लोकतंत्र की बुनियाद : समग्र ग्रामीण नीति में बदलाव की जरूरत
अपनी मौलिक सोच को आगे बढ़ाकर विश्व स्तर पर एक अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत करें।
लोकतंत्र की यह बुनियादी मांग है कि सरकारें जन-मत पर उचित ध्यान दें और इसके आधार पर अपनी नीतियों में सुधार करें। किसानों में व कृषि विशेषज्ञों के एक महत्वपूर्ण हिस्से में तीनों कृषि कानूनों के प्रति स्पष्ट विरोध था। यहां तक कि ऐसे अनेक विशेषज्ञ जो पहले उच्च सरकारी पदों पर रह चुके हैं, उन्होंने भी इन कानूनों के प्रति विरोध विस्तार से कारण बताते हुए प्रकट किया है।
लोकतंत्र में सरकार व विपक्ष के बीच, सरकार व आंदोलनकारियों के बीच विरोध तो होता ही है, पर यह विरोध इतना तीखा नहीं होना चाहिए व इतना लंबा नहीं खिंचना चाहिए कि परस्पर सहयोग की संभावनाएं ही लुप्त होने लगें। तीन कृषि कानूनों का विवाद बहुत लंबा खिंच गया था। इससे पहले कि यह विवाद व इससे उत्पन्न खाई अधिक राष्ट्रीय क्षति कर सके, सरकार ने अहं और जिद की राह छोड़कर सुलह व सहयोग की राह अपनाई। इसके लिए सरकार प्रशंसा की पात्र है।
दूसरी ओर सरकार का यह कहना कि उसकी कृषि नीति किसानों व खेती-किसानी के लिए बहुत हितकारी रही है, कतई उचित नहीं है। यदि ऐसा होता, तो किसान आज इतने संकट में न होते। आज हमारे गांवों की स्थिति यह है कि भूमिहीन व छोटे किसानों की आबादी कुल आबादी का 90 प्रतिशत हिस्सा है, जिन्हें अनेक कठिनाइयों से जूझना पड़ रहा है। सरकार ऐसी समग्र नीति नहीं बना पाई है, जिनसे इन 90 प्रतिशत ग्रामीण परिवारों की आजीविका टिकाऊ तौर पर मजबूत हो व साथ में पर्यावरण की भी रक्षा हो।
तीन कानूनों को वापस लेने के साथ सरकार ने कहा है कि इससे नई शुरुआत का अवसर भी मिला है। यह शुरुआत केवल इन कानूनों के बारे में नहीं, अपितु सशक्त ग्रामीण नीति के बारे में होनी चाहिए। यह नीति ऐसी होनी चाहिए जिसमें छोटे व मध्यम किसान का भी भला हो व भूमिहीन मजदूरों का भी भला हो।
ग्रामीण एकता मजबूत हो, भाई चारे का प्रसार हो, सांप्रदायिक सद्भावना मजबूत हो। तेज शहरीकरण को ही विकास की एकमात्र राह न मानकर गांवों-कस्बों की अर्थव्यवस्था को मजबूत करने व सामाजिक समरसता को बढ़ाने के प्रयास किए जाएं। महिला शक्ति को भरपूर प्रोत्साहन दिया जाए व हर तरह के नशे व सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध बड़ा अभियान चले।
आज केवल देश ही नहीं दुनिया की मांग है कि ग्रामीण विकास की ऐसी सोच सामने आए, जो टिकाऊ आजीविका, पर्यावरण रक्षा, समता व न्याय तथा स्वास्थ्यवर्धक खाद्यों की पर्याप्त उपलब्धि की तीन जरूरतों का सर्वोत्तम समावेश कर सके। अभी तक हमारा देश ऐसी सोच न तो प्रस्तुत कर सका है, और न इसे व्यापक स्तर पर जमीनी हकीकत बना सका है।
हां, छिटपुट प्रयासों में इसकी झलक जरूर विभिन्न स्थानों पर, विभिन्न राज्यों में यदा-कदा दिखाई पड़ती है। अब समय आ गया है कि हम इन छिटपुट प्रयासों को अधिक विस्तार देकर और अपनी मौलिक सोच को आगे बढ़ाकर विश्व स्तर पर एक अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत करें।