घोर आश्चर्य का विषय है कि एक ओर जहां राष्ट्रीय एकात्मता की दृष्टि से संपूर्ण भारतवर्ष को एकता के सूत्र में आबद्ध करने वाले श्रद्धा केंद्रों, द्वादश ज्योतिर्लिगों, 52 शक्तिपीठों, कुंभ मेले के आयोजनों, किलों-नगरों-मठों-मंदिरों की स्थापत्य कलाओं, ऐतिहासिक-सांस्कृतिक स्थलों, महत्वपूर्ण घटनाओं, वैभवशाली भारतीय साम्राज्यों, यशस्वी राजवंशों, उनके तिथिक्रमों, वंशवृक्षों, लोककल्याणकारी कार्यों एवं उनकी अभूतपूर्व उपलब्धियों की घनघोर उपेक्षा की गई। दूसरी ओर गुलाम वंश, खिलजी वंश, तुगलक वंश, सैयद वंश, लोदी वंश, मुगल वंश जैसे बाहरी आक्रांताओं, उनके युद्ध विवरणों एवं उनके द्वारा निर्माण कराए गए कथित किलों-मस्जिदों-स्थापत्य कलाओं आदि की आकर्षक विस्तृत विवेचना की गई।
यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमारी पाठ्य पुस्तकों एवं अकादमिक बहसों में मौर्य, गुप्त एवं आधुनिक काल में मराठाओं जैसे कतिपय अपवादों को छोड़कर शेष सभी भारतीय राजवंशों मसलन-चोल, चालुक्य, पाल, प्रतिहार, पल्लव, परमार, मैत्रक, राष्ट्रकूट, वाकाटक, कार्कोट, काकतीय, सातवाहन, विजयनगर, मैसूर के ओडेयर, अहोम और सिख आदि तमाम प्रभावशाली राजवंशों एवं साम्राज्यों की चर्चा लगभग नगण्य रही। जबकि इनके सुदीर्घ शासन काल में अनेकानेक साधनसंपन्न नगर बसाए गए, लंबी-चौड़ी सड़कें बनवाई गईं, विख्यात शिक्षण केंद्रों की स्थापना की गई, विश्व के सांस्कृतिक धरोहरों में सम्मिलित होने लायक किलों, मठों, मंदिरों आदि के निर्माण कराए गए। क्या ऐसी सांस्कृतिक धरोहरों की जानकारी युवा पीढ़ी को नहीं दी जानी चाहिए?
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हुआ यह कि गंगा-जमुनी तहजीब के नाम पर जहां विदेशी आक्रांताओं एवं शासकों की क्रूरता एवं नृशंसता पर आवरण डालने का सुनियोजित प्रयास किया गया, वहीं पंथनिरपेक्षता की आड़ में अकबर, औरंगजेब, टीपू जैसे शासकों को महाराणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी, बाजीराव पेशवा से भी साहसी, महान एवं उदार बताने का अभियान छेड़ा गया। यह देश के बहुसंख्यकों की पीड़ा को बारंबार कुरेदने जैसा मसला है। लाखों को मौत के घाट उतारने तथा मंदिरों, धर्मशालाओं, पुस्तकालयों का अकारण ध्वंस करने वालों का ऐसा निर्लज्ज महिमामंडन भारत के बहुसंख्यकों का ही नहीं, अपितु मानवता का भी घोर अपमान है। एक ओर यहूदियों पर किए गए बर्बर अत्याचार के कारण
आज जर्मनी में हिटलर का कोई नामलेवा भी नहीं बचा है, वहीं भारत में आज भी बड़ी संख्या में ऐसे लोग हैं, जिन्हें मुहम्मद गोरी, गजनी, तैमूर जैसे आततायियों पर गर्व है। जिस दिन देशवासियों के भीतर राष्ट्र के शत्रु-मित्र, जय-पराजय, मान-अपमान, गौरव-ग्लानि, हीनता-श्रेष्ठता का संतुलित बोध विकसित हो जाएगा, उस दिन समाज के एक सिरे से दूसरे सिरे तक एकता, सहयोग एवं सौहार्द की भावना स्वयं विकसित हो जाएगी। इतिहास की पाठ्य पुस्तकों के माध्यम से हमें बताना होगा कि मजहब बदलने से पुरखे नहीं बदलते, उपासना-पद्धति बदलने से संस्कृति नहीं बदलती, विश्वास बदलने से साङो सपने और आकांक्षाएं नहीं बदलतीं। इतिहास में अनेक ऐसे अवसर आए, जब पराजय की पीड़ा की साझा अनुभूति हुई, जब हर्ष एवं गौरव के साझा पल सजीव हुए। हमें राष्ट्र को सवरेपरि मान निरपेक्ष भाव से अतीत के नायकों-खलनायकों पर पारस्परिक सहमति और सम्मति बनानी पड़ेगी।
रहीम, रसखान, दारा शुकोह, बहादुर शाह जफर, खान अब्दुल गफ्फार खान, एपीजे अब्दुल कलाम, आरिफ मोहम्मद खान जैसी शख्सीयतों पर किस भारतीय को गर्व नहीं होगा, परंतु नालंदा विश्वविद्यालय जैसे संस्थान को नष्ट करने वाले बख्तियार खिलजी के नाम को बचाए रखने की जिद का स्वतंत्र भारत में क्या कोई औचित्य होना चाहिए? क्या यह सच नहीं कि इतिहास की हमारी पाठ्य पुस्तकों में तथ्यों एवं घटनाओं का विवरण इस प्रकार किया गया है कि विदेशी आक्रांताओं के नाम तो याद रह जाते हैं, पर राष्ट्र के लिए सर्वस्व अर्पण करने वाले चेहरे सामने नहीं आते? इतिहास की पुस्तकें पढ़कर यही धारणा बनती है कि भारत की गाथा तो केवल पराजय की गाथा है।
मध्यकालीन एवं आधुनिक भारत का पूरा इतिहास दिल्ली सल्तनत, मुगल वंश, ईस्ट इंडिया कंपनी, अंग्रेजों और स्वतंत्रता आंदोलन के नाम पर तत्कालीन कांग्रेस के कतिपय नेताओं के इर्दगिर्द सिमटकर रह गया है। आजादी के अमृत महोत्सव की इस स्वर्णिम बेला में हमें सच्चे एवं संतुलित इतिहास बोध या भारत बोध को विकसित एवं स्थापित करने की दिशा में इतिहास के पुनर्लेखन पर गंभीरता से कार्य करना चाहिए।
jagran
(लेखक शिक्षा प्रशासक हैं)