मातृभाषा में शिक्षा को प्रोत्साहन मिलने से मजबूत होगी हमारी ज्ञान-परंपरा

मजबूत होगी हमारी ज्ञान-परंपरा

Update: 2022-02-25 14:13 GMT
आचार्य राघवेंद्र प्रसाद तिवारी। पिछले कुछ वर्षों में मातृभाषाओं की महत्ता को स्थापित करने की दृष्टि से सार्थक प्रयास हो रहे हैं। कई संस्थानों में चिकित्सा, विधि और अभियांत्रिकी की पढ़ाई हिंदी माध्यम में प्रारंभ हो गई है। आशा है कि आगामी वर्षों में ये पाठ्यक्रम अन्य भारतीय भाषाओं में भी उपलब्ध होंगे। राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 भारतीय भाषाओं की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। इस नीति के अंतर्गत प्राथमिक स्तर से लेकर उच्च शिक्षा एवं शोध तक भारतीय भाषाओं के माध्यम से औपचारिक पठन-पाठन को प्रोत्साहित करने की संस्तुति की गई है। उल्लेखनीय है कि इस नीति के अनुसार प्राथमिक स्तर पर पांचवीं कक्षा और यदि संभव हो तो आठवीं कक्षा तक मातृभाषा के माध्यम से ही शिक्षा प्रदान की जाएगी।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 की संस्तुतियों के अनुरूप भारतीय भाषाओं में अधिकाधिक पाठ्यपुस्तकें और बाल साहित्य तैयार करने की आवश्यकता है। हमें भारतीय भाषाओं में शिक्षण के लिए समर्थ अध्यापकों को तैयार करना होगा। इसके अलावा, स्थानीय भाषाओं के जनसंचार माध्यमों को भी यथोचित स्थान देना होगा। हमें इन भाषाओं में संचित ज्ञान कोष को शोध के माध्यम से उद्घाटित करना होगा और उसे औपचारिक विमर्श का अभिन्न अंग बनाना होगा। राष्ट्रीय परीक्षण एजेंसी द्वारा देश की 13 विविध भाषाओं में प्रवेश परीक्षाएं संपन्न कराना इस दिशा में एक महत्वपूर्ण पहल है। प्रस्तावित भारतीय अनुवाद एवं निर्वचन संस्थान उपरोक्त प्रयासों में गतिशीलता लाने के साथ ही नए आयाम भी स्थापित करेगा।
भाषा और बोली किसी भी समुदाय के ऐतिहासिक-सांस्कृतिक विरासत, ज्ञान-परंपरा, सामुदायिक प्रतिभा एवं कौशल गाथा की पोषक एवं संवाहक मानी जाती हैं। इनके माध्यम से हम भावी एवं आगामी पीढ़ी को संपोषणीय एवं गौरवशाली भविष्य के लिए तैयार कर सकते हैं। भारत की प्रतिष्ठा एक बहुभाषिक समाज के रूप में सर्वविदित है। देश के अधिकांश नागरिकों में बहुभाषी होने की क्षमता है। वे दैनिक जीवन में शिक्षण और औपचारिक-अनौपचारिक कार्यव्यवहार एवं जनसंचार के माध्यमों से विभिन्न भारतीय भाषाओं एवं बोलियों से परिचित होते रहते हैं। यह परिचय भारतीय भाषाओं में पारस्परिकता के माध्यम से राष्ट्रीय भावना को पोषित एवं पल्लवित करता है। हमारी बहुभाषिकता एक ओर व्यक्तिनिष्ठ गुणों जैसे- सृजनात्मकता, समस्या समाधान की क्षमता में योगदान करती है, तो वहीं दूसरी ओर सामाजिक सहिष्णुता और राष्ट्रीय एकता की भावना को सुदृढ़ करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करती है। यह विचार और ज्ञान की व्यवस्थाओं को परस्पर जोड़ती है। हम भाषाओं के माध्यम से केवल रोजमर्रा का संप्रेषण ही नहीं करते, अपितु वे हमारी अस्मिता का अभिन्न अंग भी बन जाती हैं। इनके जरिये हम सांस्कृतिक विरासत का संवहन करते हैं। साथ ही सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक सक्रियता को भी अर्थ प्रदान करते हैं।
मातृभाषा हमारे लिए घरेलू बोलचाल की भाषा मात्र नहीं है, अपितु यह जीव और जगत के बीच बौद्धिक, सांवेगिक और आध्यात्मिक संबंध स्थापित करने का उपकरण है। भारत की बहुभाषिकता ही इसकी बौद्धिक और सांस्कृतिक विरासत को समृद्ध एवं व्यापक बनाती है। कई बार हम इस बहुभाषिकता को संदेह की दृष्टि से देखते हैं, किंतु भारतीय भाषाओं में निहित एकत्व का सूत्र हमें शांति और सौहार्द के साथ शाश्वत जीवन की ओर अग्रसर करता है। देश की वास्तविक समस्या प्रयोजनमूलक क्षेत्रों जैसे- कानून, चिकित्सा, शिक्षा और कार्यालयीन प्रयोगों में भारतीय भाषाओं की उपेक्षा की गई है। इस उपेक्षा का एक बहुत बड़ा कारण मैकालेवादी शिक्षा पद्धति है। इसके द्वारा भारतीय भाषाओं को सर्वाधिक नुकसान पहुंचाने का कार्य किया गया।
सर्वप्रथम हम भारतीय भाषाओं में संचालित होने वाली पाठशालाओं एवं अन्य शिक्षण संस्थानों को दोयम दर्जे का मानने लगे। इनके स्थान पर अंग्रेजी भाषा को शिक्षा के सार्वभौमिक माध्यम के रूप में स्वीकार कर लिया। परिणामस्वरूप विद्यार्थियों, अध्यापकों और शिक्षित वर्ग में अपनी भाषा और संस्कृति के प्रति उपेक्षा की प्रवृत्ति पनपने लगी। दूसरा हमने औपचारिक कार्य-व्यापार में पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान और पद्धति को भी श्रेष्ठ मान लिया। फलस्वरूप वर्तमान पीढ़ी विदेश में बसने का स्वप्न संजोने लगी एवं पाश्चात्य संस्कृति की वशीभूत हो गई। लिहाजा हम अपनी संस्कृति एवं भाषाओं को गरीबी एवं पिछड़ेपन का पर्याय मानने लगे।
हम पढऩे-लिखने एवं औपचारिक विमर्श में सुगमता के लिए भले ही अंग्रेजी और मानकीकृत हिंदी जैसी भाषाओं का प्रयोग करें, लेकिन अपने पारिवारिक सदस्यों, बुजुर्र्गों, पड़ोसियों एवं समभाषी मित्रों से संप्रेषण के लिए मातृभाषा ही श्रेयस्कर होगी। मातृभाषा ही हमारे मन-मस्तिष्क को शीतलता प्रदान करती है। दुर्भाग्यवश आज अनेक भारतीय भाषाएं एवं बोलियां संकट के दौर से गुजर रही हैं। हमारी अंत:क्रियाओं में निजता के साथ-साथ घनिष्ठता और अपनत्व के स्थान पर औपचारिकता एवं आधुनिकता इस कदर हावी हैं कि इनकी कीमत हमारी संस्कृति, भाषाओं एवं स्थानीय बोलियों को चुकानी पड़ रही है। भाषा एवं बोलियां अनौपचारिक व्यवहार में भी बहिष्कृत हो रही हंै। विधि, शिक्षा एवं स्वास्थ्य जैसे कुछेक क्षेत्र ऐसे हैं, जहां अपने विचारों एवं अनुभूतियों को अपनी भाषा में प्रकट न कर पाने के कारण जनसामान्य ठगा सा महसूस करता है।
भारतीय भाषाओं को एकरूपता और सार्वभौमिकता के पैमाने पर देखने के बजाय स्थानीय परिप्रेक्ष्य और विविधता की दृष्टि से देखना होगा। हम केवल उन्हीं भाषाओं के प्रति अपना अधिमान नहीं रख सकते जो व्यापक क्षेत्र में व्यवहृत होती हैं। सभ्यता की निरंतरता के प्रतीक भारतीय समाज की विभिन्न भाषाओं एवं बोलियों में निहित सांस्कृतिक परंपराओं, प्रकृति-केंद्रीत जीविका के अभ्यासों एवं अन्य देशज अभ्यासों के माध्यम से राष्ट्र के शाश्वत विकास को सुनिश्चित करने में सहायता मिल सकती है। इसके विपरीत अंग्रेजी भाषा में औपचारिक शिक्षा और आर्थिक गतिविधियों की सुगमता के मिथक ने देशज भाषाओं के साथ ही सांस्कृतिक गतिविधियों को भी संकटग्रस्त बना दिया है।
(ये लेखक के निजी विचार हैं)
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