प्लीज! 'अति की महामारी' रोकिए…सिर्फ समाधान की सोचिए!
वैक्सीन पर विवाद है. ऑक्सीजन की कमी पर सवाल है
अश्विनी कुमार। वैक्सीन पर विवाद है. ऑक्सीजन की कमी पर सवाल है. दूसरी लहर को पहचानने में नाकाम रहने वाले तीसरी लहर का पूरा ब्लूप्रिंट पेश कर रहे हैं. आगे और बड़ी सुनामी का दावा है, तो हालात कंट्रोल में आने का भी ऐलान साथ-साथ है. चिताओं की गिनती हो रही है. नदियों में तैरती लाशों पर सरकारें लड़-भिड़ रही हैं. सरकारी सिस्टम नाकामियों को छुपा रहा है, टीवी मीडिया सिर्फ नकारात्मक तस्वीरों को ढूंढने में अपनी अधिकतम ऊर्जा खत्म कर रहा है. कुल मिलाकर महामारी के साथ ये सूचनाओं और दावों-प्रतिदावों की 'अति की महामारी' काभी दौर है, जिस पर काबू पाने से शायद हम असल महामारी पर भी कुछ और बेहतर नियंत्रण पा सकते हैं.
वैक्सीन पर हायतौबा मची है. विपक्ष और खासतौर से आम आदमी पार्टी के आरोप गंभीर हैं. आरोप केंद्र सरकार पर है. सबसे ज्यादा सरकार के मुखिया पर है. आपने देश के हिस्से की वैक्सीन दूसरे देशों को दे दी. साढ़े 6 करोड़ वैक्सीन दूसरे मुल्कों को बांट दी. ये वैक्सीन देशवासियों के काम आ सकती थी. उनकी जान बचा सकती थी, लेकिन आपको तो अपनी छवि चमकानी थी. महान बनना था. अब आपकी गलतियों का खामियाजा देश भुगत रहा है. सुनने में ये पंक्तियां हमें हमारे मन की बात लग सकती है, लेकिन क्या वैक्सीन दूसरे देशों को देने पर अब सवाल उठा रही पार्टियां और उनके नेता बताएंगे कि क्या उन्होंने तब 'वैक्सीन डिप्लोमेसी' का इतनी ही पुरजोरी से विरोध किया था? सरकार जब कह रही थी कि संकट खत्म हो गया है, तो क्या इतनी ही जोरदारी से कहा था कि नहीं संकट खत्म नहीं हुआ, आने वाला है?
लेकिन इससे न केंद्र अपनी चूक से मुंह मोड़ सकता है, न ही विरोधी पार्टियां/सरकारें अपने कर्तव्यों में विफल रह जाने के दोष से बच सकती हैं. गलती दोनों से हुई है. कम या ज्यादा. और देशवासीपूरे राजनीतिक तंत्र और उसके बनाए अदूरदर्शी (काहिल भी कह सकते हैं) सिस्टम की सामूहिक गलतियों का ही परिणाम अपनी या अपनों की जान देकर भुगत रहे हैं.
तीसरी लहर के जो दावे कर रहे हैं
अब कहा जा रहा है कि तीसरी लहर भी आएगी. तीसरी लहर और भयावह होगी. बच्चों पर अटैक करेगी. यह सब बातें वही कर रहे हैं, जिन्हें दूसरी लहर का दूर-दूर तक अहसास तक नहीं हुआ था. वही लोग अब तीसरी लहर और उसकी पूरी प्रकृति को बताने की स्थिति में हैं. कमाल है. हम नहीं कहते कि खतरे की जानकारी लोगों को न दें. जरूर दें. तभी बचाव के उपाय लोग करेंगे. लेकिन इसके पीछे की वैज्ञानिक वजहों को भी साफ और सरल तरीके से समझाएं. लोगों को डराएं नहीं, सिर्फ बताएं. हां, इससे भी ज्यादा आगे के लिए अपनी तैयारियां पुख्ता करें और लोगों को भी इसके लिए प्रेरित करें.
स्वास्थ्य मंत्रालय जो आंकड़े दे रहा है
अगर आप देश के हालात पर निराश होकर टूट रहे हों, तो स्वास्थ्य मंत्रालय की आए दिन होने वाली मीडिया ब्रीफिंग को जरूर सुनें. भले ही 24 घंटे में 4 लाख से ज्यादा केस आए हों, लेकिन आपको लगेगा कि सबकुछ ठीक है. भले ही 24 घंटे में 4 हजार से ज्यादा मौतें (सरकारी रिकॉर्ड से बाहर वाली मौतें इसमें शामिल नहीं हैं) हुई हों, लेकिन आपको लगेगा कि सबकुछ सही दिशा में आगे बढ़ रहा है. देश के विशाल मैप में से चंद जिलों को ढूंढ कर आपको बताया जाएगा कि इतने जिलों में 7 दिन से कोई केस नहीं आए. और इतने जिलों में 14 और 28 दिनों से.यह नहीं बताया जाएगा कि कितने सौ जिलों में केस बेतहाशा बढ़ रहे हैं? फिर आपको ये भी बताया जाएगा कि इतने राज्यों में पिछले 4 या 7 दिनों से नए केस और मौतें कम हुई हैं.
आपको यह नहीं बताया जाएगा कि जिन चंद छोटे (आबादी और आकार के हिसाब से) राज्यों में केस और मौतें घटी हैं उनकी कुल आबादी देश के मुकाबले कितनी अल्प है? आपको बताया जाएगा कि देश के पास वैक्सीन का इतना स्टॉक है. लेकिन ये नहीं बताया जाएगा कि तब फिर वैक्सीनेशन के आंकड़े दिन-ब-दिन घट क्यों रहे हैं? ऐसे तमाम मृगतृष्णासरीखे 'मोटिवेट' करने वाले आंकड़े तस्तरी में सजाकर आपके सामने रख दिए जाते हैं. लेकिन स्वास्थ्य मंत्रालय का काम क्या मोटिवेशनल स्पीच देने का है? या वास्तविक आंकड़े देश के सामने रखने और उनके समाधान पर काम करने का?
मीडिया जो तस्वीर पेश कर रहा है
लाशों से उठती लपटें. ऑक्सीजन के लिए बिलखते लोग. नदियों में बहती लाशें. अमानवीयता की हदों को पार करते आपदा में अवसर ढूंढते कुछ लोग. सोया हुआ सिस्टम. आपस में तू-तू मैं-मैं में उलझी राजनीति. समाचार चैनल्स की ये कोरोना काल की तस्वीर है. बेशक, ये सब आज की सच्चाई है. लेकिन क्या इस वक्त लोग सिर्फ यही देखना या जानना चाहते हैं? या सबसे ज्यादा यह जानना चाहते हैं कि शताब्दियों का जो संकट खड़ा है उससे हम निकलेंगे कैसे? हम और हमारे अपनों की रक्षा-सुरक्षा कैसे होगी? हम क्या करें और क्या नहीं करें? कहां से उम्मीद की कोई किरण दिख रही है, जिसे थामकर हम अंधेरे से बाहर निकल सकते हैं?
राज्य सरकारें कोरोना नियंत्रण के जो दावे कर रही हैं
देश भीषण संकट में है. लेकिन तमाम राज्य सरकारों के दावे हैं कि उन्होंने संकट को नियंत्रित किया है. चीजें पटरी पर हैं. उनका काम अव्वल है. देश राज्यों से मिलकर बना है. सवाल है कि जब सारे राज्यों ने अपने हिस्से का काम अच्छे से किया है, तो यह महासंकट क्यों है?
राजनीति में जो जानलेवा मतभेद है
देश ने सीमा पर कई बार दुश्मनों से सामना किया. नुकसान की तकलीफ मिलकर सही. जीत का जश्न साथ-साथ मनाया. खेल के मैदान में कई उपलब्धियां हासिल की, मिलकर उत्सव मनाया. नाकामियों पर हम सब निराश हुए. ज्ञान-विज्ञान में कई शिखर छुए, तो ये देश की उपलब्धि मानी गई. लेकिन सबसे बड़ी चुनौती आज हमारे सामने है, तो हमारी राजनीति क्या कर रही है? सारा दोष सामने वाले पर डाल रही है और जो कुछ थोड़ी राहत की चीजें हो रही हैं उसे अपने हिस्से में समेटने में लगी है. राजनीति का ये नया 'अति स्वार्थी चरित्र' है. यह देश के लिए बहुत घातक है. यह सच को स्वीकारने नहीं देता और सच स्वीकारे बिना मानवता के सामने खड़ी इस सबसे बड़ी चुनौती का कोई समाधान नहीं है.
अति ने जो बेड़ा गर्क कर रखा है
जरूरत 'अति की महामारी' को रोकने की है. क्योंकि अति की इस इंतेहा में आम आदमी कन्फ्यूज है. न कही जा रही सच बातों पर यकीन कर पा रहा है. और न बताई जा रही झूठ बातों को नकार पा रहा है. नाकामियों का हिसाब बाद में कर लेंगे. फिलहाल देखना ये है कि केंद्र और राज्यों के किन अच्छे कामों और फैसलों से हमें मौजूदा संकट से बाहर निकलने में कितनी मदद मिल सकती है.