एक राष्ट्रीय सर्वेक्षण में पाया गया है कि ऑनलाइन शिक्षा व्यवस्था कारगर नहीं है. बीते 17 महीनों से अधिकतर प्राथमिक और उच्च प्राथमिक विद्यालय बंद हैं तथा ऑनलाइन माध्यम से शिक्षा दे रहे हैं. इस व्यवस्था में शिक्षण और सीखना कितना असरदार रहा है, इस संबंध में हमारे पास ढेर मौखिक सबूत हैं. यदि किसी परिवार में एक स्मार्टफोन है, तो उसका इस्तेमाल मुख्यत: ऑनलाइन शिक्षा के लिए किया जा रहा है.
ऐसे फोन या टैबलेट के साथ इंटरनेट कनेक्टिविटी या शिक्षकों से नजदीकी जुड़ाव के अभाव की समस्याएं भी जुड़ी हुई हैं. यदि कुछ शहरी अभिजात्य स्कूलों को छोड़ दें, तो अनौपचारिक समझ यही है कि छात्रों, शिक्षकों और अभिभावकों के लिए ऑनलाइन शिक्षा का अनुभव बहुत असंतोषजनक रहा है. इस अनौपचारिक निष्कर्ष पर एक गहन अध्ययन और हाल में प्रकाशित एक रिपोर्ट ने मुहर लगा दी है.
रिपोर्ट का शीर्षक 'स्कूली शिक्षा पर आपात रिपोर्ट' है तथा इसे विख्यात अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज और रीतिका खेरा ने शोधार्थी निराली बाखला और विपुल पैकरा के साथ मिलकर तैयार किया है. यह सौ से अधिक सर्वेक्षकों के काम पर आधारित है, जिन्होंने कक्षा एक से आठ तक के करीब 1400 छात्रों का व्यापक सर्वेक्षण किया है. ये छात्र असम, बिहार, दिल्ली, गुजरात, हरियाणा, झारखंड, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिशा, पंजाब, उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल से हैं. रिपोर्ट के निष्कर्ष चौंकानेवाले हैं.
ग्रामीण क्षेत्रों में केवल आठ प्रतिशत और शहरी क्षेत्रों में केवल 24 प्रतिशत छात्र ऑनलाइन माध्यम से नियमित अपनी पढ़ाई कर रहे हैं. हाल के महीनों में, शहरी क्षेत्र के 19 प्रतिशत तथा ग्रामीण क्षेत्र के 37 प्रतिशत छात्र बिल्कुल ही पढ़ाई नहीं कर रहे हैं. ये छात्र पूरी तरह से पढ़ाई छोड़ चुके हैं. शहरी क्षेत्र के 52 प्रतिशत और ग्रामीण क्षेत्र के 71 प्रतिशत छात्र सर्वेक्षण से तीस दिन पहले की अवधि में अपने शिक्षकों से नहीं मिले हैं.
स्कूली शिक्षा में कमी का एक बड़ा प्रमाण खराब पाठन कौशल के रूप में हमारे सामने है. इसका मतलब यह है कि महामारी की इस अवधि में साक्षरता का स्तर और भी नीचे जायेगा. लगभग 500 दिनों से प्राथमिक विद्यालयों के बंद रहने के अनेक नकारात्मक प्रभाव हुए हैं. इनमें पहला है, साक्षरता में गिरावट आना. दूसरा असर है, दिन में भोजन देने की प्रक्रिया का बंद होना, जिससे छात्रों का पोषण स्तर प्रभावित हुआ है.
हालांकि रिपोर्ट में यह बताया गया है कि सरकारी स्कूलों के 80 प्रतिशत बच्चों को स्कूल में मिलनेवाले मिड-डे भोजन का विकल्प दिया गया है, लेकिन शहरी क्षेत्र के 20 प्रतिशत तथा ग्रामीण क्षेत्र के 14 प्रतिशत बच्चों को कोई विकल्प यानी खाद्य सामग्री या नगदी नहीं मिली. तीसरा असर यह हुआ है कि अब बच्चों को बिना किसी परीक्षा के अगली कक्षाओं में भेजा जायेगा. उदाहरण के लिए, अधिक से अधिक तीसरी कक्षा के स्तर का पाठन कौशल रखनेवाले छात्र भी पांचवीं कक्षा में होंगे.
इस खाई की भरपाई के लिए बहुत प्रयास करने होंगे क्योंकि यह प्रभाव कुछ वर्षों तक बना रह सकता है. अगर हम सामाजिक व आर्थिक स्तर पर असर का आकलन करते हैं, तो चौथा चिंताजनक पहलू सामने आता है. मसलन, दलित और आदिवासी समुदायों में केवल पांच प्रतिशत छात्र ही ऑनलाइन कक्षाओं में भाग ले रहे हैं या पहले से रिकॉर्ड वीडियो को देख पा रहे हैं. इस समूह में साक्षरता दर गिरकर 61 प्रतिशत हो गयी है.
पढ़ने की क्षमता और साक्षरता में गिरावट का असर शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में सभी सामाजिक व आर्थिक वर्गों में होगा. पांचवा असर स्कूल छोड़ने से जुड़ा हुआ है. आमदनी में कमी के कारण बच्चों को स्कूल से हटाया जा रहा है क्योंकि शुल्क चुकाना बेहद मुश्किल हो गया है. इस रिपोर्ट में बाल मजदूरी, खासकर 10-14 वर्ष आयु वर्ग में, को भी रेखांकित किया गया है. इसमें स्कूल से हटाये गये वे बच्चे भी शामिल हैं, जो बिना किसी भुगतान के अपने घर में काम करते हैं. लड़कों की अपेक्षा लड़कियों पर इसका सबसे अधिक नकारात्मक प्रभाव पड़ा है.
इस सर्वेक्षण का निष्कर्ष है कि स्कूलों को तुरंत खोला जाए. उन्हें बंद रखना आसान विकल्प है, पर उसके दीर्घकालिक नुकसान हैं. असल में, इसे कोविड महामारी के दीर्घकालिक प्रभावों में गिना जाना चाहिए. स्कूल खोलने के लिए योजना और सोच की दरकार है. इसे बारी-बारी से थोड़े-थोड़े छात्रों की उपस्थिति के साथ शुरू किया जा सकता है. बच्चे के ज्ञानात्मक विकास के लिए शिक्षक से आमने-सामने का संबंध आवश्यक है. विद्यालय समाजीकरण का भी एक वाहन है. पोषण और स्कूल आने के प्रोत्साहन के अलावा मिड-डे भोजन की व्यवस्था का एक उद्देश्य बच्चों में मिलने-जुलने और सामाजिक होने में मदद करना भी है.
तीसरी लहर या संक्रमण के जोखिम को स्कूल खोलने के फायदे से संतुलित किया जाना चाहिए. निर्देशों के कठोर पालन, संक्रमण के उपचार की बेहतर समझ तथा टीकाकरण से बढ़ती प्रतिरोधी क्षमता व सामूहिक प्रतिरोधक क्षमता के कारण यह जोखिम उठाया जा सकता है. अचरज की बात नहीं है कि ग्रामीण क्षेत्र के 97 प्रतिशत अभिभावक पूरी तरह से स्कूल खोलने के पक्ष में हैं. एक अभिभावक ने तो यह भी कह दिया कि इस बारे में सवाल पूछने की जरूरत ही नहीं है. हमें लॉकडाउन जारी रखने से संबंधित सभी तरह के फैसलों के लिए कोविड को बहाना नहीं बनाने देना चाहिए.
भले ही यह महामारी अभूतपूर्व है, हमारे पास भारत समेत दुनियाभर से इसके बारे में अनुभवों का पर्याप्त जखीरा है, जिससे हम पूरी तरह से फिर से सब कुछ खोलने की योजना बनाने में मदद ले सकते हैं. पिछले साल अचानक लागू हुए कड़े लॉकडाउन ने जीवन और आजीविका के बीच द्वंद्व खड़ा कर दिया था. अब ऐसा नहीं होना चाहिए. पिछले साल बड़ी संख्या में रोजगार, खासकर दैनिक कामगारों के, का हमेशा के लिए लोप हो गया. ऐसे में मदद और सहयोग की दरकार है.
इसी तरह मानव पूंजी में ह्रास को भी रोकना चाहिए. आज के बच्चे कल के कामगार हैं. यह आपात रिपोर्ट हमें सचेत कर रही है. विभिन्न आंकड़ों के साथ इसमें व्यवहार से संबंधित पहलुओं में कमी का भी उल्लेख किया गया है. अभिभावकों ने शिकायत की है कि बैठे रहने से, व्यायाम के अभाव में, फोन की लत से या ऐसे अन्य कारणों से बच्चों में अनुशासन की कमी हो गयी है और वे चिड़चिड़े, यहां तक कि हिंसक भी हो गये हैं. परिवारों को ऐसे अनेक तनावों से गुजरना पड़ रहा है. स्पष्ट है कि स्कूल खोलने से पढ़ाई के अलावा भी कई लाभ हैं.
क्रेडिट बाय प्रभात खबर