दागी जनप्रतिनिधि
राजनीति के अपराधीकरण को लेकर लंबे समय से चिंता जताई जा रही है और इस फिक्र को सार्वजनिक करने में देश की लगभग सभी पार्टियां आगे रहना चाहती हैं। लेकिन क्या व्यवहार में यही राजनीतिक दल इस बात के लिए सचेतन प्रयास करते हैं
Written by जनसत्ता: राजनीति के अपराधीकरण को लेकर लंबे समय से चिंता जताई जा रही है और इस फिक्र को सार्वजनिक करने में देश की लगभग सभी पार्टियां आगे रहना चाहती हैं। लेकिन क्या व्यवहार में यही राजनीतिक दल इस बात के लिए सचेतन प्रयास करते हैं कि आपराधिक तत्त्वों का राजनीति में और खासतौर पर विधायिका में प्रवेश न हो? इसके उलट पिछले कई दशक इस बात के गवाह रहे हैं कि राजनीति में अपराधियों के बढ़ते दबदबे को एक गंभीर समस्या बताए जाने के बावजूद लगातार वैसे लोग जनप्रतिनिधि के तौर पर संसद और विधानसभाओं में अपनी जगह बनाते रहे हैं, जिनका अतीत आपराधिक घटनाओं में संलिप्त होने का रहा है।
सांसदों और विधायकों के खिलाफ मामलों के शीघ्र निपटारे और विशेष अदालतों के गठन के मामले में अदालत की सहायता के लिए नियुक्त न्याय मित्र ने बीते हफ्ते उच्चतम न्यायालय को बताया कि सांसदों और विधायकों के खिलाफ लंबित मामलों की संख्या दो साल में 4,122 से बढ़ कर 4,984 हो गई है। इनमें 1,899 मामले पांच वर्ष से ज्यादा पुराने हैं। रिपोर्ट के मुताबिक दिसंबर 2018 तक कुल लंबित मामले 4,110 थे और अक्तूबर 2020 में ये 4,859 थे।
इससे साफ पता चलता है कि इस प्रवृत्ति की रोकथाम के दावों के बरक्स आपराधिक पृष्ठभूमि वाले काफी लोग अब भी संसद और विधानसभाओं की सीटों पर कब्जा कर रहे हैं। आखिर क्या वजह है कि एक ओर सभी पार्टियां अपने प्रतिपक्षियों को इस बात के लिए कठघरे में खड़ा करती हैं कि उन्होंने आपराधिक अतीत या छवि वाले लोगों को टिकट देकर समस्या को जटिल बनाया है, जबकि अक्सर मौका मिलने पर ऐसा करने में वे खुद भी पीछे नहीं रहती हैं। यह बेवजह नहीं है कि आज संसद और विधानसभाओं में ऐसे लोग जनता के नुमाइंदे बन कर बैठे हैं, जिनके अपराधों से आम लोग कभी परेशान रहे होते हैं।
हर अपराध के खिलाफ बढ़-चढ़ कर बोलने और अपराधियों पर लगाम लगाने का दावा करने वाली पार्टियां आखिर किन वजहों से ऐसा कर पाती हैं? क्या इसके पीछे एक बड़ा कारण यह नहीं है कि उन्हें न केवल आपराधिक छवि वाले लोगों से पार्टी का कोष मजबूत करने में मदद मिलती है, बल्कि उनके इलाके में भय पर आधारित समर्थन भी हासिल होता है? इसका एक मतलब यह भी हो सकता है कि राजनीतिक दल अपराधियों के प्रभाव वाले इलाकों में जनता के बीच अपने सिद्धांतों, विचारों के जरिए लोगों के बीच अपने लिए समर्थन हासिल करने में नाकाम होते हैं और इसलिए उन्हें वोट हासिल करने का यह आसान रास्ता दिखाई देता है।
सवाल है कि देश की नियति तय करने वाली राजनीतिक पार्टियों के ऐसे रुख की वजह से राजनीति के अपराधीकरण का जो खमियाजा आम जनता को उठाना पड़ता है, समूचे शासन का स्वरूप प्रभावित होता है, उसकी जिम्मेदारी किस पर आती है! मसले की जटिलता का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि सार्वजनिक रूप से चिंता जताए जाने के साथ-साथ सांसदों-विधायकों के खिलाफ मामलों के निपटारे के लिए कुछ राज्यों में विशेष अदालतों के गठन किए जाने और कुछ अन्य राज्यों में संबद्ध क्षेत्राधिकार की अदालतों में सुनवाई के बावजूद दागी नुमाइंदों की तादाद संसद और विधानसभाओं में बढ़ी ही है।
एक मुश्किल यह भी है कि ऐसे मामलों की सुनवाई करने वाली अदालतों के पास कई स्तरों पर कुछ बुनियादी सुविधाओं का अभाव है और इस बारे में अब तक केंद्र सरकार की ओर कोई ठोस पहल नहीं हुई है। जाहिर है, इस समस्या से निपटने के लिए अदालतों में तेजी से सुनवाई के साथ-साथ सिर्फ दिखावे के वादों और दावों के बरक्स सभी पार्टियों को अपने स्तर पर आपराधिक पृष्ठभूमि वाले लोगों को चुनावों में उम्मीदवार बनाने से बचना होगा।