विभाजन के बाद जमायते इस्लामी हिंद ने पाकिस्तान में जमायते इस्लामी पाकिस्तान के नाम से काम करना शुरू किया और वहां भी अरबीकरण के काम में तेज़ी लाए। भारत में जमायत यथावत काम करती रही। लेकिन जमायत को लगा कि जम्मू-कश्मीर या केवल कश्मीर घाटी में भी प्रक्रिया के पहले चरण यानी इस्लामीकरण का काम पहले ही लगभग पूरा हो चुका है। इसलिए घाटी में अरबीकरण की प्रक्रिया के लिए वहां जमायत की अलग से स्थापना की जानी चाहिए। जमायत के दिमाग में एक दूसरा भी विचार था। जिस प्रकार जमायत भारत और पाकिस्तान को अलग-अलग देश मान कर वहां काम कर रही थी, उसी तर्ज़ पर जमायत ने जम्मू-कश्मीर में जमायते इस्लामी हिंद के स्थान पर जमायते इस्लामी जम्मू कश्मीर के नाम से काम करना शुरू किया। लेकिन प्रश्न था कि घाटी के अरबीकरण के लिए कौनसा तरीक़ा इस्तेमाल किया जाए? इसके लिए शिक्षा का रास्ता अपनाया गया। छोटे कश्मीरी बच्चों को छोटी उम्र में ही पकड़ा जाए और उनके मस्तिष्क को नियंत्रित किया जाए। इसी लिहाज़ से बच्चों के लिए किताबें तैयार करवाई गईं। जमायत ने इस मरहले पर घाटी में स्कूल खोलने शुरू किए। कहा जाता है कि इसके लिए अरब देशों से धन भी प्राप्त किया गया। देखते-देखते घाटी में जमायते इस्लामी के स्कूलों की एक पूरी शृंखला उग आई। इन स्कूलों में कश्मीर के इतिहास, उसकी विरासत को नकारात्मक तरीके से प्रस्तुत किया गया। अरब संस्कृति, तौर-तरीक़ों की प्रशंसा की गई। यह भी समझाया गया कि सच्चा मुसलमान बनने के लिए कश्मीरी भाषा और कश्मीरी विरासत को हिक़ारत की दृष्टि से देखना जरूरी है।
ज़ाहिर है कि देखते ही देखते कश्मीर घाटी में जमायते इस्लामी के स्कूलों से निकले कश्मीरी युवाओं की ऐसी फौज तैयार हो गई जो भारत के टुकड़ों की बात करने के साथ-साथ अपने ही पूर्वजों को गालियां देने लगे। जिस समय पाकिस्तान और कुछ अन्य पश्चिमी देशों ने भारत को कमजोर करने के लिए बाहर से आतंकवादी घाटी में भेजने शुरू किए तो जमायते इस्लामी के स्कूलों से निकले ये कश्मीरी लड़के उनके सहायक बन कर उभरने लगे। इतना ही नहीं, जमायते इस्लामी के यही लड़के पढ़ाई पूरी करने के बाद राज्य के सरकारी स्कूलों में अध्यापक के तौर पर भर्ती होने लगे। जिन दिनों शेख मोहम्मद अब्दुल्ला इंदिरा गांधी से समझौते के चलते दोबारा राज्य के मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने जमायते इस्लामी को परोक्ष रूप से प्रश्रय ही नहीं दिया, बल्कि उनके अनेक स्कूलों का अधिग्रहण करके सैकड़ों जमायती अध्यापकों को सरकारी शिक्षा सिस्टम में घुसने का सुनहरी अवसर प्रदान किया। इन लोगों ने राज्य के पूरे शिक्षा सिस्टम को विषाक्त कर दिया। भारत सरकार ने जब कश्मीर घाटी में आतंकवाद से लड़ने का संकल्प लिया तो उसने अन्य सभी तरीक़ों का इस्तेमाल किया। सुरक्षा उपकरण लिए, सेना को सशक्त किया। सीमा पर तारबंदी करवाई गई। ईंट का ज़वाब पत्थर से देना शुरू किया। बहुत बड़ी संख्या में आतंकवादियों को मारा गया। विधि का शासन स्थापित करने के सभी उपाय किए। यहां तक कि जम्मू-कश्मीर का शेष भारत से मनोवैज्ञानिक तौर पर अलगाव की भावना समाप्त करने के लिए संविधान के अनुच्छेद 370 व अनुच्छेद 35 को भी समाप्त किया। लेकिन हैरानी की बात थी कि किसी ने ज़हर के उस स्रोत की ओर ध्यान नहीं दिया जहां से कश्मीरी युवा के मानस को प्रदूषित किया जा रहा था।
अब जाकर जम्मू-कश्मीर सरकार ने ज़हर के इस स्रोत को पहचाना है और उसको रोकने का प्रयास किया है। राज्य सरकार ने जमायते इस्लामी के लगभग तीन सौ स्कूलों को बंद करने का निर्णय किया है। दरअसल यह काम सरकार को बहुत पहले ही करना चाहिए था। अंग्रेज़ी भाषा में जिसे कहते हैं 'टू निप दी इविल इन दी बड्ड' यानी बुराई या बीमारी को शुरू में ही दबा देना चाहिए। लेकिन आतंकवाद की इस पूरी लड़ाई में जो लगभग पिछले तीन दशकों से चलती आ रही है, किसी ने जमायते इस्लामी के इस ज़हर को मारने की सोची तक नहीं। दरअसल पिछले कुछ वर्षों से जमायत देसी कश्मीरी युवकों की सप्लाई करने की फैक्टरी बन चुकी थी। जमायत का नेतृत्व कश्मीरी मुसलमानों के पास नहीं है। इसका नेतृत्व कश्मीर में बसे हुए अरब, सैयदों व तुर्कों के पास है। गहराई से अध्ययन करने पर पता चलता है कि जमायत के ये स्कूल कश्मीरी युवकों को तो जिहाद के नाम पर तैयार करते हैं, लेकिन अपने बच्चों को इन स्कूलों के पास फटकने भी नहीं देते। वे कश्मीरी मुसलमान युवकों को आतंकवाद में चारे की तरह इस्तेमाल करते हैं। अब राज्य सरकार ने घाटी में आतंकवाद के देसी स्रोत को पकड़ा है। यक़ीन करना चाहिए कि इससे कश्मीर में आतंकवाद को समाप्त करने में सहायता मिलेगी। आतंकवाद के खात्मे के बाद ही राज्य सही अर्थों में विकास कर सकता है।
कुलदीप चंद अग्निहोत्री
वरिष्ठ स्तंभकार
ईमेलः kuldeepagnihotri@gmail.com
By: divyahimachal