गत वर्ष गलवन की घटना के बाद दोनों देशों के बीच सैनिक तनाव कम करने के लिए इस साल फरवरी में भारत-चीन वार्ताओं में जो सहमति बनी थी, उसके तहत भारत ने पैंगोंग-सो इलाके में कैलास चोटियों से अपने सैनिक और हथियार इस उम्मीद से हटा लिए थे कि चीन भी लद्दाख के देपसांग और हाट-स्प्रिंग्स में घुस आई अपनी सेना को टकराव से पहले वाली जगहों पर वापस ले जाएगा। ये चोटियां ऐसी थीं जिन पर भारतीय सेना के जांबाज तिब्बती सैनिकों वाली स्पेशल फ्रंटियर फोर्स ने कब्जा करके पूरे इलाके का सैनिक संतुलन भारत के पक्ष में कर दिया था।
हाल की वार्ता से ठीक पहले चीनी सेना ने उत्तराखंड के बाराहोती में जिस तरह घुसपैठ की और अरुणाचल सीमा पर 30 अगस्त को लगभग दो सौ चीनी सैनिक पांच किमी तक घुस आए, उससे यह साफ हो चुका था कि सीमा पर तनाव घटाने में चीन की कोई रुचि नहीं है। शांति की बची-खुची उम्मीद को चीन के उस बयान ने भी खत्म कर दिया, जिसमें उसने अरुणाचल पर अपना दावा दोहराते हुए भारतीय उपराष्ट्रपति एम. वेंकैया नायडू की वहां की यात्र का विरोध किया। इससे पहले एपीजे अब्दुल कलाम, पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और तिब्बत सरकार के प्रधानमंत्री की अरुणाचल यात्राओं के समय भी चीन हायतौबा मचाता रहा है। ऐसे हर मौके पर चीन सरकार की दलील यह रहती है कि अरुणाचल दक्षिणी तिब्बत है और चूंकि तिब्बत चीन का हिस्सा है, इसलिए अरुणाचल पर भी उसका हक है। दुर्भाग्य से किसी भी भारत सरकार ने आज तक चीन को यह जवाब नहीं दिया कि तिब्बत पर गैर-कानूनी और औपनिवेशिक कब्जे को आधार बनाकर किसी तीसरे देश की भूमि पर अधिकार जताने का उसे न तो कोई नैतिक अधिकार है और न कानूनी।
अब तर्कसंगत यही है कि भारत तिब्बत पर चीन के अधिकार को अमान्य ठहराते हुए सीमा का फिर से मूल नामकरण करके उसे 'भारत-चीन सीमा' के बजाय 'भारत-तिब्बत सीमा' कर दे। चीन को बता दिया जाए कि यदि इस सीमा पर कोई विवाद है तो उसे तिब्बत के मूल शासक दलाई लामा और तिब्बती जनता के साथ बातचीत में हल किया जाएगा, चीन के साथ नहीं। इस मामले में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को भी ताइवान की राष्ट्रपति जैसा साहस दिखाना चाहिए, जिन्होंने चीन की धमकियों के जवाब में डंके की चोट पर कहा कि ताइवान एक स्वतंत्र और लोकतांत्रिक देश है, जिसमें चीनी हस्तक्षेप सहन नहीं किया जाएगा। यदि मोदी सरकार भारत-तिब्बत सीमा के सवाल पर ऐसा कदम उठाती है, तो तय है कि चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग अपना संतुलन खो बैठेंगे।
यह ध्यान रहे कि गलवन टकराव में अपने 40 से अधिक जवानों के मरने और गलवन से लेकर दौलतबेग-ओल्डी तक कब्जा करने की चीनी योजना के ठप होने के बाद चीनी राष्ट्रपति की छवि को बहुत आघात पहुंचा है। शी चिनफिंग का इरादा पश्चिमी लद्दाख पर कब्जा करके चीन के कराकोरम हाईवे को भारतीय दबाव से हमेशा के लिए मुक्त करा लेना था। इसकी आड़ में वह चीन का नया हीरो बनने और 2022 में चीन का आजन्म राष्ट्रपति बने रहने की जुगत लगाए हुए थे।
गलवन प्रकरण के बाद 2020 की सर्दियों में लद्दाख में चीनी सेना की तैनाती के अनुभव के बाद शी और उनके जनरलों को यह समझ आ चुका है कि शून्य से 30 डिग्री सेल्सियस नीचे के तापमान में भारतीय सैनिकों का मुकाबला कर पाना चीनियों के बूते से बाहर है। सियाचिन में बरसों से सक्रिय भारतीय सेना के पास वहां की कठिन परिस्थितियों में कौशल दिखा सकने वाले सैनिकों की संख्या हजारों में है। पिछली सर्दियों में कितने चीनी सैनिक और अफसर बिना लड़े सर्दी के कारण मारे गए, इस सवाल पर चीन चुप्पी साधे हुए है। शायद इसीलिए चीन ने अपने कब्जाए हुए तिब्बत के युवाओं को सेना में भर्ती करने का नया अभियान शुरू किया है।
इसके अलावा चीनी सेना ने पिछले कुछ महीनों में अपना पूरा जोर थल सेना के बजाय लद्दाख के आसपास वाले तिब्बती और शिनजियांग क्षेत्रों में नए हवाई ठिकानों और मिसाइलों आदि पर लगा दिया है। इस इलाके में एक साल के भीतर तीन बार अपने जनरलों को बदलकर भी शी ने अपनी बदहवासी का ही परिचय दिया है। अगर शी के कोर कमांडर भारतीय सेना के साथ किसी सहमति या शांतिपूर्ण हल निकालने के बजाय धमकियों और आक्रामक भाषा का इस्तेमाल करते हैं तो भारत को समझ लेना चाहिए कि चीन के इरादे नेक नहीं हैं। अगर लद्दाख में आने वाली सर्दियां युद्ध की गरमी लाती हैं तो भारत को इसके लिए तैयार रहना होगा। इसमें किसी भी किस्म की लापरवाही के लिए कोई गुंजाइश नहीं।
(लेखक तिब्बत एवं चीन मामलों के विशेषज्ञ और सेंटर फार हिमालयन एशिया स्टडीज एंड एंगेजमेंट के चेयरमैन हैं)