डिजिटल युग में चुनाव आयोग की लाचारी, क्या चुनाव आयोग निभा पा रहा है संवैधानिक उत्तरदायित्व?

ऑक्सफैम की नई रिपोर्ट के अनुसार 2153 अरबपतियों के पास विश्व के 60 फीसदी यानी 4.6 अरब लोगों के बराबर धन-संपत्ति है

Update: 2022-01-20 08:26 GMT
विराग गुप्ता का कॉलम: 
ऑक्सफैम की नई रिपोर्ट के अनुसार 2153 अरबपतियों के पास विश्व के 60 फीसदी यानी 4.6 अरब लोगों के बराबर धन-संपत्ति है। महामारी के पिछले एक साल में भारत में 44 अरबपति बढ़े, लेकिन 84 फीसदी परिवारों की आमदनी कम हो गई है। असमानता क्यों बढ़ रही है, इसे समझने के लिए जटिल अर्थशास्त्र या रॉकेट साइंस के ज्ञान की जरूरत नहीं है। मुक्त अर्थव्यवस्था और उदारीकरण के नाम पर धनकुबेरों को कानून और टैक्स के दायरे से बाहर रखते हुए आम जनता को नियमों के जंजाल में जकड़ दिया जाय तो गरीबी, असमानता और बेरोजगारी बढ़ेगी ही।
इसलिए चुनावी राज्यों में नेताओं के भाषण और आगामी बजट दोनों के ही लिहाज से ऑक्सफैम रिपोर्ट के निष्कर्ष अहम हैं। इस बात को नवीनतम वाकयों से बेहतर तरीके से समझा जा सकता है। उज्जैन में एक युवा लड़की की दुखद मृत्यु के बाद पुलिस और प्रशासन ने बैन किए गए चाइनीज मांझा को बेंचने वाले छुटभैयों के घर-दुकान को आनन-फानन में नेस्तनाबूद कर दिया। खतरनाक मांझा फैक्ट्री में बनता है या फिर विदेशों से इंपोर्ट होता है। उसके बावजूद फैक्ट्री मालिक, इंपोर्टर और थोक विक्रेता के खिलाफ झटपट न्याय की कार्रवाई नहीं की गई।
मांझे की ही तरह मोबाइल गेम की लत का शिकार होकर पिछले हफ्ते एक बच्चे ने भोपाल में आत्महत्या कर ली। मध्य प्रदेश के गृहमंत्री ने मोबाइल गेम पर अंकुश लगाने के लिए सख्त कानून बनाने का बयान जारी कर दिया। क्या आत्महत्या के मामले में गेमिंग कंपनियों के मालिकों को बयान देने के लिए हाज़िर होने को पुलिस विवश कर सकती है? गेमिंग इंडस्ट्री के नाम पर बड़े-बड़े यूनिकॉर्न खड़े हो रहे हैं और केंद्र सरकार ने इस बारे में सख्त नियम नहीं बनाए। तो फिर गेमिंग कंपनी के ऊपर सख्त कारवाई दूर की कौड़ी ही लगती है।
चुनावों से विधायक और सांसदों के उस शासक वर्ग का चयन होता है, जिसे असमानता और जनता के बढ़ते दुखों के लिए जिम्मेदार माना जाना चाहिए, लेकिन कानूनों को धता बताकर जीतने वाले विधायक और सांसदों से कानून के शासन को लागू करने की अपेक्षा कैसे की जाए? पिछले साल कोरोना की दूसरी लहर में पश्चिम बंगाल समेत कई राज्यों के विधानसभा चुनावों में रैलियों और रोड शो में नियमों का खुला उल्लंघन हुआ।
चुनाव आयोग की चुप्पी पर अदालतों ने लताड़ लगाईं। तो इस बार चुनावों की घोषणा के साथ ही आयोग ने रैलियों और रोड शो पर प्रतिबंध लगाकर अपनी शक्ति और अधिकारों के इस्तेमाल की सही मिसाल पेश की। संविधान के अनुच्छेद 324 के तहत चुनाव आयोग को लोकतंत्र का रेगुलेटर माना जा सकता है। पांच राज्यों के चुनावों में आयोग संवैधानिक उत्तरदायित्वों को निभाने में सही और सफल साबित हो रहा है या नहीं? इसे चार पहलुओं से समझने की जरूरत है-
पहला, आधार-वोटर लिस्ट का डाटा। पिछले महीने संसद के शीतकालीन सत्र में चुनावी सुधार विधेयक पारित किया गया। उसके तहत वोटर कार्ड को आधार से ऐच्छिक तौर पर जोड़ने के लिए कानून में बदलाव किए गए हैं। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुसार सब्सिडी जैसे कुछेक क्षेत्रों के अलावा आधार को अनिवार्य नहीं बनाया जा सकता। अगर आधार को वोटर लिस्ट के साथ अनिवार्य तौर पर जोड़ने का कानून नहीं बना तो फर्जी वोटरों की समस्या कैसे खत्म होगी?
यदि वोटर लिस्ट का शुद्धिकरण ही मुख्य उद्देश्य है, तो सारे डुप्लीकेट नामों को सॉफ्टवेयर के माध्यम से हासिल करके, आयोग उनकी विशेष पड़ताल और छानबीन कर सकता है। कैंब्रिज एनालिटिका मामले से जाहिर है कि राजनीतिक दल और निजी कंपनियां डाटा के माध्यम से चुनावी नतीजों को प्रभावित कर सकते हैं।
देश में लगभग 92 करोड़ लोगों का नाम वोटर लिस्ट में दर्ज है और 132 करोड़ लोग आधार से जुड़े हैं। ये दोनों डाटा मिलकर संसार का सबसे बड़ा डाटाबैंक बन जाएंगे। लेकिन इस डाटा से चुनावी सिस्टम प्रभावित नहीं हो, ऐसे दुरुपयोग को रोकने के लिए सरकार और चुनाव आयोग ने कोई व्यवस्था नहीं बनाई।
दूसरा, राजनीति के अपराधीकरण को रोकने के लिए सुप्रीम कोर्ट के फैसले को सख्ती से लागू करने के लिए आयोग ने ठोस कदम नहीं उठाए। दूसरी तरफ अनेक चुनावी सुधारों पर कानून बनाने का काम पिछले कई दशकों से लंबित है। पेड न्यूज और गलत हलफनामा पर भ्रष्ट आचरण का अपराध, वोटों की खरीद-फरोख्त को संज्ञेय अपराध बनाना, राजनीतिक दलों का डिरजिस्ट्रेशन, पार्टियों के खातों का वैधानिक ऑडिट जैसे कई मामलों पर सरकार और संसद ने जब कानून नहीं बनाए तो आयोग उन पर लोगों से सार्वजनिक परामर्श क्यों नहीं करता?
तीसरा, वीआईपी नेताओं पर कानून लागू करना। ब्रिटेन में लॉकडाउन के दौरान शराब पार्टी करने पर प्रधानमंत्री जॉनसन से जनता इस्तीफा मांग रही है। लेकिन भारत में सभी पार्टियों के नेता खुद को कानून से परे ही मानते हैं। लखनऊ में समाजवादी पार्टी के नेताओं की भीड़ और नोएडा में छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री बघेल की जनसंपर्क यात्रा के खिलाफ एफआईआर दर्ज हो गई, लेकिन हजारों ऐसी सभाएं जारी हैं।
सभी दलों के नेता मास्क, सोशल डिस्टेंसिंग और भीड़ रोकने के लिए बनाए गए नियमों को खुलेआम तोड़ रहे हैं। नाइट कर्फ्यू और कोरोना गाइडलाइंस के उल्लंघन पर दिल्ली में पिछले 20 दिनों में ही 18 हजार से ज्यादा लोगों के खिलाफ चालान और एफआईआर की कार्रवाई हुई है। चुनावों के समय नेताओं के सारे कार्यक्रमों की वीडियो रिकॉर्डिंग होती है। नियमों के उल्लंघन पर प्रति व्यक्ति दो हजार रुपए का तत्काल जुर्माना लगाया जाय तो फिर वीआईपी नेताओं को जनता की पीड़ा की समझ के साथ कानून का भी अहसास होगा।
चौथा, चुनावों में डिजिटल प्रचार। डिजिटल जाल से वोटरों को फंसाने के लिए फेसबुक के लाखों पेज, व्हाट्सएप के लाखों ग्रुप और टि्वटर में हजारों हैशटैग ट्रेंडिंग का पार्टियां इस्तेमाल करती हैं। देश में लगभग 10 लाख चुनावी बूथ हैं, जहां पर औसतन 4 दलों का प्रभाव होता है। उस लिहाज से लगभग 40 लाख लोग, दलों की आईटी सेना और सोशल मीडिया टीम से जुड़े हैं। चुनाव आयोग ने परंपरागत चाय, समोसे, पानी और फूलमाला के लिए रेट कार्ड जारी कर दिया। लेकिन डिजिटल में हो रहे खरबों रुपए के काले धन के खर्च की मॉनिटरिंग का सिस्टम नहीं बनाया।
सोशल मीडिया के खर्च की जवाबदेही और आईटी सेना के लठैतों को काबू करने के लिए के एन गोविंदाचार्य के प्रतिवेदन पर 2013 में जो नियम बने थे, उन्हें विदेशी कंपनियों के दबाव में दो साल पहले तिलांजलि दे दी गई। गरीब वाहन मालिक और निरीह प्रिंटरों पर आयोग का डंडा खूब चलता है। लेकिन फेसबुक, गूगल और ट्विटर जैसी कंपनियों ने अपने ही नियमन के लिए स्वयंभू तरीके से कोड जारी कर दिया, जो स्वैच्छिक है और जिसकी कोई कानूनी वैधता भी नहीं है।
खर्च मॉनिटरिंग का लचर सिस्टम
चुनाव आयोग ने परंपरागत चाय, समोसे और फूलमाला के लिए रेट कार्ड जारी कर दिया। लेकिन डिजिटल में हो रहे खरबों रुपए के काले धन के खर्च की मॉनिटरिंग का सिस्टम नहीं बनाया। सोशल मीडिया के खर्च की जवाबदेही और आईटी सेना को काबू करने के लिए के एन गोविंदाचार्य के प्रतिवेदन पर 2013 में जो नियम बने थे, उन्हें विदेशी कंपनियों के दबाव में दो साल पहले तिलांजलि दे दी गई। फेसबुक, गूगल और ट्विटर जैसी कंपनियों ने अपने ही नियमन के लिए स्वयंभू तरीके से कोड जारी कर दिया, जो स्वैच्छिक है और जिसकी कोई कानूनी वैधता भी नहीं है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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