कोरोना महामारी से लड़ाई में कहां हुई चूक, सामाजिक जिम्मेदारी का अभाव

इस तथ्य से इन्कार नहीं किया जा सकता कि कोरोना महामारी को लेकर लोगों में जागरूकता बढ़ी है

Update: 2021-04-17 15:11 GMT

उमेश चतुर्वेदी। इस तथ्य से इन्कार नहीं किया जा सकता कि कोरोना महामारी को लेकर लोगों में जागरूकता बढ़ी है। शायद ही कोई व्यक्ति होगा, जिसे यह पता नहीं होगा कि यह बीमारी कैसे फैलती है और किस तरह इस पर काबू पाया जा सकता है। आमतौर पर यह मान्यता रही है कि अशिक्षा और गरीबी बीमारियां बढ़ने की वजह है।

यह माना जाता रहा है कि शिक्षित और समृद्ध समाज में छुआछूत आधारित बीमारियां कम पनपती हैं। लेकिन कोरोना ने इस अवधारणा को भी खत्म कर दिया है। शत-प्रतिशत साक्षरता वाला राज्य भी इस बीमारी की चपेट में है। उत्तर प्रदेश और बिहार की तुलना में ज्यादा शिक्षित और समृद्ध राज्य पंजाब और महाराष्ट्र में भी यह बीमारी पैर फैला रही है। मुंबई को तो कला और संस्कृति का शहर माना जाता है। देश की आíथक राजधानी तो वह है ही, ऐसे में वहां भी इस महामारी का फैलना यही साबित करता है कि कोरोना ने प्रचलित अवधारणाओं को खारिज किया है। जन स्वास्थ्य के जानकारों का मानना है कि इस रोग के प्रति जागरूकता का ही असर है कि इसके रोगियों की संख्या बढती जा रही है।
आज हर व्यक्ति जान गया है कि कोरोना एक ऐसी बीमारी है, जो संक्रमित व्यक्ति के नजदीक जाने, बिना मास्क के रहने आदि से फैलती है। लोग यह भी जान गए हैं कि इस बीमारी का कोई इलाज नहीं है। ऐसे में यह सवाल उठना लाजमी है कि आखिर क्या वजह रही कि यह बीमारी लगातार बढ़ती चली गई। इसे समझने के लिए अपने देश के मानस के साथ ही मनुष्य की मूल प्रवृत्ति को समझना होगा। भारत में अपने टीका के विकसित होने की खबरें पिछले साल नवंबर से आने लगी थीं और दिसंबर से उनके सफल परीक्षण की कहानियां भी सामने आने लगी थीं। लोगों ने तभी से यह मानना शुरू कर दिया कि अब तो इस बीमारी पर विजय प्राप्त कर ली गई। इसके पहले सितंबर से संक्रमण की संख्या में गिरावट का दौर था। ऐसे माहौल में भय तो कम हो ही रहा था, टीके के सफल परीक्षण की बात सामने आते ही लोगों ने मान लिया कि देश ने कोरोना के खिलाफ आधी लड़ाई जीत ली। इसके बाद तो लोगों ने अपनी मूल मनोवृत्ति यानी स्वाधीनता के मुताबिक काम करना शुरू कर दिया। लोगों के चेहरे से मास्क गायब होने लगे। सार्वजनिक जगहों पर जाने के बावजूद बेपरवाही बढ़ती चली गई।
इसी बीच देश में टीकाकरण आरंभ हो गया। एकाध अपवादों को छोड़ दें तो टीका ले चुके व्यक्तियों पर कोई दुष्प्रभाव नजर नहीं आया। इसका असर यह हुआ कि टीका केंद्रों पर लोगों की भीड़ उमड़ पड़ी। अब तक 11 करोड़ से ज्यादा लोगों का पहला डोज ले लेना भारत जैसे देश में बड़ी कामयाबी माना जाना चाहिए। बहरहाल इस टीकाकरण ने लोगों के अंदर थोड़ा-बहुत भी कोरोना बीमारी के लिए जो भय था, उसे खत्म कर दिया। सरकारों और सरकारी तंत्र को इस दौरान ज्यादा जिम्मेदारी दिखानी थी। लेकिन वह तंत्र अपनी कामयाबियों के ढोल पीटने में अधिक व्यस्त हो गया। इसका असर यह हुआ कि निचले स्तर पर जिस प्रशासन को सख्त रहना था, लोगों को अब भी अनुशासन में बांधे रखना था, वह सुस्त होता चला गया। लोगों ने तो खुद को सहस्त्रबाहु मान ही लिया था, निचले स्तर के प्रशासनिक तंत्र की ढिलाई ने उनकी इस सोच को बढ़ावा ही दिया।
दिल्ली का ही उदाहरण लें। यहां की नागरिक सुरक्षा सेवा के जवान आम लोगों को मास्क पहनने के लिए मजबूर करने या भय दिखाने की बजाय व्यस्त सड़कों के चौराहों और लाल बत्तियों पर कारों में चलने वाले लोगों के मास्क पर नजर बनाए रखे। उनके बगल से पैदल या साइकिल से चलते लोग बिना मास्क के घूमते रहे। लेकिन सिविल डिफेंस के लोगों का ध्यान सिर्फ कार वालों पर रहा। विडंबना यह रही कि जिस सड़क या चौराहे के नजदीक सिविल डिफेंस के लोग कारों में चलने वाले अकेले या दो-तीन सवारों को मास्क पहना रहे थे, उसी चौराहे या सड़क के नजदीक के बाजार और कॉलोनियों के अंदर के ठेले-दुकानों, चाय-पान के ठीयों आदि पर बिना मास्क घूमते लोगों की ओर न तो सिविल डिफेंस के लोगों का ध्यान रहा और न ही उन्हें नियंत्रित करने वाले अधिकारियों का। दिल्ली-मुंबई हो या कोई अन्य स्थान, घनी बस्तियों के सब्जी बाजार, किराना की दुकानों के साथ ही अंदरूनी इलाकों, पार्को आदि में अब भी लोग लगातार बिना मास्क के घूम रहे हैं। लेकिन प्रशासनिक तंत्र का ध्यान इनकी ओर अब भी नहीं है।
भारतीय प्रशासनिक तंत्र की सोच में एक खामी है। वह अपनी चुस्ती उन इलाकों में ज्यादा दिखाता है, जहां से राजनीतिक नेतृत्व के लोग या आलाधिकारी रोजाना गुजरते हैं या जहां से उनका पाला ज्यादा होता है। सुदूर इलाकों में नियम-कानून का पालन कराना उनके लिए द्वितीयक काम होता है। जबकि वहां कानून का पालन कराना ज्यादा आसान होता है। केजरीवाल सरकार ने कोरोना के बढ़ते मामलों को देखते हुए रोजाना रात 10 बजे से सुबह छह बजे तक के लिए कफ्यरू का एलान किया है। दिलचस्प यह है कि मुख्य सड़कों पर तो रात 10 बजे तक दुकानें बंद करने और लोगों के जुटने पर प्रतिबंध लागू हो रहा है, लेकिन गली-मोहल्लों में अब भी दुकानें देर तक खुल रही हैं। वहां बिना मास्क के लोगों का आवागमन हो रहा है। माना जा सकता है कि या तो इलाकाई पुलिस इसे जानबूझकर अनदेखी कर रही है या फिर इन दुकानों को खुलने देने के लिए बदले में मोटी कमाई कर रही है।
जाहिर है कि जब दिल्ली जैसे इलाके में ऐसी स्थिति है, जो कोरोना के हॉटस्पॉट हो सकते हैं, उन जगहों पर कड़ाई नहीं है तो फिर कैसे कोरोना पर काबू पाया जा सकता है। प्रशासनिक तंत्र को इस परिधि से पार भी व्यवस्था लागू करने की व्यवस्था पर जोर देना होगा। अन्यथा मुख्य सड़कों पर बंदी दिखाने और घनी बस्तियों में बिना मास्क के चलने देने से कोरोना को रोका नहीं जा सकता।

भारत में अब भी स्वास्थ्य सेवाएं बहुत बेहतर स्थिति में नहीं हैं। देहाती इलाकों को छोड़िए, उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों के जिला मुख्यालयों तक में जांच के उचित केंद्र नहीं हैं। उदाहरण के लिए बलिया जैसी जगहों से जो सैंपल लिया जाता है, उन्हें जांच के लिए 130 किमी दूर आजमगढ़ या फिर 150 किमी दूर वाराणसी भेजा जाता है। वहां से जांच रिपोर्ट आने में तीन दिन का समय लगता है। इस बीच संक्रमित व्यक्ति कई और लोगों तक संक्रमण फैला चुका होता है। वैसे एक बात और है। जन स्वास्थ्य के जानकारों का कहना है कि संक्रमण के मामलों में 90 प्रतिशत से ज्यादा ऐसे मामले हैं, जिनका उपचार क्वारंटाइन करके घर में ही किया जा सकता है। दिलचस्प है कि जब तक लोग स्वस्थ रहे, तब तक उनमें से ज्यादातर लोग बिना मास्क के बेपरवाह घूमते रहे। कहते रहे कि कोरोना उनका कुछ नहीं बिगाड़ पाएगा। लेकिन जैसे ही उन्हें संक्रमण की आशंका होती है, वही व्यक्ति अस्पतालों में बेड के चक्कर में अपनी पूरी सामाजिक और राजनीतिक ताकत झोंक देता है। जानकारों का मानना है कि इस वजह से भी अस्पतालों में रोगियों की संख्या बढ़ी है और बेड की कमी हुई है।
यह बिडंबना ही कही जाएगी कि जब पिछले साल कोरोना का प्रसार बढ़ रहा था, तब प्रधानमंत्री द्वारा लगाए गए कड़े लॉकडाउन का इंटरनेट मीडिया पर विरोध होने के साथ विपक्ष ने भी मुद्दा बनाया। इस बार लॉकडाउन की मांग वे ही लोग कर रहे हैं। वैसे महाराष्ट्र ने जहां 15 दिनों का कफ्यरू लगाया है तो वहीं छत्तीसगढ़ के कुछ इलाकों में कड़े प्रतिबंध जारी हैं। दिल्ली ने भी मध्य प्रदेश की तर्ज पर सप्ताहांत 55 घंटों का कफ्यरू लगाया है। चूंकि पिछले लॉकडाउन के दौरान राज्य सरकारों की माली हालत बेहद खराब हो गई थी, लिहाजा अब राज्य सरकारें लॉकडाउन लगाने से घबरा रही हैं।

कोरोना महामारी के एक बार फिर बढ़ने की वजह सामाजिक व्यवस्था, सामूहिक सोच और सामूहिक स्मृतियों का कमजोर होना भी है। तमाम वर्ग अब अपनी सामाजिक जिम्मेदारी के प्रति बेपरवाह होते जा रहे हैं। सामूहिकता की बजाय व्यक्तिगत स्वार्थ के प्रति लोगों का आग्रह बढ़ रहा है। लोग यह मानने लगे हैं कि उन्हें किसी भी कीमत पर फायदा हो, गर वे स्वस्थ हैं तो उन्हें दूसरों से कोई लेना-देना नहीं है। कोरोना की महामारी का जाग उठना इस सोच पर भी चोट है। लेकिन सवाल यह है कि प्रशासनिक तंत्र हो या राजनीतिक नेतृत्व या फिर सामाजिक सोच, अपनी गलतियों से कब सबक लेगा? यह भी तय है कि अगर सामाजिक व्यवस्था नहीं जागेगी, भारतीय प्रशासनिक तंत्र स्टीरियो टाइप सोच से बाहर नहीं निकलेगा, तब तक हम इस बीमारी को पूरी तरह खत्म नहीं कर पाएंगे।
एक साल में स्वास्थ्य क्षेत्र की कामयाबी : कोरोना ने भारत को चेतने का मौका दिया तो स्वास्थ्य के क्षेत्र में उसने अपनी सीमा के बावजूद भारी प्रगति की। रोजाना 10 हजार वेंटिलेटर तक उत्पादित होने लगा। कोरोना के गंभीर रोगियों के उपचार में काम आने वाली रेमडेसिविर का उत्पादन भी बढ़ा। इसे बनाने वाली कंपनियों ने 14 अप्रैल को एलान किया था कि वे दोगुनी डोज रोजाना बनाएंगी। भारत में कोवैक्सीन और कोविशील्ड वैक्सीन लांच हो चुकी है और उनके जरिये टीकाकरण हो रहा है। जल्द ही रूस की वैक्सीन स्पुतनिक को भी लगाए जाने की राह खुल सकती है।
कोरोना के चलते मौजूदा साल 2021-22 के लिए स्वास्थ्य क्षेत्र के लिए 2,23,846 करोड़ रुपये का आवंटन किया गया, जो पिछले वित्त वर्ष 2020-21 के आवंटन 94,452 करोड़ के मुकाबले करीब 137 फीसद ज्यादा था। साथ ही, कोरोना की वैक्सीन के लिए 35 हजार करोड़ रुपये का आवंटन किया गया है। इसी के दम पर भारत ने हाल के दिनों में वैक्सीन डिप्लोमेसी के जरिये दुनिया में साख बनाई। भारत ने जहां नेपाल को दस लाख डोज वैक्सीन भेजी, वहीं पाकिस्तान को एक करोड़ 60 लाख यूनिट भेजा। इसी तरह बांग्लादेश को 20 लाख खुराक, भूटान को डेढ़ लाख खुराक और मालदीव को एक लाख खुराक वैक्सीन भेजी गई। यह भारतीय वैज्ञानिकों का ही कमाल है कि भारत ने अफगानिस्तान को पांच लाख खुराक और ब्राजील को भी बीस लाख खुराक भेजी।
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