केंद्रीय बजट : उम्मीदों को साकार करने का अवसर
जो तत्काल सकारात्मक बदलाव को शायद ही संभव कर पाए।
बहुत पुरानी बात नहीं है, जब वित्तमंत्री द्वारा केंद्रीय बजट पेश किए जाते वक्त सड़कें सूनी पड़ जाती थीं और लोग टीवी सेट से चिपके रहते थे। लेकिन यह सब कुछ पिछले कुछ वर्षों में बदल गया है। मसलन, रेल बजट जहां पूरी तरह खत्म हो गया है, वहीं बजट सरकार के लिए अपनी योजनाओं को पूरा करने का एकमात्र अवसर नहीं रह गया है। हाल के वर्षों में बजट भाषण एक विजन डॉक्यूमेंट बन गया है और बजट आवंटन सिर्फ आने वाले वर्ष के लिए नहीं, बल्कि तीन से पांच साल की समय सीमा के लिए किया जा रहा है।
बजट में कई ऐसी घोषणाएं होती हैं, जिसमें नियोजित व्यय के लिए धन आवंटित किए जाते हैं, लेकिन आवंटन का विवरण संबंधित मंत्रालयों के ऊपर छोड़ दिया जाता है। उदाहरण के लिए, वर्ष 2020 में, कोविड के कहर ढाने से बहुत पहले सरकार ने 111 लाख करोड़ रुपये राष्ट्रीय अवसंरचना पाइपलाइन परियोजना के लिए आवंटित किए थे, जिसे बाद में संशोधित कर वर्ष 2025 तक पांच वर्षों के लिए 145 लाख करोड़ रुपये कर दिया गया। हालांकि, उपलब्ध आंकड़ों के मुताबिक, पाइपलाइन में अभी तक इस फंड का सिर्फ पांच फीसदी ही इस्तेमाल हुआ है।
इसी तरह अगस्त, 2021 में, बजट के महीनों बाद, सरकार ने एक और महत्वाकांक्षी राष्ट्रीय मौद्रीकरण पाइपलाइन (एनएमपी) की घोषणा की, जिसके तहत चार साल की अवधि में यानी वित्त वर्ष 2025 तक सरकार की परिचालन संपत्ति का मौद्रीकरण कर छह लाख करोड़ रुपये जुटाने की उम्मीद है। हालांकि यह घोषणा सरकार के बजट खर्चों के लिए धन उपलब्ध कराने को सही ठहराती है, लेकिन वर्षों से ऐसे लक्ष्य केवल लक्ष्य बनकर रह गए हैं और कई बार इनमें समय सीमा की चूक हुई है।
वर्ष 2015 में जब 'बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ' योजना की शुरुआत हुई थी, तब इसे लड़कियों की शिक्षा के लिए बड़े बदलाव लाने वाला माना गया था। इस योजना के प्रचार ने कई भारतीयों को विश्वास दिलाया होगा कि यह समाज में महत्वपूर्ण प्रभाव डाल रही है। लेकिन हाल ही में लोकसभा में महिला सशक्तीकरण पर संसदीय समिति द्वारा पेश की गई एक रिपोर्ट से पता चला कि इस योजना के लिए आवंटित 80 फीसदी धनराशि केवल प्रचार पर खर्च की गई!
समिति ने पाया कि वर्ष 2016-2019 की अवधि के दौरान जारी किए गए कुल 446.72 करोड़ रुपये में से 78.91 प्रतिशत केवल मीडिया विज्ञापन पर ही खर्च कर दिए गए। ऐसी कई योजनाएं हैं, जिनकी घोषणा की जाती है, इनके लिए धन आवंटित किया जाता है, लेकिन वास्तविकता की जांच करने पर बाद में यह पता चलता है कि परियोजनाओं को वस्तुतः वास्तविक कार्य के लिए धन ही नहीं मिला है। कुछ मामलों में लक्ष्य इतने महत्वाकांक्षी थे कि आवंटित धन वास्तव में विकास के लिए अपर्याप्त साबित हुए।
ऐसे समय में, जब भारतीय अर्थव्यवस्था की स्थिति अस्थिर है और बढ़ती भूख, घटते रोजगार सृजन, सार्वजनिक स्वास्थ्य की बदहाली और दरकते शिक्षा तंत्र पर ध्यान केंद्रित करना समय की मांग है, वर्ष 2022 का बजट एक ऐसे राष्ट्र की उम्मीदों को साकार करने का अवसर हो सकता है, जो सभी मोर्चों पर चमत्कार की प्रतीक्षा कर रहा है। यह सब तभी संभव है, जब बजट सार्वजनिक खर्च बढ़ाने पर ध्यान केंद्रित करे और इस प्रक्रिया में अपने दायरे में लोगों को रोजगार दे, जहां रिक्तियों को भरने और सभी वर्गों के लोगों को सहायता प्रदान करने की जरूरत है।
अब यह स्पष्ट हो गया है कि वर्ष 2019 में कॉरपोरेट जगत को जो कर लाभ दिया गया था, उसने वास्तव में क्षमता निर्माण या रोजगार सृजन में कोई मदद नहीं की, ऐसे में, कॉरपोरेट इंडिया पर टैक्स लगाना बुरा विचार नहीं है। इसी तरह, सरकार की राजकोषीय नीति कमजोर है-सिर्फ यही नहीं कि 2020-21 में राजकोषीय घाटा सकल घरेलू उत्पाद का दोगुना होकर 9.2 फीसदी हो गया, बल्कि दो साल की कोविड महामारी के कारण सरकार को अब कई बार दूसरी संस्थाओं के जरिये भी कर्ज लेना पड़ रहा है। यह नियोजित खर्च से बाहर का उधार होता है, जिसे बाद में बजट में शामिल किया जाता है। इस तरह यह सरकार के बजट के हिसाब पर असर डालता है।
आम आदमी के लिए बजट ने अपनी प्रासंगिकता खो दी है। आयकर से संबंधित बजट घोषणाओं की बहुत प्रतीक्षा की जाती है, लेकिन इस मोर्चे पर छूट की बहुत संभावना नहीं है। दो साल पहले नई कर प्रणाली की घोषणा की गई, लेकिन कोई भी इस नई प्रणाली को स्वीकार नहीं करना चाहता, क्योंकि यह कर बचत का अवसर प्रदान नहीं करती, आम आदमी जिसे जबरन बचत और निवेश के रूप में देखता है, यह उसका एक अभिन्न अंग है।
इसके अलावा, विभिन्न मंत्रालयों के साथ-साथ बदलती परिस्थितियों की प्रतिक्रिया के रूप में वित्तमंत्री द्वारा समय-समय पर की गई बजट-जैसी कई छोटी घोषणाओं ने भी केंद्रीय बजट के महत्व को कम कर दिया है। बजट को समझने का एक आसान तरीका यह है कि सरकार के राजस्व और उसके खर्चों और घाटे का विवरण देने वाले आंकड़ों को देखा जाए। राजकोषीय उत्तरदायित्व और बजट प्रबंधन (एफआरबीएम) अधिनियम, 2003 ने सरकार के लिए अर्थव्यवस्था में वित्तीय अनुशासन स्थापित करने, सार्वजनिक धन के प्रबंधन में सुधार करने और राजकोषीय घाटे को कम करने का लक्ष्य निर्धारित किया था।
इस अधिनियम ने सरकार के सामने राजकोषीय घाटा कम करने का लक्ष्य निर्धारित किया और इसके अनुसार, सरकार को 31 मार्च, 2021 तक राजकोषीय घाटे को सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के तीन प्रतिशत तक लाना था। यह एक ऐसी समय सीमा है, जो कोविड महामारी के कारण चूक गई लगती है। साथ ही, अधिनियम के अनुसार, सरकार के ऋण को 2024-25 तक सकल घरेलू उत्पाद के 40 फीसदी तक सीमित किया जाना है, जो एक कठिन कार्य की तरह दिखता है।
घर, व्यवसाय या सरकार के लिए बजट प्रबंधन हमेशा दिलचस्प और चुनौतीपूर्ण होता है। इसमें चुनने के लिए कई विकल्प होते हैं, पर सही निर्णय लेना कठिन नहीं होता। लेकिन सरकार की उधारी को परतों में छिपाकर और तीन से पांच वर्षों के लिए नियोजित खर्च कर केवल नियोजित बजट से दूर जाने की गुंजाइश ही बढ़ती है। इस तरह से संपूर्ण बजटीय कवायद को टेलीविजन पर केवल तमाशा ही बनाया जा सकता है, जो तत्काल सकारात्मक बदलाव को शायद ही संभव कर पाए।