पीड़िता से राखी बंधवा कर जमानत देने पर सुप्रीम कोर्ट को क्यों कहना पड़ा कि इस तरह के फैसले न्याय पर धब्बा हैं
महिलाओं की सुरक्षा
महिलाओं की सुरक्षा (Women Security) और रेप जैसे मामलों को लेकर हमारी अदालतें कितनी ज्यादा चिंतित हैं इस बात का अंदाजा आप इन मामलों में आए फैसलों से लगा सकते हैं. दरअसल पिछले साल, मध्यप्रदेश हाईकोर्ट (MP High Court) के इंदौर बेंच ने सेक्सुअल एसॉल्ट (Sexual Assault) केस के आरोपी को जमानत देने से पहले एक ऐसी बात कही जिसे सुन कर सब हैरान रह गए. केस में बेंच ने कहा था कि, आरोपी अपनी पत्नी के साथ शिकायतकर्ता के पास राखी, एक मिठाई का डब्बा और निवेदन लेकर जाएगा कि शिकायतकर्ता उसे राखी बांधे, जिसके बदले में वह उसकी हर समय रक्षा करेगा. इसी के साथ रीति-रिवाजों के अनुसार आरोपी शिकायतकर्ता को 11 हजार की रकम देगा ठीक वैसे ही जैसे भाई अपनी बहन को रक्षाबंधन के अवसर पर देते हैं और शिकायतकर्ता से आशीर्वाद लेगा.'
इसी तरह का एक फैसला 9 मई 2020 के दिन उसी कोर्ट ने एक गैंग रेप मामले में सुनाया था. दरअसल एक गैंग रेप केस में एक आरोपी को बेल देते समय कोर्ट ने यह आदेश दिया था कि आरोपी खुद को कोविड-19 के वॉरियर के तौर पर समर्पित करे और कोविड-19 डिजास्टर मैनेजमेंट का काम करे.
ऐसे ही एक रेप केस में मद्रास हाईकोर्ट ने रेप पीड़िता को कॉम्प्रोमाइज करने को कहा था, क्योंकि आरोपी रेप पीड़ित नाबालिग लड़की से शादी करने के लिए राज़ी हो गया था, जिसके साथ उसने रेप किया था. इस फैसले के पीछे अदालत ने यह तर्क दिया कि लड़की के भविष्य पर एक बड़ा सवाल खड़ा हो रहा था और कॉम्प्रोमाइज करना उसके भविष्य के लिए अच्छा साबित हो सकता था इसलिए कोर्ट ने ऐसा फैसला लेने का निर्णय लिया. ये इकलौता ऐसा मामला नहीं था, इसी तरह का एक फैसला पॉस्को के एक केस में कलकत्ता हाईकोर्ट ने दिया था. क्योंकि इस मामले में भी आरोपी रेप पीड़िता से शादी करने की बात कर रहा था.
कोविड हॉस्पिटल या किसी अन्य इंस्टीट्यूशन में कम्युनिटी सर्विस करने, पेड़-पौधे लगाने और चैरिटी रिलीफ फंड देने जैसे हैरान कर देने वाले फैसले सुना कर देश के तमाम हाई कोर्ट ने सेक्सुअल ऑफेंसेस के आरोपियों को बेल देने का काम किया है.
सुप्रीम कोर्ट द्वारा उठाए गए कदम
हाई कोर्ट द्वारा लिए गए फैसलों को खारिज करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को कहा कि " इस तरह के फैसले न्याय पर धब्बा हैं, जहां राखी बांधने और समाज सुधार के लिए फंड देने और इकट्ठा करने की शर्त पर आरोपियों को जमानत दी जा रही हो. यह फैसले किसी भी हाल में स्वीकार नहीं किए जा सकते ना ही इससे यौन उत्पीड़न के मामलों में कमी आएगी. यह कैसे कहा जा सकता है कि एक छेड़छाड़ का आरोपी केवल राखी बांध कर पीड़िता को अपनी बहन बना लेगा और उनमें भाई बहन जैसा रिश्ता हो जाएगा."
जस्टिस एएम खानविल्कर और जस्टिस रविंद्र भट्ट की बेंच ने कहा की ऐसे केस कभी भी न्यायिक आदेशों का हिस्सा नहीं हो सकते हैं. क्योंकि ऐसे आदेश आरोपी द्वारा पहुंचाए गए नुकसान को कम कर देते हैं और इसमें पीड़ित को सेकेंडरी ट्रॉमा की तरफ एक्सपोज करने का प्रभाव होता है. कोर्ट ने आगे यह कहा की ऐसे प्रैक्टिसेज कानून के तहत निषिद्ध हैं.
ऐसे फैसले क्यों दिए जाते हैं?
दरअसल क्रिमिनल प्रोसीजर कोड के तहत न्यायाधीशों को यह अधिकार दिए गए हैं कि कुछ मामलों में वह अपने विवेक के अनुसार फैसला दे सकते हैं जो उनको उस वक्त उचित लगे.
महिलाओं के खिलाफ अपराध
एनसीआरबी द्वारा रिलीज किए गए डाटा के अनुसार, वर्ष 2019 में, 32,033 रेप के केस दर्ज किए गए. वहीं 4,038 केस रेप करने की कोशिश के खिलाफ दर्ज किए गए थे. महिलाओं की मॉडेस्टी को अपमानित करने के इरादे से किए गए हमलों के खिलाफ 88,387 केस दर्ज किए गए थे. सेक्शन 509 के तहत, महिलाओं की मॉडेस्टी को नुकसान पहुंचाने के खिलाफ 6,939 केस दर्ज किए गए थे. 2019 में महिलाओं के खिलाफ अपराध के 4,05,861 केस दर्ज किए गए थे, वहीं 2017 में 3,59,849 और 2018 में 3,78,236 केस दर्ज किए गए थे.
जेंडर सेंसिटिविटी की मांग
ऐसे फैसलों को नजरअंदाज करने कि जरूरत को समझते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जज द्वारा अपनाए गए जुडिशल अप्रोच, भाषा और कारण को प्रदर्शित करते समय अत्यधिक संवेदनशीलता की जरूरत है. हालांकि अदालतों द्वारा दिए गए यह आदेश देश की पूरी न्यायिक प्रणाली पर बुरा असर डालते हैं. सुप्रीम कोर्ट ने इन मामलों पर सख्त टिप्पणी करते हुए कहा है कि इस तरह के फैसले बिल्कुल ना लिए जाएं जिसमें आरोपी को बेल देने के लिए आरोपी और पीड़ित के बीच में समझौता हो, इसके साथ कोर्ट द्वारा लिए गए आदेशों को समाज में महिलाओं और उनके स्थान के बारे में रूढ़िवादी या पितृसत्तात्मक सोच को दर्शाने से बचना चाहिए.