दवा कारोबार में अनैतिकता पर अंकुश

कुछ समय पहले कंपनी मामलों के मंत्रालय की एक सर्वे रिपोर्ट ने सरकार को आगाह किया था कि दवाएं आम आदमी की पहुंच से जानबूझ कर बाहर की जा रही हैं। दवाओं की महंगाई का कारण दवा में लगने वाली सामग्री का महंगा होना नहीं

Update: 2022-04-15 04:21 GMT

प्रमोद भार्गव; कुछ समय पहले कंपनी मामलों के मंत्रालय की एक सर्वे रिपोर्ट ने सरकार को आगाह किया था कि दवाएं आम आदमी की पहुंच से जानबूझ कर बाहर की जा रही हैं। दवाओं की महंगाई का कारण दवा में लगने वाली सामग्री का महंगा होना नहीं, बल्कि दवा कंपनियों का मुनाफे की हवस में बदल जाना है। इस लालच के चलते कंपनियां राष्ट्रीय औषधि मूल्य निर्धारण प्राधिकरण के नियमों का भी पालन नहीं करती हैं।

दवा कारोबार में मुनाफे की हवस पर अंकुश लगाने की दृष्टि से केंद्र सरकार 'एक दवा, एक दाम' की नीति लागू करने जा रही है। इसके तहत दवाओं की थोक खरीद कर केंद्रीय स्वास्थ्य केंद्रों में वितरित किया जाएगा। केंद्र सरकार स्वास्थ्य योजना के साथ अन्य सार्वजनिक उपक्रमों, कर्मचारी राज्य बीमा निगम के अस्पतालों, जन औषधि योजना और अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थानों के लिए दवाओं की खरीद करेगी।

देशव्यापी स्तर पर दवा खरीद की केंद्रीकृत व्यवस्था होने से दवा तो गुणवत्तापूर्ण रहेगी ही, उसके मूल्य में भी एकरूपता आएगी। केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा हर साल लगभग बाईस सौ करोड़ रुपए की जीवनरक्षक दवाएं खरीदी जाती हैं, जो कुल दवा बाजार का करीब पंद्रह प्रतिशत है। फिलहाल विभिन्न सरकारी विभागों और मंत्रालयों द्वारा फार्मा कंपनियों से खरीदी जाने वाली एक ही दवा की कीमत भिन्न-भिन्न होती है। इस पहल से दवा कंपनियों की उस अतिरिक्त बिलिंग पर अंकुश लगेगा, जो अधिक मुनाफे, चिकित्सकों के लिए उपहार और भ्रष्टाचार के लिए की जाती है।

कुछ समय पहले कंपनी मामलों के मंत्रालय की एक सर्वे रिपोर्ट ने सरकार को आगाह किया था कि दवाएं आम आदमी की पहुंच से जानबूझ कर बाहर की जा रही हैं। दवाओं की महंगाई का कारण दवा में लगने वाली सामग्री का महंगा होना नहीं, बल्कि दवा कंपनियों का मुनाफे की हवस में बदल जाना है। इस लालच के चलते कंपनियां राष्ट्रीय औषधि मूल्य निर्धारण प्राधिकरण के नियमों का भी पालन नहीं करती हैं। इसके मुताबिक दवाओं की कीमत लागत से सौ गुना ज्यादा रख सकते हैं। मगर दवाओं की कीमत एक हजार तेईस फीसद तक ज्यादा वसूली जा रही है। रिपोर्ट के मुताबिक ग्लैक्सोस्मिथलाईन, फाईजर, रैनबैक्सी, डा रेड्डी लैब्स और एलेमबिक जैसी नामी-गिरामी दवा कंपनियां भी अपनी दवाओं की दो से पांच सौ गुना ज्यादा कीमत रखती हैं।

इसके पहले नियंत्रक और महालेखा परीक्षक ने भी देशी-विदेशी दवा कंपनियों पर सवाल उठाते हुए कहा था कि दवा कंपनियों ने सरकार द्वारा दी गई उत्पाद शुल्क में छूट का लाभ तो लिया, लेकिन दवाओं की कीमतों में कटौती नहीं की। इस तरह ग्राहकों को करीब तिरालीस करोड़ का चूना लगाया। साथ ही एक सौ तिरासी करोड़ रुपए का गोलमाल सरकार को राजस्व न चुका कर किया।

इस धोखाधड़ी को लेकर सीएजी ने सरकार को दवा मूल्य नियंत्रण अधिनियम में संशोधन का सुझाव दिया था। ऐसे ही सुझावों को मानते हुए सरकार ने देश भर में फैले सीजीएचएस के बारह सौ अस्पताल, दो सौ जांच केंद्र, पांच सौ वेलनेस सेंटर और आठ हजार से अधिक जन औषधि भंडारों पर एक मूल्य, एक दवा नीति लागू करने का फैसला किया है।

इस दवा वितरण में बोली के आधार पर भागीदारी करने वाले विके्रताओं की तकनीकी योग्यता से कहीं ज्यादा ईमानदारी के मानदंडों की जरूरत पड़ेगी। दवा क्रय समिति को भी उन दवाओं को खरीदने की जरूरत है, जो उपचार में प्रभावी और कीमत में सस्ती हों। चूंकि सार्वजनिक स्वास्थ्य राज्यों के अधिकार क्षेत्र में है, इसलिए उन्हें भी अगर इस योजना में भागीदार बना लिया जाए तो दवा वितरण लाभार्थियों का दायरा बढ़ जाएगा।

इंसान की जीवन-रक्षा से जुड़ा दवा कारोबार तेजी से मुनाफे की अमानवीय और अनैतिक वृत्ति में बदलता जा रहा है। चिकित्सकों को महंगे उपहार देकर रोगियों के लिए महंगी और गैरजरूरी दवाएं लिखवाने का चलन बढ़ा है। बेमतलब की अनेक जांचें भी केवल मुनाफे के लिए कराई जा रही हैं। इसीलिए चिकित्सकों पर ऐसे आरोप लगते रहे हैं कि वे दवा कारोबार की सेवा में लिप्त हैं।

इसकी पुष्टि इस बात से होती है कि चिकित्सक ज्ञान तो निश्चित रूप से उच्च चिकित्सा संस्थानों से प्राप्त करते हैं, लेकिन चिकित्सक बनने के बाद उनके ज्ञान का अपहरण दवा उद्योग कर लेते हैं। इसलिए ज्यादातर डाक्टर पर्चे में वहीं दवा लिखते हैं, जो उन्हें दवा कंपनियों के प्रतिनिधि समझाते और कमीशन के साथ उपहार देते है। एक लाचार मरीज चिकित्सक के पास स्वास्थ्य लाभ लेने की उम्मीद से जाता है, न कि दवा उद्योग का लालच बढ़ाने। मगर पैसा कमाने की अनैतिक होड़ का ही परिणाम है कि रोगी अब चिकित्सक को धरती का भगवान मानने से मुकर रहा है।

इसी का नतीजा था कि 2008 में भारत की सबसे बड़ी दवा कंपनी रेनबैक्सी की तीस जेनेरिक दवाओं को अमेरिका ने प्रतिबंधित किया था। उसकी देवास (मध्यप्रदेश) और पांवटा साहिब (हिमाचल प्रदेश) में बनने वाली दवाओं के आयात पर अमेरिका ने रोक लगा दी थी। अमेरिका की सरकारी संस्था फूड एंड ड्रग ऐडमिनिस्ट्रेशन (एफडीए) का दावा था कि रेनबैक्सी की भारतीय इकाइयों से जिन दवाओं का उत्पादन हो रहा है, उनका मानक स्तर अमेरिका में बनने वाली दवाओं से घटिया है। ये दवाएं अमेरिकी दवा आचार संहिता की कसौटी पर खरी नहीं उतरीं। जबकि भारत की रेनबैक्सी ऐसी दवा कंपनी है, जो अमेरिका को सबसे ज्यादा जेनेरिक दवाओं का निर्यात करती है।

ऐसी कई बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियां भी आचार संहिता का पालन नहीं करती हैं। किसी बाध्यकारी कानून के अमल में भी ये रोड़ा अटकाने का काम करती हैं। क्योंकि इन्होंने अपना कारोबार विज्ञापनों और चिकित्सकों को मुनाफा देकर ही फैलाए हुए हैं। छोटी दवा कंपनियों के संघ का तो यहां तक कहना है कि अगर चिकित्सकों को उपहार देने की कुप्रथा पर रोक लगा दी जाए तो दवाओं की कीमतें पचास फीसद तक कम हो जाएंगी। चूंकि दवा का निर्माण एक विशेष तकनीक के तहत किया जाता है और रोग और दवा विशेषज्ञ चिकित्सक ही पर्चे पर एक निश्चित दवा लेने को कहते हैं। चिकित्सक की लिखी दवा लेना जरूरी होता है। लिहाजा, चिकित्सक मरीज की इस लाचारी का लाभ उठा रहे हैं।

प्रकृति ने मनुष्य को बीमारियों से बचाव के लिए शरीर के भीतर ही मजबूत प्रतिरक्षात्मक तंत्र दिया है। इसके अलावा रोगरोधी एंजाइम लाइफोजाइम भी होता है, जो जीवाणुओं को नष्ट कर देता है। एंटीबायोटिक दवाओं ने जहां अनेक संक्रामक रोगों से मानव जाति को बचाया, वहीं दुष्परिणाम स्वरूप शरीर की प्रतिरोधात्मक शक्ति को कमजोर भी किया। जिस तरह मानव शरीर विभिन्न प्राकृतिक तापमान, वायुमंडल और भौगोलिक परिस्थिति और पर्यावरण के अनुकूल अपने को ढाल लेता है, उसी तरह हमारी धरती पर सूक्ष्मजीव और उनके विरुद्ध शरीर की प्राकृतिक प्रतिरोधात्मक शक्ति का भी परिवर्तित विकास होता रहा है।

मगर एंटिबायोटिक दवाओं ने दोनों के बीच के संतुलन को गड़बड़ा दिया, लिहाजा एंटीबायोटिक दवाएं जब-जब सूक्ष्म जीवों पर मारक साबित हुर्इं, तब-तब जीवाणु और विषाणुओं ने अपने को और ज्यादा शक्तिशाली बना लिया। गोया, महाजीवाणु कभी न नष्ट होने वाले रक्तबीजों की श्रेणी में आ गए हैं। इसलिए आज वैज्ञानिकों को कहना पड़ रहा है कि एंटीबायोटिक दवाओं की मात्रा पर अंकुश लगना चाहिए।

दवा कंपनियों की मुनाफे की हवस और चिकित्सकों का बढ़ता लालच, इसमें बाधा बने हुए हैं। ऐलोपैथी चिकित्सा पद्धति के मुनाफाखोरों ने प्रायोजित शोधों की मार्फत आयुर्वेद, यूनानी, प्राकृतिक चिकित्सा और होम्योपैथी को अवैज्ञानिक कह कर हाशिए पर डालने का काम भी षड्यंत्रपूर्वक किया है। सूक्ष्मजीव कायातंरण कर नए-नए रूपों में सामने आने लगे हैं, तबसे एंटीबायोटिक दवाओं की सीमा रेखांकित की जाने लगी है। नतीजतन, वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियां फिर से जोर पकड़ने लगी हैं। पिछले ढाई साल से पूरी दुनिया कोविड-19 के विषाणु से दो-चार हो रही है। इसलिए केंद्रीकृत एक मूल्य, एक दवा नीति का क्रियान्वयन सुचारू रूप से होगा, तो दवाओं के मूल्य पर तो अंकुश लगेगा ही, दवा कारोबार की अनैतिकता भी खत्म होगी।


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