आस्था की त्रासद भगदड़
नए साल की भोर भी नहीं उगी थी कि त्रासद हादसा हो गया
दिव्याहिमाचल.
नए साल की भोर भी नहीं उगी थी कि त्रासद हादसा हो गया। नए साल की ऐसी शुरुआत कुछ अपशगुनी लगती है। माता वैष्णो देवी के प्रांगण में ही भगदड़ मच गई, नतीजतन 12 श्रद्धालुओं की मौत हो गई और 16 घायल हुए। ऐसा एहसास होता है मानो मां शेरां वाली ने कुछ भक्तों को दर्शन देने से ही इंकार कर दिया हो! आस्था का एक पक्ष यह भी होता है, क्योंकि प्रकृति संतुलन करती रहती है। ऐसी भगदड़ पहले भी कई प्रख्यात मंदिरों और पूजा-स्थलों में हो चुकी हैं। माता के परिसर में मौत का आंकड़ा 12 पर ही थम गया, अलबत्ता नैना देवी मंदिर की दो भगदड़ें हमें आज भी कंपा देती हैं। उनके कारण जनवरी, 2013 में 80 भक्तों और 2008 में 147 श्रद्धालुओं को अपने प्राण गंवाने पड़े थे। केरल के सबरीमला मंदिर के हादसे में 104 मासूम मौतें हुई थीं। कई और उदाहरण हैं, लेकिन जम्मू-कश्मीर के कटरा की इस त्रासदी के मूल में घोर लापरवाही, अनदेखी और कोरोना नियमों के सरेआम उल्लंघन हैं। कश्मीर में आतंकवाद आज भी है और कोरोना संक्रमण के नए विस्तार में आंकड़े एक ही दिन में 27,000 को पार कर चुके हैं। इनमें डेेल्टा और ओमिक्रॉन स्वरूपों के मरीज हैं।
विशेषज्ञों के आकलन हैं कि यदि इसी गति और दर से कोरोना संक्रमण बढ़ता रहा, तो अगले सप्ताह तक आंकड़े एक लाख रोज़ाना तक पहुंच सकते हैं। यकीनन वह स्थिति कोरोना वायरस की तीसरी लहर की होगी। बहरहाल नए साल के जोश और उल्लास अपनी जगह हैं। आस्था अपनी जगह श्रद्धेय है, लेकिन भीड़ को अनुशासित और नियंत्रित करना स्थानीय प्रशासन, पुलिस और अर्द्धसैनिक बल का बुनियादी दायित्व है। श्राइन बोर्ड का बयान आया है कि माता के दरबार में दर्शन के लिए 35,000 श्रद्धालुओं का पंजीकरण किया गया था, लेकिन आपदा प्रबंधन से जुड़े विशेषज्ञों का मानना है कि मां शेरां वाली के तीर्थ-क्षेत्र में 10,000 से अधिक भीड़ को नियंत्रित करना संभव नहीं है। इस भीड़ में सरकारी कर्मचारी, बल के जवान और भक्त आदि सभी सम्मिलित हैं। दर्शनों के लिए 2500-3000 की भीड़ को ही अनुमति दी जानी चाहिए, क्योंकि यह पर्याप्त संख्या है। यहां का रास्ता संकरा है और वहां ढलान भी है। मंदिर से आने वालों और ऊपर जाने वालों का रास्ता भी एक ही है। हादसे के बाद प्रत्यक्षदर्शियों ने साफ कहा कि न तो पंजीकरण पर्ची देखी गई, न कोरोना-रपट की मांग की गई और न ही आरटीपीसीआर जांच की गई। भीड़ बेकाबू और बेहिसाब थी। श्राइन और अन्य अधिकारियों ने ऐसा कैसे और क्यों होने दिया? भीड़ को टुकड़ों में बांट कर नियंत्रित क्यों नहीं किया गया? यह किसकी जिम्मेदारी थी? एंबुलेंस वाहन कहां थे, क्योंकि मृतकों और घायलोें को आम लोगों ने ही उठाया और निश्चित, सुरक्षित स्थान तक पहुंचाया? प्रशासनिक कर्मचारियों और सीआरपीएफ के जवान कहां थे?
यदि हादसा इससे भी बड़ा हो जाता या आतंकी हमला कर देते, तो जवाबदेही किसकी बनती? प्रत्यक्षदर्शियों ने ऐसे आरोप भी साफ तौर पर लगाए हैं कि पैसे लेकर पहले दर्शन कराने के जुगाड़ भी सामने आए हैं। भगवान के घर में घूस….इससे ज्यादा नापाक क्या हो सकता है? यह कैसी आस्था है? बेशक भगदड़ का कारण आपसी धक्कामुक्की, हाथापाई हो या सुरक्षा कर्मियों ने भीड़ को धकिया कर पीछे करने की कोशिश की हो अथवा पत्थर गिरने की कोई अफवाह मची हो, सभी संदर्भों में प्रशासनिक और पुलिस कर्मियों की बुनियादी लापरवाही है। रास्ते मंे अवरोधक इस तरह तैनात नहीं किए गए हैं, जिनसे भीड़ को अनुशासित किया जा सकता था, लेकिन व्यवस्थाओं में दरारें थीं, लिहाजा ऐसा त्रासद हादसा झेलना पड़ा। दिल्ली में बैठे प्रधानमंत्री ने अपने मंत्रियों-डॉ. जितेंद्र सिंह, नित्यानंद राय-और उपराज्यपाल मनोज सिन्हा को फोन कर हादसे की सम्यक जानकारी ली, लेकिन जम्मू में मौजूद सरकारी अमला यह तय नहीं कर पाया कि कोरोना-काल में कितनी भीड़ एक साथ मंदिर में माता के दर्शन करने जाए। यह आपराधिक लापरवाही का प्रत्यक्ष केस बनता है और संबद्ध अधिकारियों और कर्मचारियों के खिलाफ यह दंडात्मक कार्रवाई की जानी चाहिए। नहीं तो ऐसे हादसे होते रहेंगे, श्रद्धालु मरते रहेंगे और धर्म-यात्रा फिर शुरू होती रहेगी। कैपेसिटी से अधिक श्रद्धालुओं को दर्शन करने की अनुमति किसने दी, यह बात भी सामने आनी चाहिए। क्या मंदिर प्रशासन को यह आभास नहीं था कि ज्यादा भीड़ के कारण कोई हादसा भी हो सकता है।