शहीदों की याद: पूरा देश क्रांतिकारी वैशम्पायन का घर था

इन दिनों उनकी बड़ी बेटी डॉ. नंदिनी रैडे वैशम्पायन उनकी स्मृतियां लिख रही हैं।

Update: 2022-02-11 01:47 GMT

बांदा में क्रांतिकारी विश्वनाथ वैशम्पायन की खोज करना हमारे लिए नितांत कठिन है। यहां शहीद चंद्रशेखर आजाद के इस विश्वस्त साथी को कोई नहीं जानता। जन्म उनका 28 नवंबर, 1910 को इसी बस्ती में हुआ था, जब उनके पिता चिकित्सा विभाग में नौकरी के सिलसिले में इस जिले के कर्वी कस्बे से यहां आकर बस गए थे। उनका परिवार महाराष्ट्र का था। उनके पूर्वज कालिंजर युद्ध के समय पेशवाओं के साथ कर्वी चले आए, जहां आज भी उनका मकान है।

यहां रहने वाली एक मराठी महिला श्रीमती जोग ने हमें बताया कि वैशम्पायन के परिवार की बहुत पहले यहां आने की उन्हें याद है। वैशम्पायन जी की शुरुआती शिक्षा बांदा में हुई। यहां वह किस मकान में रहते थे, इसका अता-पता हमें ढूंढने पर भी नहीं मिला। पिता का तबादला झांसी होने पर वहां की सरस्वती पाठशाला में उन्हें दाखिल कराया गया। झांसी में वैशम्पायन को मास्टर रुद्रनारायण का साथ मिला और वह क्रांतिकारी दल के नजदीक आ गए। वर्ष 1925 के काकोरी ऐक्शन के बाद फरारी के दिनों में आजाद का केंद्र झांसी और उसके इर्द-गिर्द का इलाका बना।
उन दिनों शचींद्रनाथ बख्शी मुकरियाना मुहल्ले में रहकर संगठन का काम देख रहे थे। उन्होंने ही आजाद से वैशम्पायन का परिचय कराया। क्रांतिकारी दल में वैशम्पायन की सक्रियता का नतीजा यह हुआ कि उनके पिता को सरकारी नौकरी छोड़नी पड़ी। इस पीड़ा में उनकी आंखें भी चली गईं। आजाद को झांसी बहुत पसंद आई। इस शहर ने उन्हें लंबे समय तक सुरक्षित जीवन दिया, जिसमें मास्टर साहब, सदाशिव, भगवानदास और वैशम्पायन का बहुत बड़ा हाथ था। इधर की छोटी रियासतें खनियाधाना, दतिया, बिजावर और भोपाल जैसे केंद्र क्रांतिकारी दल के संचालन में उनके बड़े सहयोगी बने। काकोरी मामले में धर-पकड़़ के समय वैशम्पायन अपने चाचा के घर प्रतापगढ़ में थे। सदाशिव से झांसी का माहौल पता लगते ही वह ग्वालियर के लिए रवाना हो गए, जहां उनका ननिहाल था। इसी शहर में गजानन सदाशिव पोतदार थे, पर उनसे मिलना कठिन था।
यहां आजाद आए, तो देखते ही उन्होंने वैशम्पायन से कहा, 'अब घर-वर सब भूल जाओ। क्रांतिकारी दल में सक्रिय जीवन का यहां से प्रारंभ है। कठिनाइयां पग-पग पर होंगी, उनसे घबराना नहीं।' वैशम्पायन की जिस जिंदगी की शुरुआत होने वाली थी, उसमें जोखिम थे। आजाद के नेतृत्व में ग्वालियर दल का केंद्र बन गया। यहां वे जनकगंज के घर में बम बनाते। इसी सिलसिले में गजानन और वैशम्पायन पुलिस के हाथ आ गए। गजानन को पुलिस ने बहुत लालच दिया, पर वह झुके नहीं। मुकदमे में दोनों छूट गए, पर वैशम्पायन को कुछ समय तक जेल में बंद रखा गया। आजाद ने अपना ध्यान अब दक्षिण की ओर लगाना शुरू कर दिया था। इसी मकसद से उन्होंने भगवानदास और सदाशिव को अकोला रवाना किया, पर वे भुसावल स्टेशन पर हथियारों सहित गिरफ्तार हो गए।
वैशम्पायन ने ही आजाद को अखबार की खबर पढ़कर सूचना दी, तो वह सन्नाटे में आ गए और बोले, 'बच्चन (दल में वैशम्पायन का नाम), अब रह गए हम दो। वे तो गए।' वहां से वैशम्पायन किसी तरह कानपुर आए। भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त केंद्रीय असेंबली में बम फेंकने के बाद गिरफ्तार हो चुके थे। उन पर लाहौर षड्यंत्र केस चला, तो आजाद और वैशम्पायन सहित दल के अनेक सदस्य उन्हें जेल से छुड़ाने के लिए लाहौर में जमा हुए, पर इसी कोशिश में भगवतीचरण बम परीक्षण करते हुए रावी तट पर शहीद हो गए। वैशम्पायन उस घटना के सबसे बड़े साक्षी थे। तब दिल्ली और फिर कानपुर क्रांतिकारियों का केंद्र
बना, जहां रामचंद्र मुसद्दी का घर आजाद का आश्रय-स्थल हो गया।
कानपुर में शालिगराम शुक्ल की शहादत और दिल्ली केंद्र के कैलाशपति का मुखबिर बन जाना आजाद के लिए बड़ा झटका था। इस बीच वह और वैशम्पायन इलाहाबाद और कानपुर के बीच आते-जाते रहे, पर 11 फरवरी, 1931 को कुली बाजार में गद्दारों ने वैशम्पायन को गिरफ्तार करा दिया। उसके दो पखवाड़े बाद 27 फरवरी को इलाहाबाद में आजाद भी सन्मुख युद्ध में मारे गए। वैशम्पायन पर दिल्ली षड्यंत्र केस चला। मेरे पास एक तस्वीर है, जिसमें 19 मार्च, 1939 को दिल्ली से छूटने के बाद वह क्रांतिकारी भवानी सहाय और कॉमरेड ज्वाला प्रसाद शर्मा के साथ दिखाई दे रहे हैं। इसके बाद उन्होंने भावरा (म.प्र.) जाकर आजाद की
मां जगरानी देवी के दर्शन किए और वहां से लौटकर एक अनोखा यादनामा दर्ज किया। उन्हें अनेक भाषाओं का ज्ञान था। जेल में उन्होंने बांग्ला और मराठी पुस्तकों के अनुवाद भी किए। बांग्ला लेखिका प्रभावती सरस्वती के दो उपन्यासों का अनुवाद किया। प्रसिद्ध मराठी उपन्यासकार हरिनारायण आप्टे के ऐतिहासिक उपन्यास उष:काल का उनका संक्षिप्त अनुवाद भी महाराष्ट्र प्रभात में छपा। मराठी लेखिका गीता साने की कृति चंबलची दस्युभूमि का भी उन्होंने हिंदी अनुवाद किया। उनका सबसे महत्वपूर्ण कार्य चंद्रशेखर आजाद के जीवन और मृत्यु के रहस्यों से पर्दा उठाने वाली तीन भागों में उनकी वृहद् जीवनी है।
वह रायपुर और धमतरी में भी रहे। 20 अक्तूबर, 1967 को जब वह हमसे विदा हुए, तब बहुत कम लोगों ने जाना कि चंद्रशेकर आजाद का सर्वाधिक विश्वासपात्र व्यक्ति हमसे दूर चला गया। उनकी पत्नी ललिता जी ने उनका यादनामा लिखा है। इन दिनों उनकी बड़ी बेटी डॉ. नंदिनी रैडे वैशम्पायन उनकी स्मृतियां लिख रही हैं।

सोर्स: अमर उजाला 

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