यूएन महासभा के प्रस्ताव
प्रस्ताव पारित होना इसका संकेत जरूर है कि अंतरराष्ट्रीय बिरादरी के बड़े बहुमत में रूस के इस कदम को लेकर विरोध भाव है
By NI Editorial
प्रस्ताव पारित होना इसका संकेत जरूर है कि अंतरराष्ट्रीय बिरादरी के बड़े बहुमत में रूस के इस कदम को लेकर विरोध भाव है। लेकिन संयुक्त राष्ट्र महासभा के प्रस्तावों के साथ दिक्कत यह है कि उनके साथ सिर्फ नैतिक बल जुड़ा होता है। जबकि दुनिया शक्ति संतुलन के हिसाब से चलती है।
यूक्रेन पर रूस के हमले को लेकर संयुक्त राष्ट्र महासभा में हुई चर्चा और मतदान के बाद पश्चिमी मीडिया में आम सुर्खी यही बनी है कि रूस अलग-थलग पड़ गया। महासभा में मतदान के दौरान 141 देशों ने रूस की निंदा करने वाले प्रस्ताव के समर्थन में वोट डाले। पांच देशों ने इसके विरोध में मतदान किया, जबकि 35 देशों ने खुद को मतदान से अलग रखा। चूंकि मतदान से अलग रहने वाले देश रूस की निंदा करने को तैयार नहीं हुए, इसलिए समझा जा सकता है कि मोटे तौर पर वे मानते हैं कि यूक्रेन पर हमले के लिए रूस की तरफ से दिए तर्क में दम है। फिर भी 40 के मुकाबले 141 मतों से निंदा प्रस्ताव पारित होना इस बात का संकेत जरूर है कि अंतरराष्ट्रीय बिरादरी के बड़े बहुमत में रूस के इस कदम को लेकर विरोध भाव है। लेकिन संयुक्त राष्ट्र महासभा के प्रस्तावों के साथ दिक्कत यह है कि उनके साथ सिर्फ नैतिक बल जुड़ा होता है। जबकि दुनिया शक्ति संतुलन के हिसाब से चलती है। दुनिया में शायद ही कोई ऐसा देश हो, जो नैतिक कसौटियों के आधार पर अपने कूटनीतिक रुख तय करता हो।
मसलन, पिछले साल क्यूबा पर साठ साल से जारी अमेरिकी प्रतिबंधों के खिलाफ एक प्रस्ताव 180 से अधिक देशों के समर्थन से पारित हुआ था। सिर्फ दो देशों ने उसके खिलाफ मतदान किया था। जाहिर है, उनमें एक अमेरिका था। लेकिन उस प्रस्ताव से अमेरिका की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ा। इसी तरह इजराइल के खिलाफ प्रस्ताव बेहद बड़े बहुमत से पास होते रहे हैं। मगर इजराइल की नीतियां जस की तस हैँ। हाल में एक प्रस्ताव नव-फासीवाद के खिलाफ पारित हुआ था, जिसके खिलाफ सिर्फ अमेरिका और यूक्रेन ने मतदान किया था। मगर उससे यूक्रेन की उन ताकतों पर कोई अंतर नहीं पड़ा, जो इस विचारधारा के प्रेरित बताई जाती हैं। इसीलिए रूस के खिलाफ पारित प्रस्ताव का भी मामूली महत्त्व ही है। फिर इस मामले में तो भारत, चीन और ऐसे कई प्रभावशाली देशों ने खुद मतदान से अलग रखा। ब्राजील और मेक्सिको जैसे देशों ने प्रस्ताव का समर्थन किया, लेकिन उनके नेतृत्व ने यह साफ कर दिया कि वे रूस पर प्रतिबंध लगाने की मुहिम में शामिल नहीं होंगे। तो कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि इस प्रस्ताव से पश्चिमी मीडिया में दिखे उत्साह का कोई व्यावहारिक अर्थ नहीं है।