राजनीति एक कला
राजनीति में प्रतिद्वंद्वी पर आरोप-प्रत्यारोप एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। इससे एक पक्ष आहत होता है, तो दूसरे को राहत मिलती है। मगर वर्तमान दौर की राजनीति में जब चाहे तब, चाहे जिसको निशाना बनाया जा सकता है।
Written by जनसत्ता: राजनीति में प्रतिद्वंद्वी पर आरोप-प्रत्यारोप एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। इससे एक पक्ष आहत होता है, तो दूसरे को राहत मिलती है। मगर वर्तमान दौर की राजनीति में जब चाहे तब, चाहे जिसको निशाना बनाया जा सकता है। यह अलग बात है कि आम नागरिक राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप को अब गंभीरता से नहीं लेते। इसके चलते गंभीर से गंभीर आरोप-प्रत्यारोप भी अपना प्रभाव खो बैठते हैं।
आए दिन एक से बढ़ कर एक सनसनीखेज आरोप-प्रत्यारोप का चलता रहता है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का नजारा केवल राजनीति में ही दिखाई देता है। मगर कुछ लोग ऐसे होते हैं जो व्यक्तिगत रूप से किसी पर आरोप नहीं लगाते, किंतु इशारों ही इशारों में सामने वाले को घायल कर देते हैं। इसके लिए अपने तरकश में आरोपों के तीर होना ही चाहिए। कभी-कभी राजनीति के कोई तीरंदाज अपनी कल्पना शक्ति के आधार पर प्रतिद्वंद्वी को निशाने पर ले लिया करते हैं।
बात हद से आगे बढ़ जाए तो इसके लिए खेद प्रकट करने या अपने शब्द वापस ले लेने से काम चल जाता है। बात बन जाती है और सामने वाले की बात रह जाती है। जो इस कला में पारंगत होते हैं, वे चर्चा में बने रहते हैं। राजनीतिक सफलता उन्हीं को प्राप्त होती है जो चर्चा में बने रहने के गुर जानते हैं। राजनीति में हर किसी का कोई न कोई प्रतिद्वंद्वी तो होता ही है। लोकतंत्र में एकतरफा राजनीति कभी संभव नहीं होती।