Russia Ukraine War : भारत के लिए यूक्रेन संकट इस समय किसी भी चुनावी प्रक्रिया से अहम है

भारत के लिए यूक्रेन संकट इस समय किसी भी चुनावी प्रक्रिया से अहम है

Update: 2022-03-01 15:31 GMT

शंभूनाथ शुक्ल

यूक्रेन (Ukraine) और रूस (Russia) की लड़ाई में कहीं ना कहीं उत्तर प्रदेश विधानसभा (UP Assembly Election) में लोकतंत्र की अपरिहार्य लड़ाई गुम हो गई है. प्रिंट मीडिया ने यूपी चुनाव को आख़िरी पन्नों पर और टीवी न्यूज़ चैनलों ने यूपी चुनाव पर स्टिकर चला कर छुट्टी पा ली. जबकि मोटे तौर पर यूक्रेन-रूस युद्ध में भारत का सीधा वास्ता नहीं है. न ही इससे भारत के आंतरिक मामलों में कोई उलट-फेर होगी. यह कुछ उसी तरह का युद्ध है, जैसा कि फ़िलिस्तीन और इज़राइल का या सीरिया के अंदर का क्लेश. लेकिन यह युद्ध जिस तरह ग्लोबल स्वरूप लेता जा रहा है. वह अवश्य ख़तरनाक है. आज विश्व अब दो ध्रुवीय है. अर्थात् या तो आप इस पाले में हो या उस पाले में. इसलिए चाह कर भी आप बच नहीं सकते.
यूक्रेन के समक्ष रूस निश्चय ही शक्तिशाली है लेकिन यूक्रेन को कमजोर मान लेना भी भूल होगी. यूरोप में जितने भी देश हैं उनमें नस्ल-भेद ज़बरदस्त है. रूस के अंदर यूक्रेन की नस्ल के गोरे हैं और यूक्रेन में रूसी नस्ल के. यूरोप में राष्ट्रवाद इसी नस्लवाद से पनपा. विशुद्ध रूसी नस्ल के ब्लादीमीर पुतिन चाहते हैं, कि रूस का पुराना वैभव लौटे. और यूक्रेन रूस के साथ रहे क्योंकि यूक्रेन 1991 के पहले सोवियत संघ का हिस्सा था. किंतु यह भी सच है, कि यूक्रेन कुछ वर्षों को छोड़ कर रूस का हिस्सा नहीं रहा. वह पूर्वी यूरोप का हिस्सा है और यूरोप के लोग रूस को यूरोपीय देश नहीं मानते. वे रूस को यूरेशियाई देश ही मानते हैं. इसलिए रूसियों के ख़िलाफ़ एक मानसिकता यूरोप में रहती ही है.
मौजूदा झगड़े के बीच भाषा है, अहंकार है और रूस की क्षुब्ध मानसिकता भी है
यूरोप के सारे देशों में विशुद्ध नस्ल वाले गोरे, जिन्हें आर्य कहा गया, कोई बहुत नहीं हैं, लेकिन उनकी सुप्रीमेसी अवश्य क़ायम है. जैसे जर्मन अपने को विशुद्ध गोरी नस्ल का आर्य मानते हैं. क्योंकि यह थ्योरी मैक्स मुलर ने रखी थी. उसने स्कानडिनविया को आर्य नस्ल का मूल स्थान माना. इसके पूर्व रूस को आर्यों का मूल स्थान कहा जाता था.
राहुल सांकृत्यायन ने अपनी पुस्तक 'वोल्गा से गंगा' में रूस को ही आर्यों की उत्पत्ति का स्थान मान कर लिखा है. बाद में मुलर ने कहा, आर्य नस्ल का सिद्धांत एंथ्रोपोलोज़ी का नहीं दरअसल भाषा समूहों का है, जिसमें पूर्व में हिंद-ईरानी भाषा समूह थे और पश्चिम में यूरोपीय. जिनमें बाल्टिक देशों वाले स्लाव हैं और जर्मन तथा अन्य. लेकिन सत्य यह है कि मानव जाति का विकास मिक्स रेस से ही होता है. मगर राजनेता अपनी अंध राष्ट्रवादिता के कारण यह बात नहीं समझ पाते.
एंथ्रोपोलोज़ी के अनुसार यूरोप में कुल 85 प्रकार की मानव नस्लें हैं. इनमें सबसे अधिक रूसी और फिर जर्मन, इटैलियन, फ़्रेंच और इंग्लिश. इनके बाद यूक्रेन हैं. कुछ नस्लों की आबादी तो सैकड़ा में ही सीमित है. किंतु आज तक यूरोप ने कोई स्पष्ट अल्पसंख्यक नीति नहीं बनाई. नतीजा यह है कि देशों के अंदर ही झगड़े होते रहते हैं. हालांकि मौजूदा झगड़े के बीच भाषा है, अहंकार है और रूस की क्षुब्ध मानसिकता भी. मज़ेदार तथ्य यह भी है, कि ख़ुद यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेंस्की रूसी ही बोलते हैं.
पिछले 8 साल से वहां गृह युद्ध जैसी स्थिति है
दरअसल ज़ार के समय रूस के अंतर्गत जो देश थे, उनमें यूक्रेन भी था. बाद में जब बोल्शेविक क्रांति हुई तब रूस के सभी 15 घटक देशों के बीच एक सहमति बनी थी। इसके अनुसार मास्को में एक सुप्रीम सोवियत (संसद) होगी और शेष देशों की अपनी. मगर मौद्रिक नीति, विदेश नीति, आंतरिक सुरक्षा की नीति और बाह्य सुरक्षा का भार सुप्रीम सोवियत के पास रहेगी. जिन्हें सोवियत संघ (USSR) कहा जाता था. मगर मिखाइल गोर्बाचेव के समय 25 दिसंबर 1991 को सोवियत संघ का विघटन हो गया और ये सारे देश अलग हो गए.
ये देश हैं, तुर्कमेनिस्तान, कजाकिस्तान, ताजिकिस्तान, किर्गिस्तान, उज़्बेकिस्तान, लातविया, लिथुवानिया, मालदोवा, इस्टोनिया, जार्जिया, बेलारूस, रुस, आर्मेनिया, अजरबैज़ान, आर्मीनिया, अजरबैजान, बेलारूस, इस्टोनिया, जॉर्जिया, कजाकिस्तान, कीर्गिस्तान, लातविया, लिथुआनिया, मालदोवा, रूस, ताजिकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान और यूक्रेन. इनमें से मध्य एशिया के कुछ देश ऐसे हैं, जिनके चारों तरफ़ रूसी सेना तैनात रहती है. छह देशों के साथ ऐसी संधि रूस ने की थी. रूस के अलावा बाक़ी के देश हैं, आर्मेनिया, बेलारूस, कजाकिस्तान, किर्गिस्तान और ताजिकिस्तान. इस संधि को कलेक्टिव सिक्यूरिटी ट्रीटी ऑर्गेनाइजेशन (CSTO) कहते हैं.
मगर यूक्रेन की स्थिति सबसे अलग है. इसके एक छोर पर रूस है और दूसरे छोर पर यूरोप. यानी दोनों के दबाव उसे झेलने पड़ते हैं. रूस इस देश के भीतर भी खट-पट करवाता रहता है. पिछले 8 साल से वहां गृह युद्ध जैसी स्थिति है. इसकी वजह है कि जेलेंस्की के पहले यूक्रेन के जो राष्ट्रपति थे वे रूस समर्थक थे और रूस उन्हें उकसाता भी था. उन्हीं के समय क्रीमिया को रूस ने अपने साथ मिला लिया था. इसलिए दोनों में तनातनी थी. ऊपर से यूक्रेन ने नाटो में शामिल होने का निर्णय लिया. रूस के लिए यह नाक़ाबिले बर्दाश्त था. उसने यूक्रेन को चेताया भी परंतु वह अड़ा था. यूक्रेन का नाटो में जाने के फ़ैसले का साफ़ अर्थ था कि अमेरिका को रूस की सीमा के पास अपनी मिसाइलें तैनात करने का मौक़ा मिल जाना. यह रूस क़तई पसंद नहीं करेगा क्योंकि दुनिया की सैन्य ताक़तों में वह अमेरिका के बराबर है.
यह अहंकार की, नस्लवादिता की और अंध राष्ट्रवाद की लड़ाई है
एक तरह से यह अहंकार की, नस्लवादिता की और अंध राष्ट्रवाद की लड़ाई है. छह दिन यूक्रेन-रूस युद्ध को हो चुके हैं और अभी तक युद्ध समाप्ति के कोई लक्षण नज़र नहीं आ रहे हैं. यूक्रेन का खारकीव शहर नष्ट हो चुका है और अब बारी राजधानी कीव की है. रूसी राष्ट्रपति पुतिन मदांध हो चुके हैं और यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोडिमिर जेलेंस्की भी युद्ध विराम के संकेत नहीं दे रहे. यूरोपियन यूनियन की मीटिंग में उन्होंने युद्ध के ही संकेत दिए. उधर यूरोपियन यूनियन यूक्रेन को अपना सदस्य बनाने के बारे में सहमति बना रही है. ऐसी स्थिति में युद्ध यदि फैला तो दुनिया के तमाम देशों को भी इसमें उतरना पड़ेगा.
मंगलवार को खारकीव में एक भारतीय छात्र की गोलीबारी में मौत हो गई. अब भारत कब तक तटस्थ बना रहेगा. अमेरिका, कनाडा और यूरोप ने रूस पर कई प्रतिबंध लगाने का फ़ैसला किया है. सब ने अपने-अपने एयर-स्पेश बंद कर दिए हैं. संभव है रूस को संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद से हटाने की कोशिश फिर शुरू हो. चार दिन पहले तो भारत तटस्थ रहा था, लेकिन आगे क्या होगा? अभी तक उसने रूस के विरुद्ध जाने का फ़ैसला नहीं किया है.
भारत के समक्ष एक बड़ी परेशानी चीन और पाकिस्तान की है. ये दोनों उसके साथ मित्रता का व्यवहार नहीं करते. और अगर रूस भी रूठ गया तो एशिया में वह अकेला पड़ जाएगा. यूं भी नाभिकीय हथियारों के मामले में भारत पाकिस्तान से पीछे है. प्राप्त सूत्रों के अनुसार पाकिस्तान के पास 165 एटम बम हैं जबकि भारत के पास 160 ही हैं. एशिया में शक्ति संतुलन बनाए रखने के लिए उसे रूस का साथ छोड़ना मंहगा पड़ेगा उधर युद्ध के फैलने की स्थिति में उसे दुनिया भर में फैले अपने ढाई करोड़ प्रवासियों को भारत में बुलाने की व्यवस्था करनी होगी, जो अमेरिका की मदद के बिना असंभव है. कुल मिला कर भारत के लिए यूक्रेन संकट इस समय किसी भी चुनावी प्रक्रिया से अहम है. यह अवसर किसी प्रदेश का चुनाव जीतने या हारने का नहीं बल्कि इस महायुद्ध में अपनी स्थिति स्पष्ट करने का है. भले यह युद्ध दो राष्ट्रवादियों के अहंकार का हो, लेकिन इसकी जद में पूरा विश्व आ गया है. जाने-अनजाने हमें भी इससे निपटना पड़ेगा. इसलिए प्रार्थना करनी चाहिए कि यह युद्ध समाप्त हो जाए. काम से काम दुनिया में शक्ति-संतुलन बना रहे.
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