दागी जनप्रतिनिधि
राजनीति के अपराधीकरण को लेकर देश में सभी पार्टियां चिंता जाहिर करने में सबसे आगे रहती हैं। लेकिन जब इस समस्या को दूर करने में अपनी भागीदारी का मौका आता है
Written by जनसत्ता: राजनीति के अपराधीकरण को लेकर देश में सभी पार्टियां चिंता जाहिर करने में सबसे आगे रहती हैं। लेकिन जब इस समस्या को दूर करने में अपनी भागीदारी का मौका आता है, तब अमूमन सभी दल इस जिम्मेदारी से अपना पल्ला झाड़ लेते हैं। यह बेवजह नहीं है कि इस समस्या को लेकर चिंता तो लंबे समय से जताई जाती रही है, मगर कोई सुधार होने के बजाय इसमें बढ़ोतरी ही होती जा रही है।
उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव के नतीजों का ताजा आंकड़ा यह बताने के लिए काफी है कि राजनीति को अपराधियों से दूर रखने का वादा करने वाली लगभग सभी पार्टियों ने इस मसले पर सिर्फ हवा-हवाई बातें ही कीं। ज्यादातर मुख्य पार्टियों ने आपराधिक छवि या पृष्ठभूमि के लोगों को टिकट दिया और उनके जीत कर विधानसभा में पहुंचने के रास्ते तैयार किए। इसमें हाल के चुनाव में स्पष्ट बहुमत हासिल करने वाली भारतीय जनता पार्टी से लेकर नतीजों में दूसरे स्थान पर रहने वाली समाजवादी पार्टी तक शामिल हैं। सवाल है कि चुनाव प्रचार में जनता के सामने राजनीति में अपराधियों को ठिकाने लगाने के वादे करते हुए क्या पार्टियां महज ऐसा बोलने का बस दिखावा करती हैं?
चुनाव सुधारों को लेकर काम करने वाले संगठन एसोसिएशन फार डेमोक्रेटिक रिफार्म यानी एडीआर ने अपने ताजा अध्ययन में बताया है कि उत्तर प्रदेश में चुनाव के बाद जितने प्रतिनिधि जीत कर विधानसभा में पहुंचे उनमें से आधे से ज्यादा यानी इक्यावन फीसद आपराधिक पृष्ठभूमि वाले हैं। कुल चार सौ दो विधायकों में से दो सौ पांच पर किसी न किसी अपराध में शामिल होने के मुकदमे दर्ज हैं।
यह वर्ष 2017 में इसी वर्ग के तहत दर्ज संख्या के मुकाबले पंद्रह फीसद ज्यादा है। आंकड़ों के मुताबिक, इस बार एक सौ अट्ठावन विधायकों पर दर्ज मुकदमों की प्रकृति गंभीर अपराधों की है। इनमें कई के खिलाफ हत्या और बलात्कार तक के मुकदमे दर्ज हैं। अफसोस की बात यह है कि सबसे ज्यादा सीटें हासिल करने वाली पार्टियों के बीच एक तरह से होड़ देखी गई कि किसकी टिकट पर कितने आपराधिक छवि वाले उम्मीदवार जीतते हैं! सपा के तैंतालीस फीसद, तो भाजपा के पैंतीस फीसद विधायकों पर गंभीर अपराधों के आरोप हैं। बाकी कई दलों के विधायकों की स्थिति भी कमोबेश यही है।
इसके अलावा, सभी राजनीतिक दलों के जनता के प्रति जवाबदेह होने के दावे और सरोकार की असलियत का अंदाजा इससे भी लगता है कि चुने गए इक्यानबे फीसद विधायक करोड़पति हैं। पिछली बार अस्सी फीसद विधायक इस वर्ग के थे। जाहिर है, आम और वंचित तबकों की जनता की जगह राजनीति की मुख्यधारा में लगातार कम होती जा रही है। इससे बड़ी विडंबना और क्या हो सकती है कि समूचे देश की राजनीति में जिस समस्या को बेहद गंभीर मान कर सभी दल इसके हल की बातें करते रहते हैं, वह हर अगले चुनाव के दौरान और बाद और ज्यादा जटिल बन कर उभर जाती है।
विचित्र यह है कि सत्ताधारी से लेकर विपक्ष तक सभी पार्टियां एक दूसरे पर ऐसे आरोप लगाते नहीं थकतीं कि वे राजनीति में अपराधियों को बढ़ावा या संरक्षण दे रही हैं। इस बार के चुनावों के पहले राजनीति के अपराधीकरण पर काबू पाने के मकसद से सुप्रीम कोर्ट ने सभी दलों को आपराधिक छवि वाले लोगों को टिकट देने की वजह बताने को कहा था। इसके अलावा, प्रत्याशियों को भी इसे सार्वजनिक करना था। मगर ऐसा लगता है कि न राजनीतिक दलों पर इसका कोई असर पड़ा, न अपने अपराधों के रिकार्ड के साथ राजनीति में अपनी जगह बनाने वाले लोगों पर।