मालाबार में क्रूरता का कलंकित अध्याय: राजनीतिक हितों ने सच्चाई को पीछे छोड़ दिया

इतिहास अक्सर विकृतियों से भरा होता है और अधिकांश मामलों में कुछ लोगों के अनुरूप उसे फिर से लिखा जाता है। इसमें 1921 का मालाबार विद्रोह या मोपला दंगे कोई अपवाद नहीं हैं

Update: 2021-09-25 03:54 GMT

जनता से रिश्ता वेबडेस्क| तिलकराज । इतिहास अक्सर विकृतियों से भरा होता है और अधिकांश मामलों में कुछ लोगों के अनुरूप उसे फिर से लिखा जाता है। इसमें 1921 का मालाबार विद्रोह या मोपला दंगे कोई अपवाद नहीं हैं, क्योंकि कुछ पुस्तकों में हिंदुओं के नरसंहार को किसान विद्रोह के रूप में और कुछ में स्वतंत्रता संग्राम के तौर पर पेश किया गया। चूंकि यह वर्ष उत्तरी केरल में घटित इस भीषण घटना का शताब्दी वर्ष है, लिहाजा झूठे आख्यानों से परे इसे वास्तविक रूप में देखना और समझना महत्वपूर्ण है कि 1921 में आखिर हुआ क्या था।

दंगों के समय मालाबार की जनसंख्या में मोपला की संख्या करीब 35 प्रतिशत थी। मोपला मलयाली भाषी मुसलमान थे, जिनकी जड़ें अरब में थीं। यह इस क्षेत्र में सबसे बड़ा समुदाय बन गया था। 20 अगस्त 1921 से शुरू होकर कई महीनों तक चली इस हिंसा को पक्षपाती वामपंथी इतिहासकारों और कांग्रेस द्वारा जमींदारों और अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह के रूप में चित्रित किया गया, लेकिन यह सच्चाई नहीं थी। मालाबार में सांप्रदायिकता के बीज 1766 में बोए गए थे, जब हैदर अली और टीपू सुल्तान द्वारा क्षेत्र के हिंदुओं और ईसाइयों के खिलाफ हिंसक मुहिम छेड़ी गई। इस कारण लाखों लोगों को अपने घरों से भागना पड़ा। हिंसक घटनाओं की यह श्रृंखला यूं तो 150 वर्षों की कालावधि में फैली हुई है, लेकिन जिस पहलू ने पहले से मौजूद सांप्रदायिक विभाजन की खाई को और चौड़ा किया तो वह था खिलाफत आंदोलन।

अली बंधुओं- शौकत अली, मोहम्मद अली जौहर और अबुल कलाम आजाद के नेतृत्व में खिलाफत आंदोलन का समर्थन करने वाला एक प्रस्ताव 28 अप्रैल 1920 को मालाबार जिला सम्मेलन में पारित हुआ। इसके बाद एक तिरुरंगदी मस्जिद के इमाम अली मुस्लीर ने नेतृत्व अपने हाथ में लिया और इस्लामी कानून को देश का कानून बनाने का प्रयास किया। इस्लामिक राज्य की स्थापना के अंतिम लक्ष्य को गति देने के लिए एक अफवाह फैलाई गई कि अफगानिस्तान के अमीर ने दिल्ली पर आक्रमण कर दिया है और मुसलमानों के लिए इस क्षेत्र पर दावा करने का समय आ गया है। अन्य मुस्लिम नेता जैसे वरियनकुनाथ कुन्हम्मद हाजी ने तब तक खुद को इस्लामिक स्टेट का गवर्नर घोषित कर जनता को भड़काना शुरू कर दिया था। क्षेत्र के गैर मुसलमानों पर जजिया या धार्मिक कर भी लगाया गया।

इस प्रकार देखा जाए तो वर्ष 1921 में जो हुआ, वह वस्तुत: मालाबार में वर्षों से चल रही सांप्रदायिक घृणा का नतीजा था। इस भीषण हिंसा से पहले मालाबार में लगभग 50 हिंसक घटनाएं हुई थीं। इनमें से ज्यादातर हिंसक घटनाएं इसलिए घटित हरुई, क्योंकि मुसलमान मस्जिद बनाने के लिए हिंदू मंदिरों के पास की जमीन पर कब्जा करने का प्रयास कर रहे थे। वहीं जिन इलाकों में मुस्लिम बहुसंख्यक थे, वहां जबरन मतांतरण की मुहिम चलाई जा रही थी।

यहां एक तथ्य यह भी है कि इनमें से एक भी घटना का कृषि संकट से कोई लेनादेना नहीं था। वास्तव में उत्तरी मालाबार में जमींदारों की अच्छी-खासी आबादी मुसलमानों की भी थी। वे 1921 में हुए सभी तथाकथित किसान विद्रोहों से अछूते रहे। इस दौरान वेरियनकुनाथ कुन्हम्मद हाजी, जो कुछ सबसे भीषण घटनाओं के लिए जिम्मेदार थे, उनकी विश्वसनीयता किसान आंदोलन के नेतृत्व को लेकर बेहद कमजोर हो चुकी थी। ये कुछ ऐसे तथ्य हैं जो आज तक निर्विवाद हैं। इनके जवाब मोपला दंगों के इर्दगिर्द बुने गए झूठे आख्यान की हवा आसानी से निकाल सकते है।

इस घटना के सौ साल बाद भी यही लगता है कि यह मानने से इन्कार किया जा रहा है कि यह एक नरसंहार था। इस हिंसा में 20,000 से अधिक हिंदू मारे गए, जबकि 4000 से अधिक का जबरन मतांतरण कराया गया। करीब 1000 से अधिक मंदिरों को नष्ट किया गया। लगभग दो लाख लोग घर छोड़कर विस्थापित हो गए। इस हिंसा का एकमात्र लक्ष्य इस्लामी राज्य की स्थापना करना था। वस्तुत: इसी धार्मिक कट्टरता के कारण आर्य समाज ने पहली बार राहत गतिविधियों के लिए कालीकट में एक केंद्र स्थापित किया। ये हिंसक घटनाएं सभी के सामने स्पष्ट थीं। फिर भी राष्ट्रीय नेतृत्व इसे कृषि विद्रोह के रूप में देखता रहा। एनी बेसेंट और डा. आंबेडकर जैसे बहुत कम नेता थे, जिन्होंने इस सांप्रदायिक हिंसा पर कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त की, जिसे विद्रोह का नाम दिया जा रहा था। इस दौरान जो क्रूरता हुई, वह मालाबार में इस्लामी खिलाफत स्थापित करने का ही एक प्रयास था।

साम्यवादी सरकार ने भी इस गलत आख्यान को आगे बढ़ाने में प्रमुख भूमिका निभाई, जिसमें कहा गया कि मालाबार दंगा स्वतंत्रता संग्राम आंदोलन का हिस्सा था। 1971 में तत्कालीन केरल सरकार ने दंगों के आरोपी लोगों को स्वतंत्रता सेनानियों के तौर पर चिन्हित किया। इतिहास के पुनर्लेखन में कम्युनिस्ट आंदोलन के अग्रणी नेता ईएमएस नंबूरीपाद का योगदान कम नहीं था। उनके अपने परिवार को इस हिंसा के कारण पलायन करना पड़ा था। अपने शुरुआती दिनों के लेखन में उन्होंने मोपला दंगों को सांप्रदायिक बताया, लेकिन बाद में इससे मुकर गए और दंगों को कृषि संकट करार दिया। 1973 में केंद्र सरकार ने संसद में कहा था कि मालाबार विद्रोह एक सांप्रदायिक दंगा था और इसे स्वतंत्रता संग्राम आंदोलन का हिस्सा नहीं माना जा सकता।

राजनीतिक हितों ने सच्चाई को पीछे छोड़ दिया और वास्तविकता को इतिहास में हमेशा के लिए दफन कर दिया गया। इसे वामपंथी इतिहासकारों, कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्यों ने अपने निहित स्वार्थों के अनुरूप प्रचारित किया। भारतीय ऐतिहासिक अनुसंधान परिषद ने हाल में स्वतंत्रता सेनानियों की सूची से 387 मोपला नेताओं के नाम हटाने का एक सही कदम उठाया, लेकिन इतिहास की इस सच्चाई को झूठ के बंधन से मुक्त करने में देर नहीं लगेगी।


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