बेटियों के हक-हुकूक का अब जो हाल है

हम तब बहुत गुस्से में थे, पर उम्मीद से भरे हुए। दस साल पहले,

Update: 2022-12-17 13:35 GMT

फाइल फोटो 

जनता से रिश्ता वबेडेस्क | हम तब बहुत गुस्से में थे, पर उम्मीद से भरे हुए। दस साल पहले, 16 दिसंबर को दिल्ली में 23 वर्षीय छात्रा के साथ हुए जघन्य सामूहिक बलात्कार ने दसियों हजार लोगों को सड़कों पर ला खड़ा किया था। न्याय के पक्षधर लोग आंसू गैस, पानी की बौछारों और ठंड से बेपरवाह थे। इस ओर पूरी दुनिया का ध्यान गया था। संसद में भी गुस्सा उमड़ पड़ा था। एक न्यायिक आयोग गठित हुआ था। बलात्कार की कानूनी परिभाषा का विस्तार हुआ था। तब मौत की सजा, फास्ट-ट्रैक कोर्ट, हिंसा, लिंगभेद और बदलाव पर मैंने खूब लिखा था।

मगर उसके बाद के दशक के आंकड़ों को देखिए, तो न सिर्फ बलात्कार, बल्कि महिलाओं के खिलाफ हर तरह के अपराध की संख्या में वृद्धि दर्ज की गई है। बेशक, इस तर्क में दम है कि बढ़ती आबादी के चलते भी अपराधों में वृद्धि नजर आती है। अपराध दर्ज कराने का चलन भी बढ़ा है, लेकिन आज हो रही अकथनीय हिंसा की भला क्या सफाई है? अब भी लड़कियों को पेड़ों से लटका दिया जाता है, जलाकर मार दिया जाता है या अंतड़ी निकाल दी जाती है। हम ऐसे अपराधों की भयावहता पर आए दिन स्तब्ध होते रहते हैं।
ठीक दस साल पहले, हमने 23 वर्षीय उस लड़की को 'भारत की बेटी' के रूप में पहचाना था, उसे 'निर्भया' कहकर श्रद्धांजलि दी थी। जब वह अस्पताल में अंतिम सांसें गिन रही थी, तब उसने अपनी मां के लिए संदेश लिखा था, 'मां, मैं जीना चाहती हूं'। वरिष्ठ वकील इंदिरा जयसिंह ने तब कहा था, 'इसके विपरीत कल्पना करके देखिए, जब महिलाएं कहती हैं कि मैं शर्म से मर जाना चाहती हूं'। उसके साथ जो कुछ भी किया गया, बावजूद इसके, उसके पास जीने की हर वजह थी और हक था।
उस लड़की को बचाने में नाकामी पर सामूहिक शर्म के चलते कई कानून पारित हुए। हमने अपराध-उम्र सीमा घटाकर 16 कर दी, पर अब भी सोशल मीडिया के प्रसार के साथ, 15 साल या उससे कम उम्र के लोग भी भयानक अपराध कर रहे हैं और हमारे पास समाधान नहीं है। हमने संबंध बनाने की सहमति की उम्र बढ़ाकर 18 साल कर दी, पर चिंता कायम है। 2014 के बाद यौन अपराधों से बच्चों के संरक्षण अधिनियम (पॉक्सो) के तहत दर्ज किए गए सभी मामलों में से लगभग 70 फीसदी अब भी इंसाफ के इंतजार में हैं।
बीते दस वर्षों में महिलाओं की पुलिसिंग भी बढ़ी है। आठ राज्यों में लव जेहाद संबंधी कानूनों के पीछे यह धारणा है कि आज की वयस्क महिलाएं भी विवेकपूर्ण विकल्प चुनने में अक्षम हैं। शायद इसीलिए, केरल उच्च न्यायालय ने 24 वर्षीय हादिया से कहा कि उसे अपने पिता के संरक्षण में तब तक रहना चाहिए, जब तक वह उचित रूप से विवाहित न हो जाए। भारत की बेटियों के प्रति खाप मानसिकता विश्वविद्यालयों में भी जगह पाती है, जहां महिलाओं की सुरक्षा के नाम पर छात्रावास के नियम भेदभावपूर्ण बनाए जाते हैं।
वैसे 2012 के बाद के वर्षों में अनेक बड़े बदलाव भी हुए हैं। गर्भपात, एलजीबीटी समुदाय के लिए समान विवाह अधिकारों की मांग हुई है। मैरिटल रेप को अपराध की श्रेणी में लाने की मांग तेज हुई है। तीन तलाक पर प्रतिबंध लगाने की मांग सबसे पहले मुस्लिम महिलाओं ने ही उठाई थी। अब उच्च शिक्षा में पहले से कहीं ज्यादा लड़कियां हैं। आज किशोरियां तो सबसे महत्वाकांक्षी पीढ़ी है, जो हवाई जहाज उड़ाने या सशस्त्र बलों में शामिल होने का सपना देखती है। इन तरक्कियों को देख ऊर्जा बढ़ जाती है, लेकिन रुकावटें भी कायम हैं। भारत के मी-टू आंदोलन ने अपने जोश-जुनून से चौंका दिया था। 16 साल तक ठंडे बस्ते में रखने के बाद भारत ने 2013 में कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न रोकने संबंधी कानून पारित किया। उसके पांच साल बाद सैकड़ों महिलाओं ने कार्यस्थल पर यौन शोषण की घटनाओं को साझा करने के लिए सोशल मीडिया का इस्तेमाल किया, पर शायद इस अभियान को बंद करना आसान था। एक न्यायमूर्ति को उनके साथियों ने ही बरी कर दिया। अन्य आरोपियों ने आपराधिक मानहानि के रास्ते को अपने बचाव के लिए चुना।
ध्यान रहे, 2012 में किसी ने भी बलात्कारियों या पीड़िता के धर्म के बारे में नहीं पूछा था, लेकिन अब प्रतिक्रियाएं विचारधारा आधारित हो गई हैं। 2018 में कठुआ में एक बच्ची से सामूहिक बलात्कार, यातना और हत्या के मामले में स्थानीय बार एसोसिएशन ने पुलिस को आरोप पत्र दाखिल करने से रोक दिया था। बच्ची के नहीं, बल्कि बलात्कारियों के समर्थन में मार्च का आयोजन हुआ था। श्रद्धा वॉकर को उसके मुस्लिम बॉयफ्रेंड ने निर्ममता से मार डाला, यह एक पक्ष के लिए लव जेहाद है, तो दूसरे कई लोग हिंदू पुरुषों के अपराध खोजने-गिनाने में लग गए।
आज शोरगुल में गुम अनेक कहानियां हैं, जो कही नहीं जाती हैं। तीन में से एक महिला को पति या परिवार के सदस्य पीटते हैं, सिर्फ 14 प्रतिशत महिलाएं किसी को इसकी सूचना देती हैं। ऐसी हिंसा खबर नहीं बनती। मानकर चला जाता है कि पुलिस ऐसे निजी मामले में हस्तक्षेप नहीं करेगी। माता-पिता शर्मिंदगी से बचने के लिए बेटियों को समझौते की सलाह देते हैं! दलित व आदिवासी लड़कियों-महिलाओं के आए दिन उत्पीड़न पर कोई नहीं चौंकता। जल्दबाजी में पुलिस किसी पीड़ित-मृत लड़की का अंतिम संस्कार तक कर देती है। यह हकीकत है, आज न्याय के लिए बहुत सारी लड़कियां अकेले लड़ रही हैं। बिलकिस बानो के लिए कोई सामूहिक समर्थन नहीं है।
दरअसल, कमी कानूनों में नहीं है। यह पितृसत्ता है, जिसे मिटाने की इच्छाशक्ति का प्रदर्शन सरकार, पुलिस और न्यायपालिका सहित किसी भी पक्ष ने नहीं किया है। यह कोई 'रॉकेट साईंस' नहीं है। पाठ्यपुस्तकों में लैंगिक रूढ़ियों को बदलिए। सहमति की चर्चा कीजिए। बेटियों से अपेक्षा के बजाय बेटों से भी कपड़े धुलवाइए। मांग कीजिए, ताकि सरकारें बुनियादी ढांचे व सुविधाओं में सुधार करें, सार्वजनिक जगहों पर महिलाओं की भी पुरुषों के समान आवाजाही हो। अधिक से अधिक पुलिस थानों में महिला डेस्क हो। शिक्षकों, पुलिस, विधायकों, न्यायाधीशों को अनिवार्य रूप से संवेदनशील बनाया जाए। जब तक हमारी सोच नहीं बदलती, तब तक हमारे लिए कुछ नहीं बदलेगा। जब तक पुरुष यह स्वीकार नहीं करते और यह नहीं समझते कि अब यथास्थिति जारी नहीं रह सकती, तब तक कुछ नहीं बदलेगा। किसी कामचलाऊ इंतजाम की जरूरत नहीं है। हमें सुरक्षा का नया खाका चाहिए।

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