आधुनिक भारत के लिए अप-टु-डेट लीगल सिस्टम के महत्व को स्वीकारने की जरूरत है

इस बात पर सभी सहमत हैं कि भारत को न्यायिक-सुधारों की जरूरत है

Update: 2022-02-24 07:47 GMT
चेतन भगत का कॉलम: 
इस बात पर सभी सहमत हैं कि भारत को न्यायिक-सुधारों की जरूरत है। इस पर इतना ध्यान नहीं दिया जाता, जितना कि दूसरी चीजों पर दिया जाता है। हमारे पास बुनियादी ढांचे के बड़े प्रोजेक्ट्स हैं, हमने जीएसटी सुधार किए हैं, हमने हर नागरिक को प्रभावित करने वाले आधार-कार्ड बनाए हैं, हमने बहुत सारी शासकीय सेवाओं का डिजिटलीकरण कर दिया है। लेकिन न्यायिक सुधारों के प्रश्न पर आकर हमारी सुई अटक जाती है।
आज कितने मुकदमे लम्बित पड़े हैं, उनके डराने वाले आंकड़ों में जाने की जरूरत नहीं है, या ऐसी कहानियों की भी कोई आवश्यकता नहीं जो बताती हैं कि कैसे कुछ लोगों को न्याय के लिए दशकों तक इंतजार करना पड़ा। हम सबको ये सब अच्छी तरह से पता है। एक विकसित देश की पहचान उसके त्वरित और न्यायपूर्ण सिस्टम से होती है।
हम उम्मीद करते हैं कि एक दिन हम भी उन्हीं देशों में शुमार हो सकेंगे। लेकिन न्यायिक-तंत्र को तेजतर्रार बनाना इतना सरल भी नहीं है। इसके लिए बहुआयामी एप्रोच की जरूरत है। मैं अपनी ओर से पांच सुझाव देना चाहूंगा।
पहला, जैसे हमने सड़कों, रेलगाड़ियों और बंदरगाहों के लिए पैसा दिया है, उसी तरह न्यायपालिका के लिए भी बजटीय-आवंटन बढ़ाने की जरूरत है। विदेशी निवेशक भारत को पसंद करते हैं, लेकिन उन्हें अनुबंध सम्बंधी विवाद की स्थिति में पड़ने पर अदालतों की धीमी गति चिंतित करती है।
दूसरा, अधिक अदालत भवन बनाना और वर्चुअल कोर्ट की व्यवस्था करना। हमारे पास पर्याप्त अदालतें या कार्यालय नहीं हैं। कोविड ने हमें रिमोट-वर्क सिखा दिया है। अदालतों के लिए भी वैसा करने से उन पर से फिजिकल इंफ्रास्ट्रक्चर का दबाव घटेगा। निजी डेवलपरों को भी नई अदालतों के निकट व्यावसायिक उपयोग के लिए भूमि देकर अदालत भवन बनाने के लिए प्रेरित कर सकते हैं (केवल बनाने के लिए, चलाने के लिए नहीं)।
तीसरा, नौकरियां देना। एक तरफ तो हम कहते हैं कि देश में रोजगार-संकट है, दूसरी तरफ हमारे अदालती तंत्र के पास काम करने वालों की कमी है। हमें ना केवल अधिक जजों की जरूरत है, बल्कि जजों को प्रशासकीय कार्यों से राहत देने के लिए सपोर्ट स्टाफ में भी भर्तियाें की आवश्यकता है। इससे समय का उपयोग लम्बित मामलों के निपटारे में हो सकेगा।
चौथा, अदालती तंत्र से पृथक प्रशासकीय सहयोग के लिए एक ऐसी व्यवस्था करना, जिससे मुकदमों के लिए जरूरी पेपरवर्क करने में मदद मिल सके और उनके त्वरित निपटारे के लिए ग्राउंडवर्क किया जा सके। यह उन वीएफएस सेवाओं की तरह होगा, जिनका इस्तेमाल हम दूतावासों को वीजा अप्लाई करते समय करते हैं। वीएफएस पृथक सेवा है, जो हमारे वीजा पर निर्णय नहीं लेती, लेकिन वह हमारे कागजों को व्यवस्थित जरूर कर देती है। अदालतों के लिए भी ऐसी सुविधा की जरूरत है।
सबसे आखिरी सुझाव है कागजी कार्रवाइयों और सुनवाई के तंत्र में बदलाव। दुनियाभर की अदालतें- फिर चाहे वो कितनी ही अच्छी क्यों ना हों- सुनवाई की उस प्रक्रिया का पालन करती हैं, जिनकी ईजाद सैकड़ों साल पहले की गई थी। वे मौजूदा समय के अनुरूप नहीं हैं, जिनमें हर व्यक्ति दूसरे से फोन के जरिए जुड़ चुका है। क्या आज के दौर में किसी को उत्तर देने के लिए आपको समय की जरूरत होती है?
आप 24 घंटे में चैट का रिप्लाई तो दे ही देते हैं। क्या यह सुनवाई की तारीखें तय करने और फिर तारीख पर तारीख के खेल में उलझने से बेहतर तरीका नहीं है? जब दुनियाभर की कम्पनियां आज से दो दशक पहले की तुलना में भिन्न तरीके से काम करना सीख चुकी हैं तो अदालतें क्यों नहीं कर सकतीं? न्यायपालिका हमारे लोकतंत्र का महत्वपूर्ण अंग है और हमें इस पर गर्व है। यह हमारी और हमारे अधिकारों की रक्षा करती है।
लेकिन इसे और प्यार करने और इस पर और ध्यान देने की जरूरत है। न्यायिक सुधारों से न केवल समाज बेहतर बनेगा और लोगों को त्वरित न्याय मिलेगा, बल्कि इससे जीडीपी ग्रोथ में भी खासी मदद मिलेगी। अगर हम एक अरब लोगों को टीका लगा सकते हैं तो अपनी अदालतों को तेज गति से काम करने के लिए भी प्रेरित कर ही सकते हैं। हमारे कानूनी तंत्र की निष्ठा पर किसी को संदेह नहीं है, मुख्य समस्या तो गति ही है। सिस्टम बुरा नहीं, केवल थोड़ा सुस्त है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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