मतदाता के मन की बात
उत्तर प्रदेश में चुनावी शोर थम गया है। क्या चुनाव सिर्फ वक्ती माहौल बनाते हैं
शशि शेखर
उत्तर प्रदेश में चुनावी शोर थम गया है। क्या चुनाव सिर्फ वक्ती माहौल बनाते हैं और रुखसत हो जाते हैं? नहीं, हर मतदान की अपनी अनोखी दास्तां होती है। इस दौरान उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के विभिन्न अंचलों में घूमते हुए मुझे भारतीय लोकतंत्र की जिन अंदरूनी परतों के दर्शन हुए, उन्हें आपसे साझा करने की इजाजत चाहता हूं।
कोरोना ने भारतीय अर्थव्यवस्था की जो रीढ़ तोड़ी है, हम इससे कैसे और कब उबरेंगे, इस पर अर्थशा्त्रिरयों की राय बंटी हुई है। उनकी भविष्यवाणियों का तहे दिल से सम्मान करते हुए भी कहना चाहूंगा कि भारतीय लोक अपने तंत्र को सुदृढ़ करने के लिए अपेक्षा से ज्यादा तेज गति से वापस लौट चला है। बड़ी मात्रा में खाद्यान्न और अन्य सरकारी इमदाद के चलते लोगों में आत्मविश्वास जागा है कि चाहे जो हो जाए, वे भूखे नहीं मरेंगे। संतोषी स्वभाव वाले हिन्दुस्तानियों के लिए पेट में जीने लायक अन्न हो, तो वे कुछ भी कर सकते हैं। हिंदी पट्टी के ये दो प्रदेश एक बार फिर समूची ऊर्जा के साथ योगदान के लिए तत्पर हैं।
क्या आप सोचते हैं कि आपको जीवन भर ऐसे ही बिना जेब में हाथ डाले खाने को अनाज मिलता रहेगा? अधिकांश लोगों ने इस सवाल का जवाब यही दिया- हम जानते हैं, ऐसा नहीं हो सकता। ज्यादातर को आशंका है कि यह योजना चुनाव के बाद खत्म हो जाएगी, पर वे इससे भयभीत नहीं हैं। वे जानते हैं कि कोई भी हुकूमत आजीवन उनका पेट नहीं भर सकती। मथुरा में एक दलित महिला ने तो यहां तक कहा कि जितना हो गया, बहुत है। अगर ऐसे ही सब कुछ 'फ्री' मिलता रहा, तो हमारे बच्चे कामचोर हो जाएंगे। आम भारतीय की श्रम साधना के साथ इस स्वाभिमान को सलाम करने को जी चाहता है।
अब नौजवानों की बात। मुझे लगता था, कोरोना ने उनका मनोबल तोड़ दिया होगा। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि सारी रिपोर्टें बताती हैं, काम के अवसर पहले के मुकाबले कम हैं। लघु एवं मध्यम उद्योगों पर कठोरतम मार पड़ी है। असंगठित क्षेत्र के साथ मिलकर लघु एवं मध्यम उद्योग 90 फीसदी से अधिक रोजगार जनते हैं। जब इन्हीं को पाला मार गया हो, तो फिर बेरोजगारी पर कैसे काबू पाया जाएगा? यह स्थिति अर्थशास्त्रियों में नाउम्मीदी पैदा करती है, पर गांवों और कस्बों के नौजवान अगर अति-आशावादी नहीं हैं, तो निराशावादी भी कतई नहीं हैं। उन्हें लगता है कि देश आगे बढ़ रहा है और यह तरक्की उनके लिए नए दरवाजे खोलने वाली साबित होगी। वे गलत नहीं हैं। हम भारतीय सदियों से अपनी मिट्टी से ताकत हासिल करते आए हैं।
इन पंक्तियों से यह मानने की गलती मत कर बैठिएगा कि सब अच्छा चल रहा है। बड़ी संख्या में ऐसे नौजवान भी मिले, जो सरकारी भर्तियां न खुलने से बेजार थे। सेना, पुलिस और अर्द्धसैनिक बलों में नौकरी करना गांवों में आज भी रुतबे की बात मानी जाती है, पर युवाओं के बडे़ तबके को लगता है कि इस क्षेत्र में सरकार सही काम नहीं कर रही। यही वजह है कि कई जगह मंत्रियों की सभाओं में नौजवानों ने खुलेआम मांग रखी कि भर्तियां खोली जाएं।
इससे निपटने के लिए सरकार इनोवेशन और स्व-रोजगार पर जोर दे रही है। पर इस दिशा में किए जा रहे काम अभी शुरुआती अवस्था में हैं। उनमें हर हाल में तेजी लानी होगी। इसके बिना गांवों से बड़ी संख्या में होने वाला पलायन रुकना मुश्किल है। अपने ही मुल्क में जलावतनी झेलने वाले लोगों की बढ़ती तादाद वाकई चिंताजनक है। इससे हमारे महानगर चरमरा रहे हैं और गांव वीरान हो रहे हैं।
मतदाताओं के बडे़ वर्ग से बातचीत के दौरान एक साझा राय यह भी उभरी कि हमारे नेताओं को अपनी वाणी पर संयम रखना चाहिए। लगभग सभी का मानना था कि यदि नेता अपनी ऊर्जा का उपयोग अपशब्दों का प्रवाह बढ़ाने के बजाय उनके हित में करें, तो हालात बदल सकते हैं। अधिकांश जगह लोग अपने जन-प्रतिनिधि से असंतुष्ट दिखे। उन्हें बडे़ नेताओं से तो कोई शिकायत नहीं, पर उनको ऐसा लगता है कि हमारा जन-प्रतिनिधि हमारी बातों को सही तरीके से 'ऊपर' तक नहीं पहुंचा रहा। क्या वाकई ऐसा है?
एक विधायक ने इसके जवाब में अपना दर्द बयान किया कि पार्टी और नेता के नाम पर हमें वोट मिलते जरूर हैं, मगर चुनाव जीतने के लिए हमें हर तरह के संसाधन झोंकने पड़ते हैं। हम जैसे लोगों से ही विधानमंडलों और पार्टी में बडे़ नेताओं की जय-जयकार होती है, पर हमारे हाथ में अधिकार क्या हैं? मंत्री व मुख्यमंत्री आलाकमान की पसंद से चुने जाते हैं और वे अपना सारा ध्यान उन्हें खुश रखने और अपने हितों को पोसने में लगा देते हैं। उन्होंने आगे कहा कि अफसर हमारी सुनते नहीं, क्योंकि उनकी नियुक्ति में हमारा कोई दखल नहीं। अब जिस भी पार्टी की सरकार आए, वह इस द्वैत को दूर करने का पुरजोर प्रयास करे।
यहां यह भी सवाल उठता है कि क्या हमारे जन-प्रतिनिधि वाकई आम आदमी के हक-हुकूक की रक्षा करने के काबिल हैं? दुर्भाग्य से आंकडे़ उनके खिलाफ गवाही देते हैं। एडीआर की ताजा रिपोर्ट पर यकीन करें, तो उत्तर प्रदेश के मौजूदा विधानसभा चुनाव में कुलजमा 4,442 लोग किस्मत आजमाने उतरे। इनमें से 1,142 पर आपराधिक मुकदमे चल रहे हैं। भरोसा न हो, तो इन आंकड़ों पर नजर डाल देखिए, सब कुछ साफ हो जाएगा। इस चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने 169, समाजवादी पार्टी ने 224, बसपा ने 153, कांग्रेस ने 160, राष्ट्रीय लोकदल ने 18 ऐसे उम्मीदवारों को टिकट दिए, जिन पर आपराधिक मुकदमे हैं। कुछ पर तो हत्या, बलात्कार और अपहरण तक के आरोप हैं। चुनाव-दर-चुनाव इस आंकडे़ में बढ़ोतरी हुई है।
यकीनन, यह कहावत भारतीय संदर्भ में गलत साबित होती है कि लोकतंत्र में सत्तानायक वैसा ही होता है, जैसी जनता होती है? क्या हम भारतीय मिजाज से अपराधी हैं? इन आंकड़ों से आप यह भी समझ गए होंगे कि राजनीति में भाषा और संस्कार की गिरावट क्यों होती जा रही है!
एक और बात। इस बार की विधानसभाओं में भी करोड़पति माननीयों की तादाद कम नहीं होने वाली। उत्तर प्रदेश की पिछली विधानसभा में 322 यानी 80 प्रतिशत विधायक करोड़पति थे। इनकी औसत आमदनी 5.92 करोड़ आंकी गई थी। इसके बरक्स 2017-18 में उत्तर प्रदेश की प्रति-व्यक्ति आय 48,520 रुपये थी, जो अब 74,480 रुपये पर जा पहुंची है। तय है, आम आदमी की आय पांच साल में दोगुनी नहीं होती, पर माननीयों की संपत्ति कई गुना बढ़ जाती है। सवाल उठता है कि ये लोग स्वहित में काम करते हैं या जनहित में?