शुचिता और संकीर्णता

यह विचित्र है कि जिन मामलों को समाज सदियों से अपने विवेक से संचालित करता आ रहा है, उन मामलों के कुछ लोग स्वयंभू नियामक बन बैठे हैं।

Update: 2021-12-11 01:53 GMT

यह विचित्र है कि जिन मामलों को समाज सदियों से अपने विवेक से संचालित करता आ रहा है, उन मामलों के कुछ लोग स्वयंभू नियामक बन बैठे हैं। किसे क्या खाना-पहनना चाहिए, किससे मैत्री रखनी या नहीं रखनी चाहिए, क्या पढ़ना चाहिए, कौन-सी फिल्म या नाटक देखना या नहीं देखना चाहिए आदि का फरमान सुनाने वाले अक्सर गर्व से सड़कों पर शोरो-गुल मचाते देखे जाते हैं। ऐसे ही समाज के स्वयंभू नियामकों ने गुजरात में मांसाहारी व्यंजनों की बिक्री पर रोक लगाने के लिए अभियान छेड़ दिया।

अहमदाबाद में नगर निगम ने रेहड़ी-पटरी पर अंडे, मांसाहारी व्यंजन बेचने वालों को हटाना शुरू कर दिया। उनकी दुकानों में तोड़-फोड़ की। कच्चा माल जब्त किया या फिर फेंक दिया जाने लगा। तर्क दिया गया कि मांसाहार अस्वच्छ भोजन होता है और इससे लोगों के स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है। इस पर पीड़ित दुकानदारों ने वहां के उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया और अपना दर्द बयान किया।
अनुपस्थित जनप्रतिनिधि
अदालत ने नगर निगम को फटकार लगाते हुए पूछा कि आप होते कौन हैं किसी को यह बताने वाले कि उसे क्या खाना चाहिए और क्या नहीं खाना चाहिए। संविधान किसी के खानपान की रुचियों पर पाबंदी लगाने की इजाजत नहीं देता। यह बात अहमदाबाद के स्वयंभू समाज सुधारकों को कितनी समझ में आई होगी, दावा करना मुश्किल है।
हालांकि ऐसे नियामकों की टोली अकेले गुजरात में सक्रिय नहीं है। कुछ साल पहले महाराष्ट्र में भी पर्यूषण पर्व पर मांस की बिक्री बंद रखने का फरमान सुनाया गया था, जिसे लेकर खासा विवाद हुआ था। लक्षद्वीप में मांस बिक्री को लेकर भी ऐसा ही विवाद हुआ। दिल्ली में एक मांसाहार बेचने वाले को एक शुचिता के स्वयंभू सिपाही ने किसी पर्व वाले दिन अपशब्द कहते हुए धमका डाला था।
देश के विभिन्न हिस्सों में इस तरह के फरमान सुनाए जाते रहे हैं, कभी किसी धार्मिक शहर के नाम पर तो कभी सभ्यता और संस्कृति के नाम पर। खानपान और पहनावा आदि व्यक्तिगत रुचि के मामले हैं। कोई व्यक्ति क्या खाता है, यह उसकी अपनी स्वतंत्रता है। उसमें दखल देने का अधिकार किसी को नहीं है। यह ने केवल संविधान सम्मत है, बल्कि हमारा समाज भी उदारवादी ढंग से इस मसले को देखता रहा है।
मगर ऐसी उदारता शायद अब कम होती जा रही है। जीविकोपार्जन के लिए हर नागरिक को यह अधिकार प्राप्त है कि वह बिना किसी के अधिकार का हनन किए या भूमि कानून का उल्लंघन किए कोई भी रोजगार चुनने को स्वतंत्र है। मगर अहमदाबाद नगर पालिका ने इसे समझने की जहमत नहीं उठाई।
भारत के कई समुदाय और पूरे के पूरे राज्य मुख्य रूप से मांसभोजी हैं। वहां के लोग सदियों से मांस खाते आ रहे हैं। अगर आंकड़े देखें, तो भारत में शाकाहारी लोगों की कुल संख्या के दोगुने से अधिक लोग मांसाहारी हैं। अलग-अलग तरह के मांस पसंद करते हैं। ऐसे में कोई अपनी संकीर्ण धार्मिक आस्था या व्यक्तिगत धारणा के आधार पर पूरे समाज की खानपान की रुचियों को बदलने का प्रयास करे, तो उसे एक लोकतांत्रिक और उदारवादी समाज में विरोध का सामना करना ही पड़गा।
समझा जा सकता है कि अहमदाबाद के नगर निगम ने अपने विवेक से यह अभियान नहीं चलाया होगा। मगर लोकतांत्रिक व्यवस्था की एक इकाई होने के नाते उसके किसी के उकसावे में आकर या उसे खुश करने की नीयत से उठाए गए ऐसे किसी भी कदम को उचित नहीं ठहराया जा सकता।


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