UP Election: उत्तर प्रदेश की राजनीति की नयी किताब लिख रहा है 2022 का विधानसभा चुनाव
उत्तर प्रदेश की राजनीति
विजय त्रिवेदी।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी (PM Narendra Modi) जब पश्चिमी उत्तर प्रदेश (Western Uttar Pradesh) के बीजेपी कार्यकर्ताओं और मतदाताओं को संबोधित कर रहे थे,तब उन्होंने कहा कि उत्तर प्रदेश का यह चुनाव नया इतिहास रचेगा. उनका इशारा जो भी रहा हो,लेकिन यह चुनाव कई मायनों में यूपी की राजनीति की नयी किताब लिख रहा है. क्या प्रधानमंत्री भारतीय जनता पार्टी (BJP) की सरकार दोबारा आने का इतिहास बनने की बात कर रहे थे? करीब पन्द्रह साल के राजनीतिक वनवास के बाद पिछले चुनाव में बीजेपी ने 2017 में सरकार बनाई. सरकार भी बहुत मजबूत बहुमत के साथ 403 में से 312 सीटों के साथ.
लंबे समय से वहां किसी ने दोबारा सरकार नहीं बनाई है. पिछले तीन चुनावों को देखे तो यूपी के मतदाताओं ने साल 2007 में मायावती को सत्ता सौंपी, फिर 2012 में मुलायम सिंह के नेतृत्व में लड़े गए चुनाव में अखिलेश यादव ने सरकार बनाई और 2017 में बीजेपी की सरकार तो बनी,लेकिन मुख्यमंत्री का चेहरा नया था – योगी आदित्यनाथ. पार्टी ने योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में ना केवल पांच साल सरकार चलाई,बल्कि उनके ही चेहरे के साथ इस बार भी चुनाव मैदान में उतरने का फ़ैसला किया. बीजेपी में कुछ नेताओं को लगता है कि इस बार चुनाव में चेहरा भले ही योगी आदित्यनाथ हों,लेकिन हो सकता है कि मुख्यमंत्री की कुर्सी पर कोई और बैठे, खासतौर से उस हाल में जब बीजेपी तीन सौ तक नहीं पहुंचे. वैसे बीजेपी नेतृत्व का औपचारिक तौर पर कहना है कि मुख्यमंत्री योगी ही बनेंगे.
राजनीतिक दलों का नेतृत्व संगठन की दूसरी पीढ़ी के हाथ में आ गया है
सरकार किसकी बनेगी, कौन चुनाव जीतेगा और सिकंदर होगा,यह तो अलग मसला है,लेकिन एक मायने में यह चुनाव उत्तरप्रदेश की राजनीति की नयी कहानी लिख रहा है. इस चुनाव में मैदान में रहने वाले सभी राजनीतिक दलों का नेतृत्व संगठन की दूसरी पीढ़ी के हाथ में आ गया है और पुराने चेहरे पर्दे के पीछे चले गए हैं. सबसे पहले बात बीजेपी की. बीजेपी यह चुनाव मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के चेहरे के साथ लड़ रही है. योगी आदित्यनाथ बीजेपी के युवा चेहरों में से एक हैं. पिछला चुनाव बीजेपी ने बिना किसी मुख्यमंत्री उम्मीदवार के लड़ा था और केवल प्रधानमंत्री मोदी के नाम पर पार्टी मैदान में उतरी. बीजेपी में एक ज़माने में बहुत से कद्दावर नेता रहे, उनमें पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का नाम सबसे ऊपर आता है.
पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह, लाल जी टंडन, कलराज मिश्र, राजनाथ सिंह, केशरीनाथ त्रिपाठी लक्ष्मीकांत वाजपेयी जैसे नेता रहे. अटल बिहारी वाजपेयी, कल्याण सिंह और लालजी टंडन का निधन हो गया है. राजनाथ सिंह यूपी की राजनीति को छोड़कर केन्द्र की राजनीति के बड़े चेहरा हो गए हैं और अब रक्षा मंत्री हैं वो लखनऊ में वापसी भी नहीं चाहते. कलराज मिश्र, लक्ष्मीकांत वाजपेयी और केशरी नाथ पार्टी के ब्राह्मण चेहरा रहे हैं, जिसकी फिलहाल की राजनीति में बीजेपी को ज़रूरत नहीं लगती. अब पार्टी युवा चेहरों योगी आदित्यनाथ, केशव प्रसाद मौर्य, दिनेश शर्मा, सिद्धार्थनाथ सिंह और श्रीकांत शर्मा के साथ अपनी ताकत आजमा रही है.
बीजेपी के मुकाबले कहा जाता है कि इस बार समाजवादी पार्टी उसे कड़ी चुनौती दे रही है और सरकार बना ले तब भी आश्चर्य नहीं होना चाहिए. समाजवादी पार्टी में अब भी कई बार यह नारा भले ही लगता हो कि "जिसका जलवा कायम है, उसका नाम मुलायम है",लेकिन अब नेताजी पार्श्व में चले गए हैं. कहा जाता है कि ना तो वे दखल दे रहे हैं और ना कोई उनकी सुनवाई हो रही है. मुलायम सिंह के अलावा शिवपाल यादव, रामगोपाल यादव, आज़म ख़ान, अमर सिंह जैसे बड़े नामों का भी पार्टी में जलवा होता था. अमर सिंह का पिछले दिनों निधन हो गया. आज़मख़ान जेल में हैं. शिवपाल सिंह यादव अपनी पार्टी अलग बना चुके थे, लेकिन अब फिर से साथ आ गए हैं और बड़ी मुश्किल से खुद का टिकट हासिल कर पाए हैं. राम गोपाल यादव दिल्ली से लखनऊ में राजनीति की गोमती की धार देख रहे हैं.
मायावती खुद बीएसपी में दूसरी पीढ़ी की नेता मानी जा सकती हैं
अब समाजवादी पार्टी में सिर्फ एक नाम है -अखिलेश यादव. यूं तो अखिलेश यादव साल 2012 में यूपी के मुख्यमंत्री बन गए थे,लेकिन वो चुनाव मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व में लड़ा गया था और फिर नेताजी ने कुर्सी पर अखिलेश को बिठा दिया था,लेकिन इस बार टिकट बंटवारे से लेकर, गठबंधन करने और चुनाव प्रचार सबकी बागडोर अखिलेश यादव के हाथ में हैं और पार्टी का नारा है- "बाईस का आदेश, आ रहे अखिलेश". अखिलेश को अपना नेतृत्व साबित करने का यह पहला मौका है,उन्होंने कई छोटे राजनीतिक दलों से गठबंधन करके बीजेपी के लिए इस लड़ाई को मुश्किल बना दिया है.
देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस का एक ज़माने तक उत्तरप्रदेश में राज रहा है,लेकिन पिछले तीस साल से वो सत्ता से दूर ही नहीं है, उसका राजनीतिक ग्राफ लगातार गिरता जा रहा है. एक ज़माने तक यहां हेमवती नंदन बहुगुणा,नारायण दत्त तिवारी, विश्वनाथ प्रताप सिंह, वीर बहादुर सिंह, फिर राजबब्बर, रीता बहुगुणा जैसे लोग नेता रहे. इस बार यूपी की कमान कांग्रेस ने पूरी तरह महासचिव युवा प्रियंका गांधी वाड्रा को सौंप दी है. पिछले लोकसभा चुनाव में प्रियंका पूर्वी यूपी की महासचिव रही थीं. इस बार उन्होंने चुनाव की कमान संभालने के बाद नैरेटिव बदलने की कोशिश की है. प्रियंका ने महिला और युवा वोटर पर फोकस करते हुए नारा दिया- "लड़की हूं ,लड़ सकती हूं" और इसके साथ चालीस फीसदी सीटों पर टिकट भी महिलाओं को दिए हैं,लेकिन कांग्रेस का संगठन यूपी में काफी कमज़ोर है और हाल में बहुत से विधायक और नेता पार्टी छोड़कर चले गए हैं, इसलिए उनके बेहतर प्रदर्शन की उम्मीद तो कम है,लेकिन पार्टी को वो ज़रूर नई ऊर्जा देती दिख रही हैं.
उत्तरप्रदेश की राजनीति का महत्वपूर्ण नाम है दलितों की राजनीति करने वाली बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष मायावती. बीएसपी में तो मायावती ही अकेली नेता हैं, इसलिए फिलहाल वहां अभी नेताओं की नई पीढ़ी नहीं दिख रही है. वैसे मायावती खुद बीएसपी में दूसरी पीढ़ी की नेता मानी जा सकती हैं क्योंकि पार्टी और इस आंदोलन की शुरुआत कांशीराम ने की थी. कांशीराम की राजनीति की वजह से ही मायावती पहली तीन बार मुख्यमंत्री बनीं, लेकिन जब पूरे बहुमत के साथ उन्होंने सरकार बनाई,तब उसे देखने के लिए कांशीराम मौजूद नहीं थे. बीएसपी में दूसरी पीढ़ी के नेताओं के अभाव ही एक बड़ी वजह होगी कि इस चुनावों में पार्टी की सक्रियता नहीं दिख रही है और हो सकता है, इसका असर चुनाव नतीजों में भी दिखाई दे.
समाजवादी पार्टी और आरएलडी ने नया नारा दिया- दो किसान लड़के
समाजवादी पार्टी के सबसे बड़े सहयोगी के तौर पर पश्चिमी उत्तरप्रदेश में राष्ट्रीय लोकदल है और उसके अध्यक्ष युवा जयंत चौधरी हैं. एक ज़माना था कि जब जयंत के पिता अजित सिंह और उनके पिता चौधरी चरण सिंह के नाम जलवा था और पश्चिमी उत्तरप्रदेश के किसान, जाट और मुसलमान उनके नाम पर वोट देते थे. उनका यह जलवा उन्हें किसी भी राजनीतिक दल को उनकी शर्त मानने के लिए बाध्य करता था और यही वजह रही कि वो हर बार अपनी ज़रूरत के हिसाब से अलग अलग राजनीतिक दलों से गठबंधन करते रहे, सरकार में शामिल होते रहे. चौधरी चरण सिंह तो देश के प्रधानमंत्री भी बने. अब चौधरी का यह ताज जयंत चौधरी को इस बार अपने राजनीतिक करिश्मे से कमाना है. समाजवादी पार्टी और आरएलडी ने नया नारा दिया- दो किसान लड़के, हालांकि पिछली बार राहुल और अखिलेश 'दो लड़कों की जोड़ी' बनी तो थी, लेकिन चली नहीं.
एक और छोटी पार्टी के नेता है ओमप्रकाश राजभर, जो एक ज़माने तक बहुजन समाज पार्टी के नेता और बामसेफ के वक्त में कांशीराम के साथ रहे,लेकिन अब वो अपनी पार्टी की ताकत बढ़ाने में लगे हैं. पिछली बार बीजेपी के साथ थे,अब समाजवादी पार्टी की सरकार बनाने में लगे हैं. ऐसा ही एक और नाम है स्वामी प्रसाद मौर्या का, स्वामी प्रसाद मौर्या एक वक्त में मायावती के सबसे खास माने जाते थे. मायावती सरकार में मंत्री रहे, पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष रहे, फिर अखिलेश सरकार के वक्त विधानसभा में विपक्ष के नेता रहे. पिछली बार चुनाव से पहले बीजेपी के साथ चले गए और मंत्री बने, इस बार बीजेपी को 'टाटा-बायबाय' करके अखिलेश यादव के साथ दम ठोंक रहे हैं. बीजेपी के साथ के संजय निषाद भी युवा नेताओं में से एक हैं. बीजेपी के साथ सरकार में रहने वाली और चुनाव लड़ने वाली अनुप्रिया पटेल प्रदेश की राजनीति का युवा चेहरा हैं. उनके पिता सोनेलाल ने अपना दल बनाया था, फिर उनके निधन के बाद पार्टी मां के हाथ में आ गई, लेकिन अनुप्रिया को यह मंज़ूर नहीं हुआ और उन्होंने अलग पार्टी बना ली. अब बीजेपी के साथ चुनाव मैदान में हैं, जबकि उनकी बहन पल्लवी उनके खिलाफ समाजवादी पार्टी के साथ दिख रही हैं.
दलित नेतृत्व के लिए एक और नाम उभर रहा है – चन्द्रशेखर रावण. चन्द्रशेखर को कुछ दिनों से मायावती की दलित राजनीति के लिए चुनौती माना जा रहा है, हालांकि इस चुनाव में उनकी बहुत हिस्सेदारी होती नहीं दिखती. समाजवादी पार्टी के साथ उनका तालमेल हो जाता तो शायद वो कुछ बेहतर कर सकते. यूपी के इन चुनावों में करीब 19 लाख ऐसे युवा वोटर हैं जो पहली बार वोट देंगे, लेकिन 35 साल से कम उम्र के वोटर की तादाद करीब एक तिहाई है. ऐसे में राजनीतिक दलों को समझ आ गया कि नई पीढ़ी के लिए नए नेतृत्व और युवा नेताओं की ज़रूरत होगी. फिर यह चुनाव तो नये तरीकों से लड़ा जा रहा है. डिजिटल चुनाव, सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर प्रचार और वर्चुअल रैलियों के दौर में ऐसे नेताओं की जरूरत है जो वक्त के साथ चल सके और उन मुद्दों और परेशानियों को भी समझ सके जो यूपी का नौजवान झेल रहा है. यूं तो इन चुनावों में राजनीतिक दलों नें युवाओं को आकर्षित करने के लिए मुफ्त लैपटॉप, स्कूटी, मोबाइल फोन, कालेज शिक्षा तक की बात की है,मगर जरूरत युवाओं को रोजगार और काम धंधे की है, सिर्फ चुनावी नारों से काम नहीं चलेगा.
(डिस्क्लेमर: लेखक एक वरिष्ठ पत्रकार हैं. आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)