यहां लगभग हर बड़ी सरकारी कम्पनी बिकने की हालत में है और राजनीतिक स्थिरता है। मगर दूसरी तरफ देश की अर्थव्यवस्था जर्जर है। 2016- 17 से लगातार आर्थिक मोर्चे पर इसके मानक चादर ओढ़ कर सुस्ताने की प्रक्रिया में पलंग पर लेटे हुए से हैं। इसका प्रमाण ये सत्यापित आंकड़े हैं कि 2016-17 में जहां विकास वृद्धि दर जमा 8 प्रतिशत थी, वहीं 2020-21 में औंधे मुंह गिर कर यह नफी 7.3 प्रतिशत हो गई। अर्थात पलंग पर चादर ताने सो रही अर्थव्यवस्था इससे नीचे गिर कर बुरी तरह चोट खा बैठी। शेयर बाजार के नीचे जाने का यह सामान्य तार्किक कारण हो सकता था मगर इसके विपरीत यह 2016-17 से लगातार कुलाचे मार रहा है और आजकल मुम्बई सूचकांक 50 हजार से ऊपर उड़ रहा है। इसका मतलब निकाला जा सकता है कि शेयर बाजार अब अर्थव्यवस्था के मूल मानकों से निर्देशित न होकर अन्य नीतिगत मानकों से निर्देशित हो रहा है और विदेशी संस्थागत व पोर्ट फोलियो निवेशक जमकर निवेश कर रहे हैं। हद तो यह हो गई है कि जब से कोरोना का आक्रमण भारत पर हुआ और इसकी अर्थव्यवस्था औंधे मुंह गिरनी शुरू हुई तब से शेयर बाजार पर कोई असर नहीं पड़ा और यह अपनी ऊपर जाने की गति पकड़े रहा। मगर कोरोना काल के दौरान ही हमने कृषि से सम्बन्धित तीन कानून देखे और सरकार का विनिवेश के जरिये धन उघाने की बड़ी योजना देखी।
विभिन्न सरकारी कम्पनियों के निजीकरण की घोषणा की गई और वित्त क्षेत्र में जीवन बीमा निगम व कई बड़े बैंकों के निजीकरण की स्कीम बनाई गई। सभी में विदेशी निवेश को खुला किया गया । विदेशी निवेशकों के लिए ये बहुत आकर्षक योजनाएं हैं। विदेशी संस्थागत निवेशकों की वित्तीय ताकत का अंदाजा आम या साधारण भारतीयों को नहीं रहा है। कुछ संस्थागत निवेशक ऐसे भी हैं जिनकी कुल वित्तीय जमा पूंजी भारत सरकार के बजट के बराबर तक है। मगर चिन्ता तब पैदा होती है जब भारत के किसी एक उद्योग समूह की चार कम्पनियों में कुछ ऐसे संस्थागत विदेशी निवेशक 43 हजार करोड़ रुपए का निवेश करते हैं जिनका आधार मारीशस देश में है। मगर उनका कोई अता-पता मुकम्मल नहीं हो पाता।
मारीशस के साथ भारत की कर सन्धि है। इसी वजह से मारीशस आधार की कम्पनियों के माध्यम से भारत में पूंजी निवेश जमकर होता है। मारीशस रूट का मामला पिछली वाजपेयी सरकार के दौरान भी उछला था। उस समय वित्तमन्त्री माननीय यशवन्त सिन्हा थे और उन पर आरोप लगा था कि यूटीआई घोटाले से उनके परिवार के सदस्यों के तार जुड़े हुए हैं। कहने का मतलब यह है कि मारीशस आधारित कम्पनी यदि भारत की किसी कम्पनी के शेयरों में मांग व आपूर्ति के आधार पर हवा भरती है तो उसका खामियाजा देश के साधारण निवेशकों को ही भरना पड़ सकता है। शायद यही वजह है कि रिजर्व बैंक ने पिछले दिनों जारी अपनी रिपोर्ट में साफ कहा था कि शेयर बाजार क्यों तेजी की तरफ भाग रहा है, यह उसकी समझ से बाहर है। तेजी का यह गुब्बारा अभी तो ऊंचा उड़ रहा है और इसके ऊंचा उड़ने की वजह का अर्थव्यवस्था से कोई लेना-देना नहीं है। दूसरी तरफ अगर हम सोने के भावों को ले तो ये भी पर लगा कर उड़ रहे हैं। बेशक इसके भाव अन्तर्राष्ट्रीय बाजार भावों से सीधे जुड़े हुए हैं मगर ये बारास्ता डालर की विनिमय दर के ही हैं। डालर लगातार रुपये के मुकाबले महंगा होता गया है।
एक जमाना भारत में वह भी था जब 1996-97 में डालर का भाव 20 रुपए था और सोने का भाव लन्दन सट्टा बाजार में 300 डालर के करीब था तो सर्राफा बाजारों में सोना ठीक दीपावली के समय सेल (घटी दरों) पर बिक रहा था। यह वह दौर था जब बड़े-बड़े शक्तिशाली यूरोपीय देश अपना सोना बेच कर डालर इकट्ठा कर रहे थे। मगर बाद में हालात बदले डालर के रुपये के मुकाबले दाम बढ़ने शुरू हुए और अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में भी सोना इसके समानान्तर बढ़ना शुरू हुआ। अब डालर की कीमत 70 रुपये से ऊपर भाग रही है और इसका हवाला रेट भी बाकायदा भारत में जारी है जो नम्बर दो का कारोबार है। दूसरे अर्थव्यवस्था के लगातार गिरने से स्वर्ण धातु में निवेश बढ़ रहा है इसलिए इसके दाम ऊंचे होते जा रहे हैं। सोने की चमक गायब करने के लिए जरूरी है कि डालर के रेट कम हों जो असंभव दिखाई पड़ता है। इसलिए सोना भी आराम से बढ़ रहा है और शेयर बाजार भी। शेयर बाजार के बढ़ने की एक वजह और भी है कि पिछले डेढ़ साल में कोरोना काल के चलते देश के तीन प्रतिशत लोगों की सम्पत्ति में ही बढ़ावा हुआ है और निजी कम्पनियों अर्थात कार्पोरेट क्षेत्र का मुनाफा बढ़ा है जबकि 97 प्रतिशत लोगों की आय घटी है। समझ में बात आ सकता है कि शेयर बाजार में निवेश कौन लोग कर सकते हैं ?