सी उदय भास्कर। लंबे समय से उपेक्षित भारत के समुद्री क्षेत्र को राष्ट्रीय समुद्री सुरक्षा समन्वयक मतलब नेशनल मैरीटाइम सिक्युरिटी कोर्डिनेटर (एनएमएससी) की नियुक्ति के साथ फिर से एकसूत्र किया जाएगा। माना जा रहा है, यह समन्वयक समुद्री सुरक्षा के मामले में सरकार का प्रमुख सलाहकार होगा, जो राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार, यानी एनएसए के अधीन काम करेगा और उम्मीद है कि देश के विशाल समुद्री विस्तार का प्रबंधन करने वाले केंद्र के अलग-अलग मंत्रालयों व विभागों के साथ देश के तटीय राज्यों में जरूरी तालमेल बनाने का काम करेगा।
यह एक स्वागतयोग्य पहल है, हालांकि इसका अरसे से इंतजार था। समुद्री मामलों की समग्रता से देख-रेख करने वाली ऐसी किसी व्यवस्था की जरूरत 2008 में मुंबई के 26/11 हमले के बाद ही महसूस की गई थी। उस हमले ने बेपरदा कर दिया था कि राष्ट्रीय सुरक्षा पर आने वाले किसी बड़े खतरे का प्रभावी ढंग से जवाब देने के लिए केंद्र व राज्य (महाराष्ट्र) की बीच समन्वय की भारी कमी है। अब 13 साल के बाद (जो हमारी धीमी रफ्तार बताता है) वह प्रस्ताव इस तरह हकीकत बनने जा रहा है। रिपोर्ट की मानें, तो जल्द ही इस पद को कैबिनेट की मंजूरी मिल जाएगी।
बेशक इससे इनकार नहीं है कि मुंबई हमले के बाद तटीय सुरक्षा, विशेषकर तटरक्षक (सीजी) पर काफी ध्यान दिया गया और उनके लिए फंड मुहैया कराए गए, फिर भी तटीय सुरक्षा में सैन्य दस्तों को सुसंगत बनाने की आवश्यकता बनी हुई है और राज्य की समुद्री पुलिस इकाइयों को भी अभी तक जरूरी क्षमताओं से लैस नहीं किया गया है। यही नहीं, नौसेना और तटरक्षक के बीच हालिया मतभेद को भी दूर करने की जरूरत है। एनएमएससी को सौंपे जाने वाले कर्तव्यों और जिम्मेदारियों का चार्टर ही यह स्पष्ट कर देगा कि उनके लिए आखिर क्या सोचा गया है, लेकिन कुछ खास बातों पर जरूर ध्यान दिया जाना चाहिए। 26/11 के बाद किसी वरिष्ठ नौसैन्य अधिकारी को समुद्री सुरक्षा सलाहकार नियुक्त करने का प्रस्ताव किया गया था, लेकिन यह फाइल दिल्ली की महान नौकरशाही व्यवस्था में उलझकर रह गई और धीरे-धीरे नीतिगत रडार से ही गायब हो गई। यह माना जाता है कि सलाहकार शब्द को उस समय ज्यादा समर्थन नहीं मिला, क्योंकि यह राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जैसा मालूम पड़ रहा था।
वर्ष 2003 में सागरमाला परियोजना के साथ अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने समुद्री क्षेत्र पर ध्यान देना शुरू किया, मगर यह साकार नहीं हो सकी। इसके बाद, 2005 में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार ने राष्ट्रीय समुद्री विकास योजना (एनएमडीपी) बनाई, लेकिन यह भी योजनानुसार इस क्षेत्र को नया जीवन नहीं दे सकी। यानी, महासागरों को लेकर आधा-अधूरा प्रयास होता रहा।
ऐसे में, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को समुद्री क्षेत्र पर विशेष ध्यान देने का श्रेय दिया जा सकता है, जिन्होंने अपने पहले कार्यकाल में 2015 में हिंद महासागर के एक द्वीप के दौरे के दौरान 'सागर' (सिक्युरिटी ऐंड ग्रोथ फॉर ऑल इन द रीजन, यानी इस क्षेत्र में सभी राष्ट्रों के लिए सुरक्षा और विकास) शब्द गढ़ा। हालांकि, इस सोच को साकार करने के लिए एक मजबूत बुनियादी ढांचे की जरूरत थी, जिसमें मोदी 1.0 की कैबिनेट की क्षमता और रक्षा मंत्रियों की लगातार विदाई (पांच साल के कार्यकाल में चार मंत्री) अड़चन बनी रही। हालांकि, हाल के वर्षों में, नीति आयोग ने समुद्री क्षेत्र पर नए सिरे से ध्यान देना शुरू किया, और देश की नीली अर्थव्यवस्था (आर्थिक गतिविधियां, जिनमें समुद्र व उसके संसाधनों का इस्तेमाल होता है) पर केंद्रित नीतियां वाकई में उत्साहवद्र्धक हैं। मगर इसे सफलतापूर्वक हकीकत बनाने में हमारे सामने कई मुश्किलें आएंगी, जहां प्रस्तावित एनएमएससी मददगार हो सकते हैं।
पहली नजर में, प्रस्तावित प्रमुख सलाहकार की यह व्यवस्था मौजूदा रक्षा क्षेत्र के उच्च प्रबंधन के समान जान पड़ती है। अभी नौसेना प्रमुख (सीएनएस) के पास यह महत्वपूर्ण जिम्मेदारी है, जिसे चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ (सीडीएस) और थिएटर कमांडरों के पद के सृजन के साथ फिर से व्यवस्थित किया जा रहा है। जाहिर है, राष्ट्रीय सुरक्षा के मोर्चे पर गंभीर बदलाव अब हमारी नीतियों का हिस्सा है। फिलहाल, यही माना जा सकता है कि एनएमएससी कहीं ज्यादा समग्रता से समुद्री सुरक्षा का प्रबंधन करेंगे, क्योंकि देश की समग्र समुद्री सुरक्षा (सीएमएस) थल सेना अथवा नौसेना की मुस्तैद सुरक्षा की तुलना में बहुत व्यापक है। व्यापक समुद्री सुरक्षा भू-रणनीतिक व भू-राजनीतिक नीतियों का अंग है और इंडो-पैसिफिक व क्वाड के गठन को देखते हुए हमें इस पर विशेष ध्यान देना होगा। भू-आर्थिकी (व्यापार, ऊर्जा, मछली पकड़ना और समुद्री तल का खनन) और भू-भौतिक (पर्यावरण और पारिस्थितिक निर्धारकों को महासागरों की सेहत का हिस्सा बनाना) इसी समुद्री सुरक्षा के अन्य दो पहलू हैं। स्पष्ट है, समुद्रों और महासागरों पर भारत की निर्भरता बहुत ज्यादा है। यहां व्यापार, कनेक्टिविटी, ऊर्जा और मछली पकड़ना तो जगजाहिर है, लेकिन इसके साइबर पक्ष को अक्सर नजरअंदाज कर दिया जाता है। जबकि वैश्विक साइबर-डिजिटिल कनेक्टिविटी तभी संभव है, जब पानी के नीचे तारों का जाल बिछाया जाए। इस प्रकार, एनएमएससी को समुद्री चुनौतियों से जूझना होगा और अवसरों का अधिकाधिक लाभ भी उठाना होगा। भारत के मरणासन्न समुद्री क्षेत्र को पुनर्जीवित करने के लिए सर्वप्रथम नियुक्त होने वाले समन्वयक का कौशल काफी मायने रखेगा।
एक तथ्य यह भी है कि भारत प्रमुख अर्थव्यवस्था और बड़ी ताकत बनने की इच्छा तो रखता है, लेकिन उसके पास एक भी ऐसा बड़ा बंदरगाह नहीं है, जो सामान की ढुलाई और बंदरगाह दक्षता सूचकांक में दुनिया के शीर्ष 30 बंदरगाहों में शुमार हो। भारतीय समुद्री पेशेवर भी यही रोना रोते हैं कि नई दिल्ली में बैठे नीति-निर्माता उनकी योग्यता व क्षमता का इस्तेमाल नहीं करते, और वैश्विक समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र को नजरअंदाज करते हैं। लिहाजा, उम्मीद की जानी चाहिए कि एक राष्ट्रीय समुद्री शेरपा, यानी एनएमएससी 'सागर' को हकीकत बनाने और देश की विशाल समुद्री क्षमता के विवेकपूर्ण इस्तेमाल की राह आसान करेंगे।