फिर याद आए पटेल

बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व का गुजरात में मुख्यमंत्री बदलने का फैसला जितना चौंकाने वाला था, उतना ही आश्चर्यजनक रहा इस पद के लिए भूपेंद्र पटेल का चयन।

Update: 2021-09-14 02:04 GMT

बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व का गुजरात में मुख्यमंत्री बदलने का फैसला जितना चौंकाने वाला था, उतना ही आश्चर्यजनक रहा इस पद के लिए भूपेंद्र पटेल का चयन। पटेल पहली बार इसी विधानसभा के लिए चुने गए थे। वहीं, उत्तराखंड और कर्नाटक के बाद गुजरात तीसरा बीजेपी शासित राज्य है, जहां हाल-फिलहाल मुख्यमंत्री बदला गया। यहां अगले साल के आखिर में विधानसभा चुनाव हैं। इसलिए इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि यह कदम किसी भी सत्ता विरोधी लहर की आशंका को पूरी तरह खत्म करने के लिए उठाया गया है। खासतौर पर कोविड को लेकर लोग रूपाणी सरकार से नाराज थे।

ढांचे की अपर्याप्तता की खबरों के बीच प्रदेश पार्टी अध्यक्ष और रूपाणी के बीच तालमेल की कमी भी सुर्खियों में रही थी। ऐसे में नेतृत्व परिवर्तन का यह फैसला एक तीर से दो शिकार करने का प्रयास कहा जा सकता है। नए मुख्यमंत्री पटेल समुदाय से हैं। यह समुदाय अरसे से बीजेपी समर्थक और पार्टी की हिंदुत्व की राजनीति का आधार रहा है।
पटेल पिछले कुछ वर्षों से बीजेपी से नाराज चल रहे थे। खासतौर पर सूरत निकाय चुनावों में आम आदमी पार्टी को मिले समर्थन के बाद बीजेपी को लगा कि उसे पटेलों को गोलबंद करना जरूरी है। इसलिए भूपेंद्र पटेल को नया सीएम बनाया गया है। यह फैसला सत्ताधारी पार्टी की रणनीति में एक और बदलाव की ओर इशारा करता है।
गुजरात में विजय रूपाणी, महाराष्ट्र में गैर-मराठा देवेंद्र फड़णवीस, हरियाणा में गैर-जाट मनोहर लाल और झारखंड में गैर-आदिवासी रघुबर दास को मुख्यमंत्री बनाकर बीजेपी ने पहले संदेश दिया था कि वह प्रदेश राजनीति में दबदबा रखने वाली जाति का मुख्यमंत्री नहीं बनाएगी। इसके पीछे एक दलील तो यह थी कि वह जात-पात की राजनीति को बढ़ावा नहीं देना चाहती। दूसरी बात यह कि प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता पर सवार बीजेपी को अन्य कारकों की ज्यादा चिंता करने की जरूरत महसूस नहीं हो रही थी। मगर बदले हालात में कर्नाटक में येदियुरप्पा को मुख्यमंत्री पद से हटाने के बाद उनके लिंगायत समुदाय से ही अगला मुख्यमंत्री चुना जाना और फिर गुजरात में पटेल समुदाय का मुख्यमंत्री बनाया जाना बताता है कि बीजेपी भी राजनीति के प्रचलित और समयसिद्ध फॉर्म्युलों की एक हद से ज्यादा अनदेखी करने के मूड में नहीं है।
संभव है कि विपक्ष इसे मोदी फैक्टर का असर घटने और पिछली बीजेपी सरकार की नाकामी के सबूत के रूप में पेश करना चाहे, लेकिन राजनीति में कामयाबी से बड़ी कोई कसौटी नहीं होती। बीजेपी की भी इस नई रणनीति की सार्थकता अगले विधानसभा चुनावों में ही साबित होनी है।


Tags:    

Similar News

-->