किसी भी प्रदेश की कुल जनसंख्या को विधानसभा की कुल सीटों से भाग देकर आए भागफल को फिर 1000 से भाग देकर एक वोट का मूल्य निकाला जाता है। यही कारण है कि जिन राज्यों में जनसंख्या अधिक होती है, वहां की विधानसभा के सदस्यों के वोट का मूल्य अपेक्षाकृत कम जनसंख्या वाले राज्यों की विधानसभाओं के सदस्यों की तुलना में अधिक होता है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण उत्तर प्रदेश और सिक्किम हैं। जहां उत्तर प्रदेश से चुने गए विधायक के वोट का मूल्य 208 है तो वहीं सिक्किम से चुने गए विधायक के वोट का मूल्य मात्र सात है। वोट के मूल्य में इतना बड़ा अंतर आने का कारण दोनों प्रदेशों की जनसंख्या के बीच का बड़ा अंतर है। यहां सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इस मूल्य के निर्धारण के लिए अभी भी 1971 के जनगणना के आंकड़ों को प्रयोग में लाया जाता है। हिमाचल प्रदेश में आज भी वर्ष 1971 की जनसंख्या, जो कि उस समय 3460434 थी, के आधार पर ही एक वोट का मूल्य तय किया जाता है, जबकि आज हिमाचल की जनसंख्या इससे दोगुने के बराबर हो चुकी है। इसीलिए हिमाचल प्रदेश में एक विधानसभा के एक सदस्य के वोट का मूल्य आज भी 51 ही है। हालांकि 1971 के बाद भी देश में चार बार जनगणना की जा चुकी है। इसलिए आज लगभग पचास वर्ष पुरानी जनगणना को आधार मानना न्यायोचित नहीं लगता। लेकिन 1971 की जनगणना को आधार मानने के पीछे का कारण भी उतना ही रोचक है। वर्ष 1976 में भारत के संविधान में ब्यालीसवां संशोधन किया गया। यह संशोधन इतना बड़ा था कि इसे मिनी संविधान भी कहा जाता है। इस संशोधन के द्वारा संविधान में बहुत से बदलाव किए गए थे। इन बदलावों में से ही एक बदलाव परिवार नियोजन से संबंधित भी था। इस संशोधन के द्वारा परिवार नियोजन और जनसंख्या नियंत्रण जैसे विषयों को संविधान की समवर्ती सूची में शामिल कर लिया गया था। इसके बाद परिवार नियोजन और जनसंख्या के नियंत्रण के लिए बहुत से उपाय किए गए। इन उपायों से देश के केरल, कर्नाटक और तमिलनाडु जैसे राज्यों ने अच्छे परिणाम दिखाए और जनसंख्या नियंत्रण में अपना अहम योगदान दिया, जबकि कुछ राज्य परिवार नियोजन और जनसंख्या नियंत्रण में सफल नहीं हो पाए।
इनमें मुख्य रूप से उत्तर प्रदेश और बिहार शामिल थे। अब क्योंकि किसी भी विधानसभा में निर्वाचित सदस्य के वोट के मूल्य की गणना उस प्रदेश की जनसंख्या के आधार पर की जाती है और जिस प्रदेश की जनसंख्या अधिक होगी वहां के सदस्य के वोट का मूल्य भी अधिक ही होगा। अब उस समय ये विरोधाभास उत्पन्न हो गया कि जो राज्य परिवार नियंत्रण में अच्छा कार्य कर रहे हैं और जनसंख्या को नियंत्रित कर रहे हैं, उनके निर्वाचित सदस्यों के वोट का मूल्य कम होता जाएगा तथा इसके विपरीत जो राज्य परिवार नियोजन और जनसंख्या नियंत्रण में असफल सिद्ध हुए हैं, उस प्रदेश के निर्वाचित सदस्यों के वोट का मूल्य अधिक होता जाएगा। इस विरोधाभास को दूर करने के लिए उस समय 1981 की जनसंख्या को आधार न मानकर यह निर्णय उस समय लिया गया कि वर्ष 2000 तक 1971 की जनगणना को आधार माना जाए तथा उसके बाद 2001 में होने वाली जनगणना को राष्ट्रपति के चुनाव के लिए आधार माना जाए। उस समय यह भी अनुमान लगाया गया था कि वर्ष 2000 तक सभी राज्यों में जनसंख्या नियंत्रण की दर एक समान हो जाएगी, लेकिन ऐसा संभव नहीं हो पाया और 2001 की जनगणना के बाद तत्कालीन सरकार ने 2026 तक 1971 की जनगणना के आंकड़ों को आधार बनाने का निर्णय लिया। अब क्योंकि 2026 में जनगणना नहीं होगी, इसलिए 2031 की जनगणना तक 1971 की जनगणना के आंकड़ों के आधार पर ही राष्ट्रपति के चुनाव करवाए जाएंगे। अर्थात इससे अगले 2027 में होने वाले राष्ट्रपति के चुनावों में भी 1971 की जनगणना को ही आधार माना जाएगा। इस वर्ष के राष्ट्रपति के चुनाव में निर्वाचक मंडल के कुल सदस्यों की संख्या 4809 है। इसमें से 233 राज्यसभा के सदस्य, 543 लोकसभा के सदस्य तथा 4033 विधानसभाओं के सदस्य शामिल हैं। अलग-अलग राज्यों की विधानसभाओं के सदस्यों के वोटों का कुल मूल्य 543231 बनता है। इसी मूल्य के आधार पर सांसदों के वोट का मूल्य तय किया जाता है। 543231 को 776 (233 जमा 543) से भाग देकर एक सांसद के वोट का मूल्य निर्धारित किया जाता है। इस प्रकार इन चुनावों में एक सांसद के वोट का मूल्य 700 है। इस बार के चुनावों में कुल वोटों का मूल्य 1086462 है।
राकेश शर्मा
लेखक जसवां से हैं