आत्मनिर्भरता के सूत्र
हाल में बिहार में हुए सत्ता परिवर्तन के बाद राज्य की एक पुरानी समस्या फिर मुखर हो उठी है और वह है राज्य सरकार के पास धन या बजट की कमी। बिहार की सरकार का कहना है
Written by जनसत्ता; हाल में बिहार में हुए सत्ता परिवर्तन के बाद राज्य की एक पुरानी समस्या फिर मुखर हो उठी है और वह है राज्य सरकार के पास धन या बजट की कमी। बिहार की सरकार का कहना है कि द्वेश के कारण केंद्र सरकार ने केंद्रीय आबंटन को कम कर दिया है। इस वजह से यहां की कई योजनाओं पर रोक लग गई है, मसलन, पटना मेट्रो रेल प्रोजेक्ट। इसके अतिरिक्त विशेष राज्य का दर्जा और स्पेशल पैकेज की पुरानी मांगों को फिर उठाया जा रहा है। पुरानी पेंशन और नए रोजगार के लिए भी धन की कमी बताई जा रही है।
पर राज्य की सरकार और जनता को यह सोचना चाहिए कि केंद्र पर बिहार की निर्भरता इतनी ज्यादा आखिर क्यों है? ठीक है कि बिहार राज्य को केंद्रीय सहायता मिलनी चाहिए, क्योंकि यह एक पिछड़ा राज्य है, पर यह भी सत्य है कि स्वतंत्रता के 75 वर्ष बीत जाने के बाद भी राजस्व उत्पन्न करने में बिहार आत्मनिर्भर नहीं हो पाया है। अभी तक बिहार की अर्थव्यवस्था प्राथमिक क्षेत्र (कृषि एवं सम्बद्ध) पर ही निर्भर है। यहां की अर्थव्यस्था एक दुष्चक्र में फंसी हुई है। इसका प्रमुख कारण यह है कि बिहार में द्वितीयक क्षेत्रों (विनिर्माण एवं सम्बद्ध) का विकास शून्य है।
ऐसा नहीं है कि विनिर्माण क्षेत्र के विकास की संभावना भी शून्य है। दरअसल, उद्यमिता एवं नेतृत्व की कमी के कारण स्थिति खराब है। कोलकाता-दिल्ली राष्ट्रीय राजमार्ग बिहार के चार जिलों गया, औरंगाबाद, रोहतास, कैमूर से होकर गुजरता है। इन जिलों में विनिर्माण क्लस्टर बनाने की अपार संभावनाएं हैं। इन जिलों की झारखंड राज्य से निकटता कच्चे माल की प्राप्ति को भी सुगम बनाती है। विनिर्माण क्षेत्र लाखों रोजगार उत्पन्न करते हैं, जिससे गरीबी उन्मूलन में भी सहायता मिलेगी। उत्तर बिहार के कई जिलों से होकर भारत का पूर्वी पश्चिमी गलियारा गुजरता है, जिसके आसपास कृषि आधारित उद्योग क्लस्टरों की अपार संभावनाएं हैं।
कुल मिलाकर देखा जाए तो आवश्यकता है कि बिहार में उद्यमियों के लिए एक माहौल तैयार किया जाए, जिससे विनिर्माण क्षेत्र का उचित विकास हो सके। राजस्व एवं रोजगार की वृद्धि से बिहार की अर्थव्यस्था आत्मनिर्भर बन सकती है और स्वत: ही केंद्र पर निर्भरता कम हो सकती है।
'अण्णा का आईना' (संपादकीय, 1 सितंबर) पढ़ा। अण्णा हजारे के आंदोलन से उपजी आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल ने तब रामलीला मैदान में प्रदर्शन और धरने के दौरान कई बातें कहीं थीं। आज राजनीति की मुख्यधारा में आने के बाद वे विचार और राजनीति, सभी सीमित हो गई हैं। इसी से दुखी अण्णा हजारे ने अरविंद केजरीवाल पर शराब नीति को लेकर आईना दिखाने का प्रयास किया है।
अरविंद केजरीवाल ने अण्णा हजारे का इस्तेमाल अपनी सत्ता के लिए किया। सवाल यह है कि जिस तरह से आंदोलन के दौरान विभिन्न प्रकार की बातें की जा रही थीं, उससे ठीक विपरीत अन्य राजनीतिक दलों की तरह आम आदमी पार्टी भी उसी पदचिह्न पर कैसे चलने लगी। खासतौर पर शराब को लेकर जिस तरह की नीति बनाई गई और उसे लागू किया गया, उसने बहुत सारे सरोकारी लोगों को निराश किया। यह बेवजह नहीं है कि इस मसले पर दिल्ली में भारी विवाद खड़ा हो गया है। आज हालत यह है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान चलाने वाली आम आदमी पार्टी के नेता ही भ्रष्टाचार के आरोपों में कठघरे में खड़े हो रहे हैं।
शिक्षा और स्वास्थ्य पर विभिन्न प्रकार के कार्य करने का दावा करने वाली दिल्ली सरकार आखिर शराब की नीतियों में किस प्रकार शामिल हो गई कि उसे समाज और नैतिकता का खयाल नहीं रह? दिल्ली के विभिन्न सरकारी कार्यालयों में बाबा साहब भीमराव आंबेडकर और भगत सिंह की मूर्ति लगाने वाली आम आदमी पार्टी क्या इन दोनों महापुरुषों के विचारधाराएं, विचारनीति तथा उनके बताए हुए मार्ग पर चलने का दावा कर सकती है?