प्रतिक्रियात्मक चुनाव

हिमाचल के उपचुनावों का विजय घोष अंततः ऐसा ईको सिस्टम निर्मित करता है

Update: 2021-11-03 18:59 GMT

हिमाचल के उपचुनावों का विजय घोष अंततः ऐसा ईको सिस्टम निर्मित करता है, जिसकी हर भूमिका में आम जनता अपने विषयों की पैरवी करती है। यही वजह है कि हार के बाद मुख्यमंत्री ने साफगोई से स्वीकार कर लिया कि कहीं महंगाई का तड़का और कहीं भीतरघात का धुआं रहा है। जाहिर तौर पर हिमाचल की जनता अपने भीतर राष्ट्रीय संवेदना को उद्वेलित करते हुए यह कह रही है कि आम आदमी की जरूरतें पूरी करना बेहद कठिन और दुर्लभ होता जा रहा है। हिमाचल की परिस्थितियों में चुनावों का हर पहलू सुविचारित इसलिए भी माना जाता है क्योंकि यह प्रदेश मध्यमवर्गीय परिवारों की छत के नीचे अपनी हसरतें और उम्मीदें पालता है। मध्यमवर्ग की मान्यताएं और मूल्य हमेशा तरक्की पसंद व परिवर्तनशील रहते हैं और इसीलिए हर चुनाव के आलेख पूरी तरह पढ़े जाते हैं। इस चुनाव की निराशाजनक परिणति में सरकार को यह सोचना होगा कि आखिर हर घर के चूल्हे पर चर्चा क्या रही। हिमाचल नौकरीपेशा है और अधिकतर मां-बाप अपने अस्तित्व की पहचान में औलाद की नौकरी को अहमियत देते हैं यानी हर घर बहुत कुछ कहता है और कहने की स्पष्टता में चुनावी पहर का इस्तेमाल करता है।

यहां सरकारों की विडंबना यह रही कि रोजगार के अवसर पैदा करने का मुकाम सरकारी नौकरी बना दिया गया या शिक्षा का हर आयाम नौकरी की महत्त्वाकांक्षा से जोड़ दिया गया। बेशक जयराम सरकार ने इन्वेस्टर मीट के बहाने निजी निवेश और निजी क्षेत्र के रोजगार का आह्वान किया, लेकिन न स्थानीय या राज्य स्तरीय क्षमता का दोहन हुआ और न ही स्वरोजगार के लिए ढांचागत पहल हुई। सत्ता के अक्स में सरकारी लाभ बांटती सरकारें या तो गरीब या अति गरीब बने रहने को प्रेरित करती हैं या सत्ता के लाभ में राजनीति की पींगें परवान चढ़ती हैं। इसलिए युवाओं का एक वर्ग सत्ता के प्रभाव में जब लाभार्थी होने लगता है तो प्रत्यक्ष या परोक्ष राजनीति के तहत चयन प्रक्रिया शुरू हो जाती है। कमोबेश हर सरकार के समय और हर विधायक की सीमा के भीतर सरकारी बजट से परोक्ष फायदे गिने जाते हैं। इसी तरह हर समर्थक पहले सत्ता के लाभ गिनता है और इससे हासिल प्रभाव से नेता बनता है। हर नेता अपने भीतर की महत्त्वाकांक्षा को लेकर बगल में छुरी रखता है और समय आने पर इसका इस्तेमाल भी करता है। मुख्यमंत्री ने भीतरघात की आशंका को छुपाया नहीं और यह प्रत्यक्ष रूप से जाहिर है कि भाजपा के विभीषण लंका ढहाने में सक्रिय रहे। मतदाता का एक पक्ष नोटा में भी जाहिर हुआ है। यह महज आक्रोश नहीं उपद्रव सरीखा गुस्सा है जो राजनीतिक चरित्र को नकार रहा है।
भले ही सत्ता की चमक में नेता अपने प्रभाव को सत्य मानते हैं, लेकिन बढ़ता नोटा का दायरा बता रहा है कि कितनी शाखाओं पर उल्लू बैठे हैं। अगर सात मंत्री चुनावी दौड़ में अपनी सरकार को सशक्त नहीं कर पाए या तमाम विधायक घुटनों के बल चले, तो यह कथनी और करनी का स्पष्ट अंतर भी तो है। अब सवाल यह है कि चुनाव परिणामों से मलिन छवि को बचाने के लिए भाजपा को क्या करना होगा। क्या उत्तराखंड जैसी स्थितियों में हिमाचल भाजपा के भीतर भी कोई हड़कंप मचेगा या पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा अपने गृह राज्य की हार का नजला किसी के ऊपर गिराएंगे। यह इसलिए भी कि देश की तीन लोकसभा और विधानसभा की 29 सीटों पर हुए उपचुनावों का गणित मुखर है और हिमाचल के वर्तमान नतीजे राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा को अपमानित करते हैं। सरकार के अंतिम वर्ष में जनता की हर फरमाइश को पूरा करना कठिन होता जाएगा, जबकि परिणामों की निराशा से कई समर्थक हतोत्साहित होंगे। सरकार के सिक्के कितने उछलेंगे या शेष कार्यकाल की मेहनत में वोटर वर्तमान सरकार को लोकतांत्रिक मजदूरी दे देगा। मिशन रिपीट के मोड में अगला साल ऐसी कर्मठता अभिलषित करता है, जहां संगठन, सरकार, सरकार के ओहदेदार, ब्यूरोक्रेसी, अफसरशाही और कर्मचारी वर्ग को एकजुट होकर ये घाव मिटाने हैं। कम से कम उपचुनावों के परिणाम ने सरकार और संगठन के बीच कई प्रभावशाली दीवारें गिरा दी हैं, देखें आगे क्या होता है।

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