ऑनलाइन शिक्षा से अध्यापकों पर दबाव

कोरोना काल सबके लिए चुनौतीपूर्ण रहा

Update: 2021-10-16 04:28 GMT

ऐसे कठिन काल में बच्चों को पढ़ाना या पढ़ाने की विधाएं सीखना इतना मुश्किल नहीं, जितना कि बच्चों को पढ़ाई के लिए बाध्य करना मुश्किल रहा। यह और भी कठिन तब रहा, जब अभिभावक भी बच्चे को पढ़ाने के लिए बैठाने में असमर्थता जताते रहे…


कोरोना काल सबके लिए चुनौतीपूर्ण रहा। सबके ही जीवन पर इसका गहरा असर रहा। जैसे छोटे व्यापारियों व लेबर वर्ग पर इसका असर आर्थिक रूप से बहुत गहरा रहा, जिससे मानसिकता पर गहरा असर पड़ना स्वाभाविक ही है। उसी तरह अध्यापक पर इसका भावनात्मक रूप में बहुत ही गहरा असर पड़ा। सबसे अत्यधिक चुनौतीपूर्ण यह काल समाज के जिस विशेष वर्ग के लिए रहा, वह है अध्यापक। शिक्षा वह है जो शिक्षार्थी के अवचेतन मन में प्रवेश कर उसका सामूहिक विकास करे। हर पल सीखने की प्रक्रिया का नाम ही शिक्षा है और यही शिक्षा शिक्षार्थी के मानसिक पटल तक पहुंचाना अध्यापक की आत्मसंतुष्टि का द्योतक है। यदि अध्यापक इस संतुष्टि तक पहुंचने में तनिक भी व्यवधान पाता है तो मानसिक दबाव बढ़ना स्वाभाविक है। आज के परिप्रेक्ष्य में अध्यापक शब्द गुरु का पर्यायवाची होने के साथ-साथ बहुत व्यापक व चुनौतीपूर्ण रूप ले चुका है। धरोहर के रूप में गुरु के कर्त्तव्य को आत्मसात करना अध्यापक का कर्त्तव्य तो है ही, साथ ही समय-समय पर विभिन्न कार्यों में योगदान का वह साक्षी है।

एक तरफ तो कर्त्तव्य व भावना से जुड़कर वह अपने विद्यार्थियों में संपूर्ण गुणों का समावेश करने में प्रयासरत रहता है, साथ ही वह आत्मा की गहराइयों से दृढ़संकल्प है। दूसरी ओर विभाग व सरकार द्वारा विभिन्न कार्य जैसे जनगणना, चुनाव, वोटरलिस्ट आदि समय-समय पर अध्यापक को दिए जाते रहे हैं जिनमें समाज अध्यापक की कार्यकुशलता व कर्त्तव्य-परायणता का साक्षी हमेशा से रहा है। हमारी गुरु रूपी संस्कृति से भिन्न अध्यापक आज स्कूलों में केवल छात्र निर्माण का कार्य ही नहीं कर रहा, बल्कि एक सरकारी कर्मचारी की तरह विभिन्न भूमिकाएं निभा रहा है, जबकि गुरु कर्मचारी की श्रेणी का विषय ही नहीं है। यह आध्यात्मिक ऊंचाइयों के साथ बौद्धिकता का विषय लिए राष्ट्र निर्माण की रूपरेखा का आधार है, जो कर्मचारी की श्रेणी से बहुत ऊपर और वृहद है। अध्यापक की भूमिकाओं का विस्तृत क्षेत्र है बच्चों के लिए खाना बनवाना, कभी वर्दी वितरण, कभी बजट की प्रासंगिकता में उलझना, कभी विभिन्न योजनाओं का क्रियान्वयन तो कभी छात्रवृत्ति की फाइल में वक्त लगाना, तो कभी क्लर्क की भूमिका में अध्यापक का नज़र आना। यह सब अध्यापक को निःसंदेह गुरु का पर्यायवाची होते हुए भी गुरु से भिन्न चुनौतीपूर्ण कर्त्तव्य बोध का भान कराता है। अध्यापक आज ऐसे लगता है जैसे उसका मल्टीटेलेंटिड होना उसके कार्य का ही एक भाग हो। निःसंदेह अध्यापक तो शिक्षा देने के साथ-साथ स्वयं भी जीवन भर शिक्षार्थी ही रहता है। सीखना जैसे उसकी प्रवृत्ति का ही एक हिस्सा बन चुका हो। समाज में बदलाव की बात हो या सुझाव की या अन्य गतिविधियों में अध्यापक का खुद को साबित करना, उसके निरंतर सीखने की प्रवृत्ति का ही नतीजा है।

अध्यापक के उत्थान का कारण भी यही है कि वह हमेशा सीखने के लिए अपने अंतिम श्वास तक तैयार रहता है। एक अध्यापक अच्छे से जानता है कि अंग्रेजी का शब्द परफैक्ट असल में प्रकृति में शायद उस परमात्मा के ही शब्दकोष में मिले, क्योंकि परफैक्ट तो कोई होता ही नहीं। पर बच्चों को परफैक्ट बनाने के चाव में वह स्वयं भी अपने कार्य में परफैक्ट की झलक लाने में हमेशा अव्वल रहता है। शायद इसलिए सरकार भी शिक्षकों की बार-बार गैर शैक्षणिक कार्यों में ड्यूटी लगाती है, भले ही यह कई बार बच्चों के लिए निश्चित समय में कटौती व नुकसान का कारक है। लेकिन यह अपने आप में अध्यापक की कार्य की उत्तमता की गवाही देता है। अध्यापक ने अपने आपको हर गैर शैक्षणिक कार्य में भी साबित किया है। सबसे चुनौतीपूर्ण अध्यापक के लिए कोरोना काल में नई तकनीक से खुद को जोड़ना था। भले ही यह कोरोना काल अध्यापक के लिए इस रूप में बहुत मानसिक दबाव वाला रहा, लेकिन अध्यापक शिक्षा, शिक्षक व शिक्षार्थी के चरित्र को आज के परिप्रेक्ष्य में न्याय देने में अव्वल रहा। अध्यापक ने मोबाइल के सहारे दिन-रात एक कर नई तकनीक से जुड़कर वीडियो बनाना व उसे बच्चों में पहुंचाने के लिए नई-नई विधाओं को सीखा। बच्चों को शून्य की ओर धकेलने से बचाया व उन्हें शिक्षा से जोड़े रखा। सरकार के 'हर घर पाठशाला कार्यक्रम' को सफल बनाने में अध्यापक ने अहम भूमिका निभाई। इस कार्यक्रम को बनाने से लेकर क्रियान्वयन तक अध्यापक ही मुख्य कड़ी रहा। लेकिन अपने इन सभी कार्यों में वह इस कठिन काल में हर वक्त मानसिक दबाव झेलता रहा। घर से कार्य में वह 10 से 4 बजे की बजाय 'सातों दिन 24 घंटे' का कर्मचारी रहा। विद्यालय में जहां एक ओर सामूहिक रूप से पूरी कक्षा को एक साथ पढ़ाना, वहीं ऑनलाइन शिक्षा में हरेक बच्चे के लिए उसकी सहूलियत के अनुसार दिन-रात हर वक्त उसके प्रश्नों के उत्तर देने को हर वक्त तैयार रहना, कितना दबावपूर्ण रहा होगा।

समाज के किसी भी वर्ग का इस ओर ध्यान ही नहीं गया। समाज के एक वर्ग ने अध्यापक की मेहनत को शायद समझा ही नहीं व अध्यापन को हल्के में एक आरामदायक कार्य समझकर इसकी गूढ़ता को कभी समझा ही नहीं। अध्यापन एक ऐसा कार्य है जिसमें इनसान में स्वतः ही भावना का समावेश होकर अपने विद्यार्थियों के माता-पिता की भूमिका निभाता है। इस भावना के वशीभूत वह उसमें दिव्यता के ऐसे बीज बोने के लिए उत्सुक रहता है जिससे उसका खुद का जीवन तो संवरे ही, साथ ही वह समाज को एक दिशा देने के काबिल बने। शायद ही कोई मानवता विहीन अध्यापक हो जिसमें अध्यापन क्षेत्र में आने के बाद यह गुण उसमें स्वतः ही न पनपे। इन गुणों के विकसित होने के कारण वह स्वयं भी समाज में जागरूकता का झंडा लिए चलता हुआ नज़र आता है। ऐसे में भावनावश यह कोरोना काल अध्यापक में मानसिक दबाव बढ़ाए तो कोई हैरानी नहीं होगी, क्योंकि अध्यापन सत्य संभाषण का भी द्योतक है। अतः ऐसे कठिन काल में बच्चों को पढ़ाना या पढ़ाने की विधाएं सीखना इतना मुश्किल नहीं, जितना कि बच्चों को पढ़ाई के लिए बाध्य करना मुश्किल रहा। यह और भी कठिन तब रहा, जब अभिभावक भी बच्चे को पढ़ाने के लिए बैठाने में असमर्थता जताते रहे। ऐसे में बच्चों को पढ़ने के लिए मोटीवेट करना काफी चुनौतीपूर्ण है। मोबाइल से हर वक्त जुड़े रहना अध्यापकों के लिए भी मानसिक तनाव पैदा करने वाला तो है ही, साथ ही आंखों पर दुष्प्रभाव भी इसका देखने को मिल रहा है।

रीना भारद्वाज
लेखिका रोहड़ू से हैं
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