पराली के धुएं में उड़ते सवाल

लेकिन विडंबना यह है कि इसे रोकने के लिए कोई खास उपाय न कर इस पर हर साल दो महीने सियासत निश्चित रूप से होती है। किसानों के पास न तो वक्त होता है और न ही पैसे, जिससे वे इसके निस्तारण का कोई दूसरा रास्ता निकाल सकें।

Update: 2022-11-17 05:20 GMT

ऋतुपर्ण दवे: लेकिन विडंबना यह है कि इसे रोकने के लिए कोई खास उपाय न कर इस पर हर साल दो महीने सियासत निश्चित रूप से होती है। किसानों के पास न तो वक्त होता है और न ही पैसे, जिससे वे इसके निस्तारण का कोई दूसरा रास्ता निकाल सकें।

दरअसल हर किसी खास मौके का एक वक्त मुकर्रर होता है। हर साल ठंड की शुरुआत के साथ ही पराली पर सियासत का भी ऐसा ही दौर आता है। जलाई जा रही पराली के धुएं से प्रदूषण पर सत्ता-विपक्ष से लेकर टीवी पर चलने वाली बहसों में आरोप-प्रत्यारोप उफान पर होते हैं। अक्तूबर आखिर से नवंबर अंत तक पूरे देश में पंजाब में जल रही पराली पर जम कर बहस होती है।

लेकिन धीरे-धीरे इसका कुहासा भी छंटता है और नया साल आते-आते कुछ दिनों में सब कुछ भुला दिया जाता है। पूरा देश राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र यानी दिल्ली-एनसीआर के प्रदूषण को देख कर दंग रहता है और केवल पंजाब की जलती पराली को कोसा जाता है। लेकिन हकीकत यह है कि देश के दूसरे कई भागों में भी इससे कम या बराबर ऐसा ही प्रदूषण रहता है जहां कहीं इसे पुआल तो कहीं पइरा भी कहते हैं और तब इस पर कोई खास आवाज नहीं उठती।

एक सच्चाई भी है कि इसी नवंबर के पहले हफ्ते में दुनिया के सबसे प्रदूषित देशों में हम शीर्ष पर रहे। वायु प्रदूषण की वजह पराली जलाने के साथ दिवाली के पटाखों का धुआं भी रहा। इसके अलावा गेहूं कटने के बाद खेतों में बची जड़, जिसे नरवाई कहा जाता है, को जलाने की समस्या मार्च-अप्रैल में शुरू हो जाती है। कई गेहूं उत्पादक राज्यों में पूरे खेत के खेत जलते देखे जा सकते हैं। इस पर भी उतनी ही जिम्मेदारी और संवेदनशीलता जरूरी है, जितनी पराली को लेकर होती है।

यह भी पूरी तरह सच है कि जलवायु परिवर्तन को बढ़ावा के लिए जंगल की आग के बराबर ही इंसानों द्वारा फैलाया जा रहा प्रदूषण भी कोई कम नहीं है। इसलिए सवाल तो इस बात का है कि आखिर वायु प्रदूषण है क्या और इस पर इतनी चिंता व बहस कैसी? दरअसल, हमारे वायुमंडल में उपलब्ध रहने वाली सारी गैसों की मात्रा का संतुलन प्राकृतिक रूप से तय होता है। इनके बिगड़ने से हवा की गुणवत्ता बिगड़ती है। यह असंतुलन प्राकृतिक कारकों से ज्यादा इंसानी गतिविधियों से होता है।

इसी संतुलन को मापने के लिए ही वायु गुणवत्ता सूचकांक उपकरण इस्तेमाल किया जाता है, जो बताता है कि उस जगह की हवा की वास्तविक गुणवत्ता कैसी है। वायु गुणवत्ता की जांच के लिए आठ प्रदूषक कारक तत्वों का परीक्षण किया जाता है ताकि हवा में उनकी मात्रा का पता चल सके। इसी से प्रदूषण का स्तर पता लगता है।

हवा के भीतर नुकसानदायक अति सूक्ष्म कण जिन्हें पार्टिकुलेट मैटर (पीएम) कहा जाता है, मौजूद रहते हैं। पीएम-2.5 की मात्रा 60 और पीएम-10 की 100 मात्रा वाली हवा सांस के लिए सुरक्षित होती है। गैसोलीन, तेल, डीजल, कोयला या लकड़ी के जलने से पीएम-2.5 अधिक बनते हैं। अपने छोटे आकार के कारण ये कण फेफड़ों तक पहुंच जाते हैं और सांस सहित तमाम रोगों का कारण बनते हैं। इंसानों के बालों का आकार पचास से साठ माइक्रोन होता है और पीएम-10 का मतलब हवा में मौजूद धूल, गर्द और धातु के ऐसे कण जो बाल से भी छोटे होते हैं।

पीएम-2.5 पीएम-10 से भी छोटे हैं और आसानी से शरीर में जाने लायक यहां तक खून में भी घुलने लायक होते हैं। सल्फर डाइआक्साइड जो कोयले और तेल के जलने से निकलने वाली गैस है, हवा में काफी मात्रा में रहती है और यह बेहद खतरनाक भी है। इसी तरह प्राकृतिक गैस, कोयला या लकड़ी जैसे र्इंधन जलाने और वाहनों से कार्बन डाइआक्साइड सबसे ज्यादा निकलती है।

यही हाल नाइट्रोजन आक्साइड है जो उच्च ताप पर दहन से पैदा होती है और धुंध सरीखी दिखने वाली इस गैस का रंग भूरा होता है। इसके लंबे वक्त तक संपर्क में रहने से फेफड़ों को भारी नुकसान पहुंचाता है। कृषि प्रक्रिया से उत्सर्जित गैस अमोनिया भी प्रदूषण का कारण है। कूड़े, सीवेज और औद्योगिक प्रक्रिया से निकलने वाली गैसों में भी अमोनिया रहती है। इससे नाक, गले और श्वांस नली में जलन व अन्य समस्याएं पैदा होती हैं।

प्रदूषण का एक बड़ा कारण सीसा (लैड) भी है। सबको पता है कि हवा, पानी, मिट्टी, धूल के कण और रंग-रोगन की सामग्री में सीसे की मात्रा काफी ज्यादा होती है। जाहिर है, फेफड़ों के लिए सीसा भारी नुकसान पहुंचाने वाला है। इसी तरह एक गैस है ओजोन है जो पृथ्वी के ऊपरी वायुमंडल और जमीन दोनों जगह मिलती है। अच्छी ओजोन ऊपरी वायुमंडल में वास्तविक रूप से होती है जो सुरक्षात्मक परत का काम कर हमें सूर्य की हानिकारक पराबैंगनी किरणों से बचाती है।

लेकिन प्रदूषण से इस परत में छेद हो गया है जो धरती के पर्यावरण को भारी नुकसान पहुंचा रहा है। वहीं दूसरी ओजोन जमीनी स्तर पर बनती है जो हवा में तो उत्सर्जित नहीं होती है लेकिन नाइट्रोजन आक्साइड और कार्बनिक यौगिकों की रासायनिक क्रियाओं से बनती है। बिजली संयंत्रों, औद्योगिक बायलरों, रिफाइनरियों, रासायनिक संयंत्रों, वाहनों और अन्य स्रोतों से उत्सर्जित होकर सूर्य के प्रकाश की उपस्थिति में रासायनिक प्रतिक्रिया से बनने वाली ओजोन बेहद नुकसान पहुंचाती है। इन तमाम वायुमंडलीय गैसों के प्राकृतिक सामंजस्य बिगड़ने से ही सांस और फेफड़ों के गंभीर रोग होते हैं। इतना ही नहीं, हृदय रोग और दूसरी गंभीर बीमारियां व शारीरिक समस्याएं भी इसी असंतुलन से पैदा होती हैं। लगातार प्रदूषण सहने से त्वचा संबंधी रोग भी हो जाते हैं।

यकीनन पराली जलाना एक गंभीर समस्या है। यह समस्या आज की नहीं, बल्कि बरसों से है। विडंबना यह है कि इसे रोकने के लिए कोई खास उपाय न कर इस पर हर साल दो महीने सियासत निश्चित रूप से होती है। किसानों के पास न तो वक्त होता है और न ही पैसे, जिससे वे इसके निस्तारण का कोई दूसरा रास्ता निकाल सकें।

मजबूरी और दूसरी फसलें लगाने की जल्दबाजी में इसे जलाना ही एकमात्र सस्ता और सुलभ विकल्प बचता है। यह भी सच है कि इस पर काफी पैसा खर्चा गया, लेकिन नतीजा सिफर रहा। यह नहीं भूलना चाहिए कि हवा की गुणवत्ता बिगड़ने से पैदा हुए प्रदूषण से हर साल भारत सहित दुनिया में लाखों मौतें होती हैं। राज्यवार आंकड़े भी हैं और कारण भी, जो अलग से लिखे जाने लायक हैं।

सवाल फिर वही कि अब नहीं तो कब चेतेंगे? हम अपनी नई पीढ़ी को क्या दे रहे हैं? कभी चेचक, हैजा, पोलियो, कुष्ठ रोग असाध्य थे, लेकिन अब नहीं। जिस तरह हमने संक्रामक रोगों को मौतों का सबब बनते देखा और हाल में कोरोना महामारी जैसी विकरालता पर काबू पा बड़ी सफलता पाई, तो क्या वैसा कुछ पराली, नरवाई और दूसरे स्त्रोतों से फैलते जहरीले धुएं को रोकने के लिए नहीं किया जा सकता?

सवाल यह है कि विकास के नाम पर प्रकृति से ऐसी ज्यादती कब तक करते रहेंगे? पर्यावरण को प्रदूषण बचाने के लिए राजनीतिक इच्छा और प्रतिबद्धता दोनों जरूरी हैं, जो आज किसी भी दल या सरकार के पास दिखती नहीं। इसलिए लगता नहीं कि पंच, सरपंच से लेकर विधायक, सांसद और सभी राज्य मिल कर राजनीति से इतर अपनी सुनिश्चित और ईमानदार भागीदारी निभाएंगे।

सच कहा जाए तो जलती पराली भी राजनीति का शिकार है जो दो महीने की चीख-पुकार के बाद दस महीने फाइलों में बंद हो जाती है। अब विचार इस बात पर होना चाहिए कि उन्नत तकनीक के उपयोग से पराली का निपटान कैसे हो? हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि जब हम एक साथ एक सौ चार उपग्रह छोड़ विश्व कीर्तिमान बना सकते हैं तो क्या पराली का निपटान इससे भी बड़ी चुनौती है?


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