उत्तराखंड चुनाव 2022: क्या भाजपा सत्ता में लौटकर नया इतिहास रचेगी?
भाजपा सत्ता में लौटकर नया इतिहास रचेगी?
पहाड़ी राज्य और 'देव भूमि' के रूप में प्रचारित उत्तराखंड के आसन्न विधानसभा चुनाव में दिलचस्पी का पहला मुद्दा तो यही है कि क्या वर्तमान में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी फिर से सत्ता में लौट सकेगी? क्योंकि 21 साल पुराने इस राज्य में हर चुनाव में सत्ता परिवर्तन का इतिहास है। न केवल सत्ता परिवर्तन बल्कि एक ही पार्टी की सरकार में मुख्यमंत्री बदले जाने का भी रिकाॅर्ड है।
केवल एक बार कांग्रेस सरकार में नारायण दत्त तिवारी अकेले ऐसे सीएम रहे हैं, जिन्होंने पांच साल पूरे किए। उनके बाद भाजपा के त्रिवेन्द्रसिंह रावत थे, जो चार साल तक कुर्सी पर टिक पाए। भाजपा की वर्तमान सत्तानशीनी में पुष्करसिंह धामी तीसरे मुख्यमंत्री हैं, जिन पर पार्टी को चुनाव जिताने की महती जिम्मेदारी है।
उत्तराखंड 2000 में पुराने उत्तर प्रदेश से इस आधार पर अलग हुआ था कि एक विशाल राज्य का हिस्सा होने के कारण यह पहाड़ी क्षेत्र विकास की दृष्टि से उपेक्षित है। इसके लिए बाकायदा जन आंदोलन भी हुआ। नया उत्तराखंड 70 सीटों वाला राज्य बना। राज्य में मुख्य राजनीतिक दल भाजपा और कांग्रेस ही हैं। थोड़ा असर बसपा का भी है। 2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा (एनडीए) ने 70 में से 57 सीटें जीतकर प्रचंड बहुमत हासिल किया था। प्रतिपक्षी कांग्रेस (एनडीए) को मात्र 11 सीटें मिली थीं। लेकिन इतना तगड़ा बहुमत भी भाजपा की अंतर्कलह को नहीं रोक सका।
पहले त्रिवेन्द्रसिंह रावत को सीएम बनाया गया। उनके खिलाफ भाजपा के ही 18 विधायकों ने बगावत का बिगुल फूंक दिया था। इनमें कुछ तो कांग्रेस से भाजपा में आए हुए थे। त्रिवेन्द्रसिंह के कुछ फैसलों, जैसे कि गढ़वाल के हिस्से गैरसैंण मंडल में कुमाऊं के दो जिलों को शामिल करना, चारधाम यानी बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री को सरकारी देवस्थानम बोर्ड के अधीन करना, गैरसैंण को उत्तराखंड की ग्रीष्मकालीन राजधानी घोषित करना तथा लोगों से कम मिलना।
देवस्थानम् बोर्ड बनाने का ब्राह्मणों ने कड़ा विरोध किया था, हालांकि वह सही फैसला था, क्योंकि देश के कई मंदिर ऐसे बोर्ड के तहत काम कर रहे हैं। वर्तमान मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने चुनाव में ब्राह्मणों की नाराजगी के मद्देनजर इस बोर्ड को भंग कर दिया है। यह भी विडंबना है कि उत्तराखंड स्थापना के बीस साल बाद भी अपनी स्थाई राजधानी तलाश रहा है। गर्मियों को छोड़कर प्रदेश की राजधानी देहरादून में रहती है।
उत्तराखंड चुनाव में संभावित ज्यादातर मुद्दे पुराने ही हैं, इनमें अब किसानों की नाराजगी का मुद्दा भी शामिल हो गया है। लेकिन इस मुद्दे का असर राज्य के तीन मैदानी जिलों देहरादून, हरिद्वार और ऊधमसिंह नगर में ही ज्यादा है। हालांकि मोदी सरकार ने तीन विवादित कृषि कानूनों को रद्द कर किसानों की नाराजगी कम करने की कोशिश की है, लेकिन इसका भाजपा के पक्ष में असर कितना होगा? यह चुनाव नतीजे ही बताएंगे।
यह बात इसलिए भी अहम है कि उत्तराखंड राज्य की आधी सीटें मैदानी इलाकों में ही पड़ती हैं। सरकार बनाने में इनकी अहम भूमिका रहती है। पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा ने मैदानी जिलों की अधिकांश सीटें जीत ली थीं। लेकिन इस बार ऐसा होने की संभावना कम दिखती है।
किसानों के अलावा दूसरा सबसे अहम मुद्दा पलायन का है। उत्तराखंड के पहाड़ी हिस्सों से रोजगार के लिए लोगों का बड़े पैमाने पर पलायन बड़ी समस्या है। इसलिए पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्रसिंह रावत ने 'उत्तराखंड राज्य पलायन आयोग' का गठन किया था। लोगो के पलायन का मुख्य कारण पहाड़ी जिलों में विकास की बेहद धीमी गति और स्वास्थ्य तथा शिक्षा जैसी बुनियादी सुविधाओं का अभाव है। रोजगार मुख्य रूप से मैदानी इलाकों में है। पहाड़ी इलाकों में पर्यटन एक बड़ा जरिया है, लेकिन उसकी भी सीमा है।
पढ़ लिखकर लोग आजीविका के लिए मैदानी या देश के दूसरे हिस्सों में चले जाते हैं तो फिर अपने गांव नहीं लौटते। इस संदर्भ में उत्तराखंड पलायन आयोग की रिपोर्ट ही काफी कुछ कहती है। इसके मुताबिक पिछल पांच सालों में पहाड़ी इलाकों की 60 फीसदी आबादी पलायन कर चुकी है। यानी करीब 32 लाख लोग अपने घर छोड़ चुके हैं। 2018 में 1700 गांव भूतहा बन चुके थे और एक हजार गांवों में सौ से भी कम लोग बचे थे। सर्वाधिक पलायन पौड़ी और गढ़वाल जिलों से हुआ है।
हालांकि उत्तराखंड सरकार का दावा है कि 20 फीसदी लोगो को वापस भी लाया गया है। बावजूद इसके निरंतर पलायन राज्य की अभी भी बड़ी समस्या है और इसका दीर्घकालिक निदान ही संभव है। आबादी घटने से राजनीतिक समीकरण भी बदल रहे हैं। कई पहाड़ी क्षेत्रों के नुमाइंदे अब मैदानी इलाकों से चुनाव लड़ने की जुगत में हैं। पहाड़ी क्षेत्रों में आबादी घटने का एक कारण कठिन प्राकृतिक स्थितियां और आपदाएं भी हैं। इनके अलावा शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़कों और आवागमन सुविधाओं की कमी भी बड़ा कारण है।
ऐसे में राजनीतिक पार्टियां चेहरा बदलने को फिर सत्ता हासिल करने एकमात्र उपाय समझने लगती हैं। तकरीबन हर मुख्यमंत्री कुछ समय बाद ही विवादों में घिर जाता है। चुनाव के मद्देनजर दलबदल आम बात है। इस बार भी तस्वीर बहुत अलग नहीं है। विजय बहुगुणा, हरक सिंह रावत और सतपाल महाराज जैसे पुराने दिग्गज कांग्रेसी नेता कुछ पाने की उम्मीद में भाजपा में चले। गए थे, अब घर वापसी की तैयारी में हैं।
राज्य के पूर्व परिवहन मंत्री यशपाल आर्य और नैनीताल से बीजेपी विधायक संजीव कांग्रेस में शामिल हो गए हैं। एक और मंत्री हरक सिंह रावत ने भी पद से इस्तीफा दे दिया है, उनके कांग्रेस में जाने की चर्चा है। ये विधायक मान रहे हैं कि अगली सरकार कांग्रेस की बन सकती है। शायद ही कारण है कि वरिष्ठ कांग्रेस नेता हरीश रावत ने अभी से अपने तेवर दिखाने शुरू कर दिए हैं। हाल में उन्होंने बयान दिया कि संगठन में आला कमान के नजदीकी लोग उन्हें ठीक से काम नहीं करने दे रहे हैं।
इस बयान के दो अर्थ निकाले गए। एक तो रावत पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह की तर्ज पर उत्तराखंड में क्षेत्रीय दल बनाने के मूड में हैं या फिर राज्य में कांग्रेस के सत्ता में लौटने की संभावना के चलते सीएम पद के लिए अभी से अपनी दावेदारी ठोक रहे हैं। इस बार चुनाव में आम आदमी पार्टी भी ताल ठोक रही है।
पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल हरिद्वार में रोड शो कर चुके हैं। खास बात है कि उत्तराखंड में आप को हिंदुत्व को मुद्दा बनाने से कोई गुरेज नहीं है। आप ने ही सबसे पहले उत्तराखंड को 'देश की आध्यात्मिक राजधानी' बनाने का ऐलान किया था। पार्टी के सभी नेता साधु संतों का आशीर्वाद लेना नहीं भूलते। आप की यह रणनीति भाजपा के लिए खतरे की घंटी है।
बहरहाल सवाल यही है कि क्या भाजपा लगातार दूसरी बार विधानसभा चुनाव जीत कर राज्य में नया इतिहास रच पाएगी या नहीं। मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने देवस्थानम् बोर्ड भंग कर नाराजी का एक बड़ा मुद्दा खत्म कर दिया है, लेकिन जीत की राह अभी भी आसान नहीं है।
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए जनता से रिश्ता उत्तरदायी नहीं है।