इससे पहले भी वह चुनावी अठखेलियों में इतनी महारत हासिल कर चुका है कि उसके इर्द-गिर्द की राजनीति का बजट बढ़ जाता है। अपना मुन्ने लाल दरअसल चुनावी राजनीति का मॉडल है। उसे मालूम है कि चुनावी हरकतों से देश केवल उस जैसे मतदाता का ही भला कर सकता है, सो वह चुनावी सतह पर अपने चिन्ह खड़े करता है। मीडिया के लिए मुन्ने लाल की हैसियत में सियासी निष्कर्ष निकालना इतना आसान है कि उसकी टोह लेकर पता चल जाता है कि सत्ता के लिए वोट की असली कीमत है क्या। अपनी बढ़ती हैसियत से मुन्ने लाल को लगने लगा है कि बतौर मतदाता उसे अपनी प्रोफेशनल काबिलीयत को प्रमाणित करते हुए कुछ ऐसा करना होगा कि वह भी सदा-सदा के लिए देश के लोकतांत्रिक चरित्र का अहम किरदार बन जाए। दरअसल वह सत्तारूढ़ दले के प्रवक्ताओं से प्रभावित है। सोचता है, 'आखिर पार्टी प्रवक्ता होने की योग्यता में आम मतदाता क्यों फिट नहीं हो सकता। हर मतदाता सरकार बनाने की खुशी में अगले पांच साल विपक्षी समर्थकों से उलझते गुजार देता है।
अब तो यह पता भी नहीं चलता कि सरकार के जूते में पांव रखे जाएं या सोच-समझ कर ही आगे बढ़ा जाए।' मुन्ने लाल ने किसान कानूनों को लेकर मतदान से भी अधिक मेहनत से इनका प्रचार किया था, लेकिन सरकार ने झटके से सारे कानून नीचे गिरा दिए। उसे अफसोस यह होने लगा है कि मतदाता के रूप में जो सौदेबाजी होती है, उससे कहीं भिन्न अपनी ही सरकार को समझना है। मुन्ने लाल को यह भी मालूम हो चुका है कि सारा खेल सत्ता का है और सत्ता के लिए मतदाता अहम है। बतौर मतदाता वह विपक्षी विधायक से भी ऊपर है, इसलिए उसने स्थायी रूप से मतदाता पार्टी बनाने का विचार कर लिया। इसकी बाकायदा घोषणा की गई। सारी बिरादरी उसके साथ हो गई। उस जैसे तमाम लोग अब मानने लगे कि जब जन-प्रतिनिधि सत्ता के लिए एक हो सकते हैं, तो मतदाता क्यों नहीं। मतदाता पार्टी ने घोषित रूप से कह दिया है कि जो लोग अतिक्रमणकारी हैं या जो बैंक से उधार लेकर लौटाना भूल गए हैं, वे सभी मतदाता पार्टी की अहम भूमिका में रहेंगे। देखते ही देखते मतदाता पार्टी की पहुंच हर राजनीतिक दल तक हो गई क्योंकि सारे बीपीएल परिवार, मुफ्त राशन ग्रहण करने वाले, देशभक्त, राष्ट्रभक्त, धर्म प्रेमी और भारतीय परंपराओं से चिपके इसके सदस्य बन चुके हैं। अब मुन्ने लाल से प्रभावित लोकतंत्र ने भी मतदाता पार्टी ज्वाइन कर ली है।
निर्मल असो
स्वतंत्र लेखक