सत्ता का संकट
महाराष्ट्र में आए सियासी भूचाल से उद्धव ठाकरे सरकार एक बार फिर मुश्किल में घिर गई है। अबकी बार संकट शिवसेना विधायक दल के नेता और नगर विकास मंत्री एकनाथ शिंदे ने खड़ा किया है।
Written by जनसत्ता; महाराष्ट्र में आए सियासी भूचाल से उद्धव ठाकरे सरकार एक बार फिर मुश्किल में घिर गई है। अबकी बार संकट शिवसेना विधायक दल के नेता और नगर विकास मंत्री एकनाथ शिंदे ने खड़ा किया है। अभी शिवसेना के बत्तीस विधायकों को लेकर वे गुवाहाटी में सुरक्षित डेरा डाले हुए हैं। शिंदे की मांग है कि उद्धव अब कांग्रेस और राकांपा का साथ छोड़ें और भारतीय जनता पार्टी के साथ मिल कर सरकार बनाएं।
गौरतलब है कि ये वही एकनाथ शिंदे हैं जो हाल तक उद्धव ठाकरे के बेहद करीबी बने हुए थे। अब सबसे बड़ा सवाल यह है कि महाविकास आघाडी सरकार कितने दिन टिक पाएगी? एकाध या कुछ विधायक होते तो समझ आता, लेकिन पचपन में से बत्तीस विधायक अगर शिंदे के खेमे हैं तो इसका मतलब साफ है। बल्कि शिंदे तो छियालीस विधायकों के समर्थन का दावा कर रहे हैं। अगर इतने सारे विधायकों को लेकर शिंदे दलबदल कर भाजपा में शामिल हो गए, जिसकी सबसे ज्यादा चर्चा भी हैं, तो उद्धव ठाकरे कर क्या करेंगे? या शिंदे अपने समर्थक विधायकों के साथ इस्तीफा दे देते हैं तब भी सरकार अल्पमत में तो आ ही जाएगी। जाहिर है, इस बार संकट कहीं ज्यादा बड़ा है।
अगर मौजूदा संकट को शिवसेना के अंदरूनी मामले के संदर्भ में ही देखा जाए तो इसका मतलब यह है कि शिवसेना पर उद्धव ठाकरे की पकड़ कमजोर पड़ने लगी है। ताजा घटनाक्रम से लग रहा है कि पार्टी पर उनका नियंत्रण नहीं रह गया है। वरना कैसे विधायक मुंबई से वाया सूरत गुवाहाटी पहुंचते रहे और उद्धव को पार्टी के भीतर खदक रही इस खिचड़ी के बारे में हवा तक नहीं लगी।
आखिर यह सब एक दिन में तो हो नहीं गया होगा! यह कवायद लंबे समय से चल रही होगी। यानी मुख्यमंत्री और शिवसेना का खुफिया तंत्र नाकाम रहा इन सब चीजों को भांपने में! एकनाथ शिंदे भले शिवसेना को नुकसान न पहुंचाने की बात कह रहे हों, लेकिन उन्होंने पिछले दो दिनों में जितना और जो कर दिखाया है, उससे ज्यादा वे शिवसेना को और नुकसान क्या पहुंचाएंगे?
सत्ता हासिल करने के लिए पार्टियां जिस तरह के हथकंडे अपनाती रही हैं, उनसे लोकतंत्र को भारी नुकसान पहुंचा है। मामला सिर्फ महाराष्ट्र या शिवसेना तक ही सीमित नहीं है। मध्य प्रदेश का उदाहरण तो कोई बहुत पुराना नहीं है। विधायकों को तोड़ने और बहुमत जुटाने के लिए पार्टियां क्या-क्या नहीं कर डालतीं, यह अब छिपा नहीं रह गया है। सवाल है कि आखिर क्यों शिंदे भाजपा के साथ गठजोड़ करने पर जोर डाल रहे हैं?
अभी ही उनकी अतंरात्मा क्यों जागी? यह सवाल भी उठता ही है कि विधायकों को अपने पाले में सुरक्षित रखने के लिए विमानों से एक जगह से दूसरी जगह लाने-ले जाने, महंगे रिजार्टों में रखने और उनकी सुख-सुविधाओं पर भारी-भरकम खर्च के लिए पैसा कहां से आता है? हाल में राज्यसभा चुनावों के दौरान भी पार्टियां विधायकों को बाड़ाबंदी में रखने के लिए पानी की तरह पैसा बहाती दिखीं। हालांकि यह सब नया नहीं है, पहले से चलता आ रहा है। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में राजनीति में ऐसा चलन ज्यादा ही बढ़ गया है। जिन राज्यों की माली हालत संतोषजनक नहीं है, जो कोविड महामारी की मार से उबरे भी नहीं हैं, लोग गरीबी में जीने को मजबूर हों, वहां सत्ता के नुमाइंदों पर इस तरह पैसा बहा कर सरकारें गिराने और बनाने के खेल चलते रहें तो इससे ज्यादा शर्म की बात और क्या हो सकती है?