ढाक के तीन पात: तमाम कसरतों के बाद भी प्रदूषण बरकरार
तमाम कसरतों के बाद भी प्रदूषण बरकरार
सरकारों की बयानबाजी और बड़े-बड़े दावों की जमीनी हकीकत क्या होती है, उसकी बानगी दिल्ली में मौजूद प्रदूषण की घातक स्थिति है। वायु प्रदूषण के खतरनाक स्तर तक बरकरार रहने की चिंता के बाबत दायर एक याचिका पर सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि वास्तव में जमीनी स्तर पर प्रदूषण पर अंकुश लगाने की दिशा में विभिन्न राज्य सरकारों व सरकारी एजेंसियों ने कुछ भी प्रयास नहीं किये। दरअसल, सोमवार को सुप्रीम कोर्ट की एक बैंच ने कहा कि केंद्र सरकार ने दिल्ली, पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश की सरकारों को वायु प्रदूषण कम करने के निर्देश दिये थे और केंद्र सरकार की मंशा अच्छी थी लेकिन इस दिशा में क्रियान्वयन शून्य ही रहा। यह हकीकत दिल्ली तथा राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के लोगों द्वारा बयां की जा रही है जो सांसों के लिये हांफ रहे हैं।
यह विडंबना ही है कि तमाम दावों के बावजूद वायु गुणवत्ता का सूचकांक यानी एक्यूआई की माप नियमित रूप से 350 से अधिक है और कई बार 400 को छू रही है जो स्वयं गंभीर स्थिति को ही दर्शाती है। इस बात से अंदाजा लगाया जा सकता है कि गंभीर सांस संबंधी रोगों से जूझने वाले मरीज व वृद्ध लोग किन परिस्थितियों में जीवनयापन कर रहे होंगे। यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि कोरोना महामारी के दौरान वे ही लोग इसकी चपेट में आये थे, जिनके फेफड़े कमजोर थे। ऐसे में जब कोरोना संक्रमण का खतरा टला नहीं है, ये हालात महामारी के लिये जमीन तैयार करते हैं। ऐसे स्थिति में विभिन्न राज्य सरकारों और केंद्र को युद्धस्तर पर पहल करके प्रदूषण के खात्मे के लिये कदम उठाने चाहिए थे। लेकिन तंत्र की काहिली ऐसा करने की स्थिति में नजर नहीं आती जो राज्य सरकारों की जनसरोकारों के प्रति संवेदनहीनता को ही उजागर करता है। जिसका खमियाजा आम व खास को सामूहिक रूप से भुगतना पड़ता है। सर्वविदित है कि दो सप्ताह पूर्व सुप्रीम कोर्ट ने वायु गुणवत्ता प्रबंधन आयोग को देश की राजधानी में भयावह होती वायु गुणवत्ता पर व्यापक विचार-विमर्श के लिये दिल्ली के अलावा उत्तर प्रदेश, हरियाणा व पंजाब सरकारों के प्रतिनिधियों के साथ अविलंब बैठक आयोजित करने का निर्देश दिया था। शीर्ष अदालत के निर्देश पर बैठक भी आयोजित की भी गई और समस्या के निदान के लिये विचारों का आदान-प्रदान भी किया गया।
इतना ही नहीं, इस समस्या के समाधान के लिये संबंधित सरकारों व विभागों को निर्देश भी जारी कर दिये गये थे मगर परिणाम वहीं ढाक के तीन पात। जैसा कि अदालत ने टिप्पणी भी की थी कि लगता है जमीनी स्तर पर कुछ नहीं किया गया। वहीं दूसरी ओर सॉलिसिटर जनरल ने स्वीकार किया कि इन सरकारों से कई माह पूर्व भी जरूरी कदम उठाने को कहा गया था। जो इस बात की ओर इशारा करता है कि सरकारें व सरकारी एजेंसियां दिल्ली के प्रदूषण के जानलेवा स्तर तक पहुंचने के बावजूद स्थिति को गंभीरता से नहीं ले रही हैं और निर्देशों की अनदेखी कर रही हैं। यदि कोई कोशिश हुई भी तो पालन पूरी तरह से नहीं किया जा रहा है। सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकारों को वायु गुणवत्ता प्रबंधन आयोग द्वारा जारी निर्देशों के अनुपालन में उठाये गये कदमों की रिपोर्ट दाखिल करने के निर्देश भी दिये। साथ ही चेताया भी कि यदि निर्देशों का पालन नहीं हुआ तो इस दिशा में ठोस पहल के लिये अदालत स्वतंत्र टास्क फोर्स गठित कर सकती है। निस्संदेह, सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी से ऐसा लगता है कि सभी सरकारें अपनी नाकामियों का ठीकरा कभी किसानों के पराली जलाने पर तो कभी हवाओं के रुख में बदलाव के बाबत मौसम पर फोड़ देती हैं। प्रतीत होता है कि सरकारें इसलिए हाथ पर हाथ धरे बैठी हैं जैसे किसान पराली जलाना बंद कर देंगे, हवाएं चलने लगेंगी और बारिश होगी तो प्रदूषण के स्तर में गिरावट खुद-ब-खुद आ जायेगी। जैसा कि अदालत ने कहा भी कि तंत्र के हड़बड़ी में उठे कदम सिर्फ भ्रम पैदा करते हैं, व्यावहारिक रूप में कुछ हासिल नहीं होता।
दैनिक ट्रिब्यून