनाव हैं, जिसके लिए वह कोई जोखिम मोल नहीं लेना चाहती. यह सही है कि पहले पेट्रोल डीजल पर एक्साइज में कटौती कर और अब कृषि कानूनों को वापस लेकर बीजेपी ने विपक्षी पार्टियों के हाथ से बड़े मुद्दे छीन लिए हैं, लेकिन कृषि कानूनों के कारण पार्टी के खिलाफ बना माहौल क्या इससे कम होगा, यह कह पाना अभी मुश्किल है.
(अखिलेश शर्मा NDTV इंडिया के एक्जीक्युटिव एडिटर हैं)