स्वयंभू चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर लंबे समय से यह शिगूफा छेड़े हुए हैं कि यदि आमने-सामने की लड़ाई में मुख्य अल्पसंख्यक समुदाय लामबंद होकर भाजपा के प्रतिद्वंद्वी के पक्ष में वोट करे तो भाजपा को हराया जा सकता है। उनकी यह परिकल्पना इस आकलन पर आधारित है कि बेहतर से बेहतर स्थिति में भाजपा हिंदुओं के 60 प्रतिशत से अधिक मत हासिल नहीं कर सकती। ऐसे में यदि भाजपा विरोधी मतों का बिखराव न हो तो अपने मूल मतदाताओं के दम पर भाजपा चुनावी वैतरणी पार नहीं कर सकती। बंगाल के अनुभव को दोहराने के लिहाज से उत्तर प्रदेश एकदम उपयुक्त चुनावी मैदान था। सपा की अपने परंपरागत यादव और अन्य पिछड़ा वर्ग के अतिरिक्त मुसलमानों में गहरी पैठ रही है। इसमें जयंत चौधरी के रालोद के जुडऩे से उन्होंने भाजपा की बहुत करीने से तैयार की गई सोशल इंजीनियरिंग की काट वाला 'जिताऊ फार्मूला' बना लिया। इसमें सत्ता विरोधी रुझान और कोविड महामारी के प्रभाव को जोड़ लिया जाए तो भाजपा की राह में कांटे और बढ़ गए। इस प्रकार सपा के सत्ता में लौटने के पूरे आसार बन रहे थे। देश के सबसे महत्वपूर्ण राज्य में अपनी लोकप्रियता और सक्षमता से योगी आदित्यनाथ ने इन सभी वर्जनाओं को धता बता दिया। उनके साथ शिकायतें कम नहीं थीं। कानून एवं व्यवस्था में सुधार के उनके दावों को मीडिया ने चुनौती दी। कतार में खड़े अंतिम व्यक्ति तक कल्याणकारी योजनाओं की पहुंच को लेकर भी संशय किया गया। प्रधानमंत्री मोदी और गृहमंत्री अमित शाह के साथ उनके संबंधों को लेकर अफवाहों का बाजार गर्म रहा। ऐसी अटकलें भी लगाई गईं कि मोदी और शाह दूसरी बार उन्हें मुख्यमंत्री के रूप में उतारने के इच्छुक नहीं। ऐसे में उत्तर प्रदेश को 'तश्तरी में परोसी जीत' की तरह पेश किया जा रहा था। मीडिया का एक हिस्सा इसे अगले आम चुनाव का 'सेमीफाइनल' बता रहा था। जीत की ऐसी संभावनाओं को देखते हुए क्षेत्रीय क्षत्रपों ने जुटकर 2024 के लिए रणनीति बनाना शुरू कर दिया।
तृणमूल कांग्रेस ने गोवा विस्तार की ओर कूच कर दिया। केजरीवाल की आप तो पिछले चुनावों से ही इस काम में जुटी है। पंजाब में शिरोमणि अकाली दल और कांग्रेस से हुए जनता के मोहभंग को आप ने ताड़ लिया। रही-सही कसर कांग्र्रेस की अंतर्कलह ने पूरी कर दी। मणिपुर जरूर एक अपवाद है, परंतु उत्तर प्रदेश की तरह उत्तराखंड और गोवा में भी भाजपा सत्ता विरोधी रुझान से दो-चार थी। खासकर उत्तराखंड में पार्टी अंदरखाने इतनी गुटबाजी झेल रही थी कि उसे मुख्यमंत्री के स्तर पर ही बदलाव करने पड़े। ऐसे में विपक्ष को संभावनाएं दिखना स्वभाविक था।
चार राज्यों में भाजपा और पंजाब में आप को मिली विराट सफलता की सराहना की जानी चाहिए। अभी चुनाव नतीजों का और विश्लेषण होगा। उससे पहले कुछ पहलुओं का संज्ञान लेना उपयोगी होगा। मोदी-शाह के नेतृत्व में 'नई भाजपा' की सांगठनिक मशीनरी को लेकर खूब चर्चा है, लेकिन चुनाव केवल अंकगणितीय कवायद से ही नहीं जीते जाते। ऐसे में भाजपा के पक्ष में बने निर्णायक समीकरणों की थाह लेना जरूरी है। रोजगार और महंगाई जैसे मुद्दे हर चुनाव में प्रभावी होते हैं। आज तमाम प्रबुद्ध मतदाता भलीभांति समझते हैं कि ये चक्रीय कारणों और ढांचागत समस्याओं से जुड़े मुद्दे हैं, जिनका रातोंरात हल नहीं निकाला जा सकता। वे यह भी जानते हैं कि किसी नेता के पास कोई जादुई छड़ी नहीं। ऐसे में वे पार्टियों की नीयत, इरादे और क्षमता के आधार पर उनका आकलन करते हैं। साथ ही मतदाता घिसी-पिटी बातों में भी नहीं फंसते। वे समझते हैं कि दुनिया बदल रही है और नई नौकरियां पुराने ढर्रे से नहीं मिलने वालीं। यही कारण है कि पीएसयू के कायाकल्प या शिक्षकों की भर्ती उनके ज्यादा गले नहीं उतरती। इसके बजाय योगी आदित्यनाथ का 'एक जिला-एक उत्पाद' या नरेन्द्र मोदी की कनेक्टिविटी और गति शक्ति जैसे आह्वान उन्हें अधिक लुभाते हैं।
सुशासन भी महत्वपूर्ण मुद्दा है। यदि योगी और मोदी के दामन पर भ्रष्टाचार का कोई दाग नहीं और वे आम आदमी को ईमानदार लगते हैं तो इसके बहुत मायने हैं। कानून एवं व्यवस्था एक वास्तविक मुद्दा है, जिसका जीवन और आजीविका से सीधा जुड़ाव है। इसके लिए लोग कुछ अधिक कीमत अदा करने को भी तैयार हैं। इसी प्रकार सेवाओं की उपलब्धता एवं जीवन की सुगमता भी लोगों के लिए महत्ता रखती है, क्योंकि इनसे समय की बचत और उत्पादकता में वृद्धि होती है। देश के विभिन्न हिस्सों में आर्थिक वृद्धि एवं रोजगार सृजन में अवसंरचना की भूमिका लोगों को बखूबी समझ आती है। चुनाव से ठीक पहले मणिपुर पहुंची पहली मालगाड़ी ऐसा ही एक निर्णायक पड़ाव था। ऐसी अनुभूतियां एक नए वोट बैंक का निर्माण कर रही हैं, जो जाति और जेंडर से परे जाकर मतदान को तत्पर है। 'साइलेंट वोटर' और महिलाओं की चुनावों में बढ़ती भागीदारी इस रुझान को मुखरित करती है। ऐसे में यही उम्मीद की जानी चाहिए कि जल्द ही वह समय भी आएगा, जब लोग धार्मिक आधार से हटकर भी वोट करेंगे और कोई समुदाय बंधुआ वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल नहीं होगा। वास्तव में यही नया भारत होगा।