शहर का अमीर तपका मान चुका था कि किसी चौराहे पर उन जैसी हैसियत का आदमी इस तरह शरीर नहीं छोड़ सकता। मध्यम वर्ग या नौकरीपेशा लोग इस मौत को भी अपने लिए नसीहत मान रहे थे। वे सोच रहे थे, 'जरूर कर्ज की किस्तें चुकाते-चुकाते मरा होगा। रोजगार छिन गया होगा या रोजगार की तलाश में चलते-चलते हार गया होगा। घर का राशन या नेताओं का भाषण भारी पड़ गया होगा। जरूरत से कम या जरूरत से अधिक ख्वाहिशों ने उसे लिटा दिया होगा।' जितने लोग, उतनी बातें और अंततः वह एक मसला बन गया। ठीक संसद की तरह सड़क पर भी चिंता पैदा हो गई। कुछ लोग मुद्दा बनाकर देख रहे थे, कुछ असहज थे, तो कुछ के लिए ऐसी मौत सामान्य थी। अब इस मौत में भी राजनीति चुनी जानी थी, तो इस अवसर के नजदीक हर पार्टी के कारिंदे पहुंच गए। पार्टी कार्यकर्ताओं को लाश के भीतर और बाहर जातीय समुदाय दिखाई दे रहा था। डर था कि कहीं इस मौत से विरोधी पक्ष की जाति प्रभावशाली न हो जाए, इसलिए लाश के नैन-नक्श छुपाए जा रहे थे
लाश के साथ जन संवेदना जुड़ते देख विरोधी पार्टी के कार्यकर्ता हक जता रहे थे कि वही अंतिम संस्कार करेंगे, हालांकि यह फैसला नहीं हुआ था कि मरने से पहले यह व्यक्ति किस धर्म या जाति में जी सका होगा। सत्ताधारी दल की ओर से प्रशासन और पुलिस अब देश को बता रहे थे कि कानून व्यवस्था कितनी चौकस है। पुलिस ने वहां खड़ी जनता को बता दिया कि दरअसल यह लाश पहले से ही गुमशुदा है और आज मिली है। प्रशासन तरकीब ढूंढ रहा था कि किसी तरह कोई मंत्री सरकार की तरफ से पहुंच कर बस एक अदद कफन डाल दे, बाकी काम तो 'सुशासन' कर देगा। खतरा अभी भी राजनीतिक था, 'कहीं लाश बनने से पहले बंदा किसी धर्म की अमानत तो नहीं था, वरना सेकुलर होना कम से कम श्मशानघाट या कब्रिस्तान में तो काम आएगा।' सर्वसहमति से यह फैसला हो चुका था कि ऐसी लाशें सेकुलर मान ली जाएं। सेकुलर लाश की निशानी में मंत्री जी ने न केवल उसके ऊपर कफन चढ़ाया, बल्कि एक कापी भारतीय संविधान की भी चढ़ा दी। अब न तो लाश को जलाना जरूरी था और न ही दफनाना, लिहाजा पास से गुजर रही गंगा में उसे छोड़ दिया गया। लाश अपने सारे रहस्यों व अन्य अनेक लाशों के साथ बहकर, देश की कानून-व्यवस्था का मान बढ़ा रही थी।
निर्मल असो
स्वतंत्र लेखक