अमेरिका पर आर्थिक निर्भरता कम हो : मजबूत भारतीय अर्थव्यवस्था और जरूरी क्रांतिकारी बदलाव की दरकार

तो निश्चित रूप से इससे आर्थिक विकास को एक तीव्र गति मिल सकती।

Update: 2022-10-13 01:42 GMT
इन दिनों अमेरिकी डॉलर के मुकाबले भारतीय रुपये की लगातार गिरावट चर्चा का विषय है। चालू वित्तीय वर्ष के प्रथम छह माह में रुपया तकरीबन आठ प्रतिशत की गिरावट दर्ज कर चुका है। अप्रैल के प्रथम दिन यह 76 रुपये के आसपास था, जो अक्तूबर के प्रथम सप्ताह में 82 से ऊपर रहा है। भारतीय रुपये का डॉलर के मुकाबले लगातार महंगा होना निश्चित रूप से बहुत आर्थिक समस्याओं को जन्म दे रहा है। मसलन, हमारे आयात महंगे हो रहे हैं, जिसका प्रत्यक्ष प्रभाव घरेलू बाजार में महंगाई को भी बढ़ा रहा है।
इन दिनों त्योहारों का मौसम चल रहा है और इस दौरान यदि खरीदारी कम रही, तो उसके विपरीत असर देखने को मिलेंगे। कंपनियों के मुनाफे में कमी होगी व कई वैश्विक रेटिंग एजेंसी भारत को मंदी के कगार पर भी घोषित कर देंगी। इससे विदेशी निवेशकों में घबराहट बढ़ेगी और अंततः स्टॉक मार्केट व विदेशी मुद्रा भंडार के संग्रहण में भी कमी देखने को मिल सकती है। आज अमेरिका में महंगाई पिछले 40 वर्षों के उच्चतम स्तर पर है।
इसी कारण अमेरिका के केंद्रीय बैंक ने चालू वित्तीय वर्ष में अब तक पांच दफा ब्याज दरों में बढ़ोतरी की है तथा वर्ष 2008 के बाद पहली बार यह तीन से सवा तीन प्रतिशत के बीच में है। कई विशेषज्ञों का अनुमान है कि दिसंबर, 2022 से पहले इस रेट के चार प्रतिशत से ऊपर जाने के अनुमान हैं। अमेरिकी डॉलर के माध्यम से तकरीबन विश्व का 60 प्रतिशत अंतरराष्ट्रीय व्यापार संचालित होता है तथा भारत की डॉलर पर निर्भरता भी अधिक है, चाहे कच्चे तेल की खरीदारी का भुगतान हो या विदेशी निवेशकों के माध्यम से भारत की कंपनियों में निवेश हो।
क्या हमारी अर्थव्यवस्था सदैव अमेरिकी बैंक की नीतियों से ही प्रभावित होती रहेगी? समय आ गया है, जब भारतीय अर्थव्यवस्था को तेजी से अपनी नीतियों में बदलाव लाना चाहिए, ताकि अमेरिकी आर्थिक नीतियों का भारत पर कम प्रभाव पड़े। इस संदर्भ में 70 के दशक के जापान की अर्थव्यवस्था को उदाहरण के तौर पर देखा जा सकता है। मध्य पूर्व के खाड़ी देशों की एकाधिकार की नीतियों के चलते जब पूरा विश्व तेल की आर्थिक संकट से गुजर रहा था, तब जापान ने अपनी अर्थव्यवस्था में क्रांतिकारी बदलाव किया।
तब जापानी अर्थव्यवस्था भारी विनिर्माण क्षेत्र के उत्पादक के तौर पर पहचानी जाती थी। परिणामस्वरूप कच्चे तेल की मांग अत्याधिक थी और जापान इसके लिए 100 प्रतिशत आयात पर निर्भर था। जापान ने इस समस्या का सही आकलन किया और उत्पादन के क्षेत्र में भारी क्षेत्र से छोटे व हल्के विनिर्माण क्षेत्र के उद्योग-धंधों का रुख किया। उदाहरण के तौर पर, उन दिनों टोयोटा ने छोटी कारें बनाईं, जो पूरे विश्व में बिकीं।
भारत में यह बदलाव सर्विस क्षेत्र के और अधिक विस्तार से संभव है। वर्तमान समय में भारत की अर्थव्यवस्था में 50 प्रतिशत का अंशदान सर्विस क्षेत्र के माध्यम से आता है, जिसमें मुख्यतः वित्तीय क्षेत्र व सूचना प्रौद्योगिकी (आईटी) प्रमुख है। आईटी 250 अरब अमेरिकी डॉलर का निर्यात करता है, जो जीडीपी का करीब सात से आठ प्रतिशत है। विभिन्न रिपोर्टों के आंकड़े इस बात को स्पष्ट कर रहे हैं कि यूरोप तथा अमेरिका में श्रमिकों की संख्या का बहुत अभाव है, इसलिए वे भारतीयों के माध्यम से आउटसोर्स करना चाहते हैं।
अगर आगामी एक दशक में आउटसोर्सिंग के माध्यम से विश्व के विकसित मुल्कों के सर्विस क्षेत्र के मात्र 10 प्रतिशत आर्थिक स्तर को ही प्राप्त करने का लक्ष्य रखा जाए, जो कि 15 खरब डॉलर के बराबर हो सकता है, तो उससे हमारे आर्थिक विकास में बहुत ज्यादा तेजी देखने को मिलेगी व तीन से चार प्रतिशत जीडीपी के बढ़ने की संभावनाएं भी रहेंगी।
दूसरे बदलाव में, आम भारतीयों को वित्तीय बचत के प्रति अधिक आकर्षित करना होगा। वर्तमान में भारतीयों की घरेलू बचत तकरीबन 100 खरब अमेरिकी डॉलर के बराबर है, जो जीडीपी के तीन गुना के बराबर है। अगर भारतीयों की कुल घरेलू बचत का दस खरब अमेरिकी डॉलर प्रत्यक्ष रूप से भारतीय स्टॉक मार्केट में वित्तीय निवेश, हो तो निश्चित रूप से इससे आर्थिक विकास को एक तीव्र गति मिल सकती।

सोर्स: अमर उजाला 

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