राम की अयोध्या के सियासी अखाड़े में 'सब धान 22 पसेरी' या बात कुछ और है?

भगवान राम को लेकर को लेकर अयोध्या कोई पहली बार राजनीतिक दलों के केंद्र में नहीं है.

Update: 2021-10-30 09:06 GMT

प्रवीण कुमार  साल 2022 में होने वाले उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव (Uttar Pradesh Assembly Elections) को लेकर राजनीति गरमाने लगी है. और इस गरमाहट के बीच भगवान राम (Lord Ram) की अयोध्या (Ayodhya) एक बार फिर से सभी राजनीतिक दलों के केंद्र में आ गई है. कुछ दलों को लगता है कि अयोध्या बड़ा चुनावी फैक्टर बनने जा रहा है, तो किसी के लिए यह लंबे वक्त से राजनीति की प्रयोगशाला के मानिंद है. हालांकि अभी इस बात की कोई गारंटी नहीं कि यूपी की चुनावी बिसात पर अयोध्या का राम मंदिर बड़ा मुद्दा बनने जा रहा है. लेकिन सभी दलों के नेता लोग अयोध्या की तरफ जिस तरह से दौड़ लगाने लगे हैं, माना जा सकता है कि ना सिर्फ यूपी चुनाव बल्कि 2024 के लोकसभा चुनाव की पटकथा भी अयोध्या की भूमि से ही लिखी जाएगी.

दरअसल इस धर्मनगरी में किसी भी तरह की राजनीतिक हलचल का न सिर्फ उत्तर प्रदेश में बल्कि पूरे देश पर प्रभाव पड़ता है. लिहाजा सभी दलों के नेता राम-नाम की आस्था वाली इस नगरी से ही अपने-अपने वोट बैंक को साधने की सियासत में जुटने लगे हैं.
भगवान राम की अयोध्या के रण में कौन-कौन?
बड़े जोर की चर्चा है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 3 नवंबर 2021 को राम की अयोध्या में दीपोत्सव कार्यक्रम में शिरकत करेंगे. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के अयोध्या से चुनाव लड़ने की अटकलें भी चल रही हैं. समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश यादव भी कहने लगे हैं कि वह विष्णु के सभी अवतारों को मानते हैं, जब राम मंदिर बनेगा तो पत्नी-बच्चों संग दर्शन करने जरूर जाएंगे.
बीएसपी प्रमुख मायावती भी उनसे दो कदम आगे बढ़कर राम पथ पर चल रही हैं. यूपी के 18 मंडलों में ब्राह्मण सम्मेलन के आयोजन की शुरुआत अयोध्या से करके बीएसपी ने ब्राह्मण वोटों को साधने की कोशिश की है. कहते हैं कि इस सम्मेलन में जय श्रीराम के जयकारे भी खूब गूंजे. आईएमआईएम के अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी ने भी यूपी में अपनी पार्टी के चुनाव प्रचार का आगाज अयोध्या में रैली से किया है. कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा भी अयोध्या हो आई हैं. और पिछले दिनों आम आदमी पार्टी के सर्वेसर्वा तथा दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल जब अयोध्या पहुंचे तो राजनीति का पारा अचानक से ऊपर चढ़ गया. जब सीएम योगी को लगा कि राम के नाम को लेकर बीजेपी का पेटेंट खतरे में है तो वो भी भड़ासी बन गए.
बीजेपी के लिए 'जय श्रीराम' को बचाने की चुनौती
बहुत सारे सियासी पंडितों, राजनीतिक विश्लेषकों को लगता है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद अयोध्या और राम मंदिर का मुद्दा चुनावी मुद्दा नहीं बन पाएगा. लेकिन चूंकि बीजेपी की राजनीति का आधार ही अयोध्या में भव्य राम मंदिर का निर्माण है जो आने वाले दो-ढाई वर्षों में अपना आकार ले लेगा तो अब यह कैसे संभव हो सकता है कि उसे भुला दिया जाए. गणना करने वाले बताते हैं कि यूपी के सीएम पद पर ताजपोशी के बाद बीते साढ़े चार वर्षों में योगी आदित्यनाथ 20 से अधिक बार अयोध्या का दौरा कर चुके हैं. अयोध्या से ही उनके चुनाव लड़ने की अटकलें भी लगाईं जा रही हैं.
राम-राम का उच्चारण जो कभी सामाजिक अभिवादन के तौर पर लोगों में रचा-बसा था, उसे जय श्रीराम में बदलकर राष्ट्रवाद और हिन्दू राष्ट्र की परिकल्पना से जोड़ने में बीजेपी ने बहुत मेहनत की है. इसके लिए जिस अयोध्या की जमीन को बीजेपी ने अपना राजनीतिक हथियार बनाया उस जमीन को अन्य विरोधी दलों के अतिक्रमण से बचाना आज उसके लिए एक बड़ी चुनौती बन गई है. चुनौती इसलिए नहीं कि अयोध्या में राम मंदिर की लड़ाई में बीजेपी के योगदान को कोई कमतर आंक रहा है.
चुनौती इस रूप में देखी जा रही है कि 1985 में राम मंदिर का ताला किसने खुलवाया था? चुनाव आते-आते विवादित स्थल के पास राम मंदिर का शिलान्यास किसने करवाया? ये अलग बात है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के तात्कालिक फैसलों को भुनाने के लिए उनकी पार्टी कांग्रेस की जमीन दरक चुकी है. लेकिन जिस तरीके से राजीव की बेटी प्रियंका गांधी ने यूपी के रण में कांग्रेस की कमान संभाली हैं, इंकार नहीं किया जा सकता है कि 2024 आते-आते वो इस मुद्दे को लपक न लें.
पर इससे भी बड़ी चुनौती बीजेपी के लिए ये है कि वह भी जानती है कि भगवान राम सर्वव्यापी हैं, आस्था के प्रतीक हैं, राम पर तर्क-वितर्क नहीं किया जा सकता. मर्यादा पुरुषोत्तम राम के रूप में एक राजा के तौर पर उनकी ख्याति रही है. चूंकि राजा को किसी एक धर्म, संप्रदाय या किसी एक राजनीतिक दल के पहरूए के तौर पर पेश कर नहीं सकते. राम को किसी के भी मानस का हिस्सा बनने से आप कैसे रोक सकते हैं? लिहाजा इस पूरे चक्रव्यूह को भेदना ऐसे वक्त में बीजेपी के लिए एक बड़ी चुनौती बनकर खड़ी हो गई है, जब यूपी चुनाव से ठीक पहले राम की अयोध्या में देश के सभी राजनीतिक दल और उसके नेता अपनी-अपनी हाजिरी लगा रहे हैं.
आम आदमी पार्टी का यह कैसा अयोध्या प्रेम?
अरविंद केजरीवाल के बारे में अक्सर कहा जाता है कि वह हिन्दुस्तान की राजनीति को बदलने आए हैं. लेकिन राजनीति को नई दिशा और दशा देने का वादा करने वाला यह मुखर राजनेता, किस तरह से पहले मुस्लिम तुष्टिकरण की राजनीति के साथ खुद को आगे बढ़ाया, राम का नाम लेने तक से परहेज किया, अब वो अयोध्या पहुंचकर रामलला और हनुमान जी के दर्शन करे. सरयू की आरती भी. तो ये बात समझ में आती है कि मामला इतना सीधा है नहीं जितना हम सब समझते हैं.
दरअसल 'आप' के केजरीवाल धर्म के राजनीतिक पहलू को धर्मनिरपेक्ष तरीके से इस्तेमाल करना चाहते हैं. याद हो तो महात्मा गांधी से लेकर समाजवादी चिंतक राम मनोहर लोहिया तक रामराज्य की चर्चा किया करते थे. इसमें कोई शक नहीं कि उत्तर प्रदेश में मतदाताओं का एक बड़ा वर्ग बीजेपी के साथ खड़ा है. लेकिन उसी वर्ग में बहुत सारे मतदाता ऐसे भी हैं जिनके लिए बीजेपी को वोट करना उनकी मजबूरी है. मतदाताओं का ये वो वर्ग है जो गले में राम नाम का गमछा डाले युवकों की टोलियों, मॉब लिंचिंग और धार्मिक कट्टरता को पसंद नहीं करता है.
भगवान राम में उसकी अगाध श्रद्धा है, लेकिन मंदिर के नाम पर चंदे में हेराफेरी उसे पसंद नहीं. मतदाताओं के इसी सोच वाले हिस्से ने केजरीवाल को अयोध्या के रण में आने को मजबूर किया है. आप को लगता है कि गवर्नेंस का मुद्दा तो उसकी यूएसपी है ही, उसमें अगर हिन्दुत्व का तड़का डाल दिया जाए तो काउ बेल्ट की राजनीति में उसका दायरा बढ़ जाएगा.
अयोध्या पर सियासत में कांग्रेस भी पीछे नहीं
ऐसा नहीं है कि हिन्दुत्व और भगवान राम को लेकर को लेकर अयोध्या कोई पहली बार राजनीतिक दलों के केंद्र में नहीं है. इससे पहले भी राम की अयोध्या ने इस तरह के सियासी मेले देखे हैं. 1989 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने कांग्रेस के लिए लोकसभा चुनाव प्रचार का आगाज अयोध्या से ही किया था. आजादी के तुरंत बाद उस चुनाव को कौन भूल सकता है जब देश के प्रतिष्ठित समाजवादी नेता आचार्य नरेंद्र देव के खिलाफ कांग्रेस ने बरहज (देवरिया) से बाबा राघव दास को अपना प्रत्याशी बनाकर उतार दिया था. यूं तो बाबा राघव दास की पहचान गांधीवादी और विनोबा के शिष्य के तौर पर थी, लेकिन इस चुनाव में उन्हें हिन्दुत्व के चेहरे के तौर पर स्थापित करने का प्रयास कांग्रेस ने किया था.
बाबा राघव दास को तब जबरदस्त समर्थन मिला था और समाजवाद के पुरोधा आचार्य नरेंद्र देव चुनाव हार गए थे. 80 के दशक की बात करें तो यूपी में कांग्रेस की सरकार थी. तब श्रीपति मिश्र की सरकार ने राम जन्मभूमि बाबरी मस्जिद परिसर से जुडी 42 एकड़ भूमि राधा पार्क के लिए अधिग्रहित की थी. सरयू के घाटों की खुदाई करके राम की पैड़ी भी तभी बनाई गई थी. इसके बाद आरएसएस और बीजेपी के नेताओं में हलचल शुरू हुई थी.
6 मार्च 1983 को मुजफ्फरनगर में एक विराट हिंदू सम्मेलन का आयोजन किया गया था. जिसमें पूर्व उप प्रधानमंत्री गुलजारी लाल नन्दा, कांग्रेस के बड़े नेता और सरकार में मंत्री रहे दाऊ दयाल खन्ना भी शामिल हुए थे. खास बात यह रही कि इसी सम्मेलन में पहली बार राम जन्मभूमि मुक्ति का प्रस्ताव पारित किया गया था. ये कोई सुनी-सुनाई बात नहीं, बल्कि यह सब अयोध्या पर जो कुछ इतिहास लिखा गया है उसके पन्नों में दर्ज है.
'अयोध्या! मैं आ रहा हूं' दोहराने की लगी होड़
साल 1951 में स्थापित भारतीय जनसंघ से लेकर 1980 में स्थापित भारतीय जनता पार्टी के चुनावी एजेंडे में अयोध्या और भगवान राम के भव्य मंदिर निर्माण का मुद्दा हमेशा शीर्ष पर रहे हैं. इस लिहाज से हिन्दुत्व की राजनीति करने वाली बीजेपी के लिए अयोध्या बेहद महत्वपूर्ण है. आजादी के वक्त से लेकर 80 के दशक तक हिन्दुत्व और अयोध्या की जमीन पर सत्ता की राजनीति करने वाली कांग्रेस आज के दौर में भले ही पिछड़ गई हो, लेकिन अयोध्या को केंद्र में रखकर जो इतिहास कांग्रेस ने उन दिनों में संजोया था उस पन्ने को पलटने के लिए राहुल और प्रियंका गांधी को कांग्रेस फिर से खड़ी कर रही है. और भी दलों मसलन एसपी, बीएसपी तक को लगने लगा है कि राम नाम की राजनीति को खारिज कर सत्ता की दौड़ में लौटना आसान नहीं होगा.
ऐसे में जो भी दल 2022 के चुनाव में बीजेपी से सत्ता छीनना चाहते हैं, उसे लगता है कि यह काम अयोध्या के रास्ते से गुजरे बिना संभव नहीं. लिहाजा राजनीतिक दलों में राम की अयोध्या में अपनी राजनीतिक उपस्थिति दिखाने की होड़ सी लग गई है. हर कोई कुमार पाशी की कविता के शीर्षक को दोहराने से नहीं चूक रहा कि 'अयोध्या! मैं आ रहा हूं'.
बहरहाल, ऐसे वक्त में जब सभी राजनीतिक दलों के केंद्र में अयोध्या आकर खड़ी हो गई है, श्रीरामरक्षास्तोत्रम् के उस मंत्र का जिक्र करना जरूरी हो जाता है जिसे श्री राम तारक मंत्र भी कहा जाता है…
"राम रामेति रामेति, रमे रामे मनोरमे।
सहस्रनाम तत्तुल्यं, रामनाम वरानने॥"
कहते हैं कि इस मंत्र का जाप सम्पूर्ण विष्णु सहस्त्रनाम या विष्णु के 1000 नामों के जाप के समान है. इस मंत्र में 'रा' शब्द विश्ववाचक है और 'म' ईश्वरवाचक. यानि जो समस्त लोकों का ईश्वर है उसे 'राम' कहा गया है. 6 दिसंबर 1992 को राम की अयोध्या में जो कुछ हुआ वह हो गया. दुर्भाग्य की बात ये है कि तब धर्म के नाम पर जो लोग लड़े-भिड़े, टकराव आज भी कम नहीं हुआ है. आज भी उस दिन की याद में कोई शौर्य दिवस मनाता है तो कोई कलंक दिवस. लेकिन अयोध्या से यह कोई पूछने को तैयार नहीं कि वो क्या मनाती है. वो क्या सोचती है?
कहते हैं कि कनक भवन के बगल में स्थित सुंदर भवन में राम जानकी का मंदिर है. अंसार हुसैन उर्फ मन्नू मियां 1945 से लेकर जीवन के आखिरी वक्त तक मंदिर के मैनेजर रहे. मेले में वो पुजारी के काम में भी हाथ बंटाते थे और जब कभी मंदिर में लोग कम पड़ जाते थे तो आरती के वक्त मन्नू मियां खुद खरताल बजाने खड़े हो जाते थे. मन्नू मियां पांच वक्त के नमाजी थे, लेकिन किसी की क्या मजाल कि उनको लेकर अयोध्या में कभी कोई विवाद खड़ा करे. तब क्या मन्नू मियां कभी ऐसा सोचते होंगे कि अयोध्या का सच क्या है और अयोध्या का झूठ क्या है?
कहने का मतलब यह कि राम से बड़ा राम के नाम का अर्थ है. आज जरूरत इस बात को परखने की है कि अयोध्या की परिक्रमा करने वाले कितने नेता राम के इस अर्थ की गहराई को समझते हैं? कितने नेता श्रीरामरक्षास्तोत्रम् के इस श्री राम तारक मंत्र का जाप करते हैं? लिहाजा आज अयोध्या की जमीन पर जो कुछ हो रहा है वह अपनी राजनीति चमकाने और सत्ता हथियाने या सत्ता बनाए रखने के सिवा और कुछ भी नहीं है. देखना होगा कि जिस अयोध्या से हरदल अपना-अपना राजनीतिक हित साधने में लगा है, 2022 में अयोध्या उसे 'सब धान 22 पसेरी' समझती है या फिर कुछ और.
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