कांग्रेस के सांगठनिक मतभेद
पांच राज्यों में चुनावों से पहले कांग्रेस पार्टी के भीतर जो धमाचौकड़ी मच रही है वह देश के बहुदलीय राजनीतिक लोकतन्त्र के लिए अच्छा लक्षण इसलिए नहीं है कि कांग्रेस आज भी इस देश की प्रमुख विपक्षी पार्टी है
पांच राज्यों में चुनावों से पहले कांग्रेस पार्टी के भीतर जो धमाचौकड़ी मच रही है वह देश के बहुदलीय राजनीतिक लोकतन्त्र के लिए अच्छा लक्षण इसलिए नहीं है कि कांग्रेस आज भी इस देश की प्रमुख विपक्षी पार्टी है और पूरे भारत में इसकी शानदार मानी जाने वाली विरासत के निशान बिखरे पड़े हैं। हालांकि आजादी के बाद से ही इस पार्टी से अलग-अलग होकर बीसियों राजनीतिक दल बन चुके हैं परन्तु राजनीतिक समग्रता की दृष्टि से कांग्रेस का वजूद लोकव्यापी कहा जा सकता है लेकिन हाल ही में प. बंगाल से लेकर पंजाब, गोवा व असम आदि राज्यों से जिस तरह इस पार्टी से दूसरी पार्टियों में अनुभवी नेताओं का पलायन हो रहा है उससे इस पार्टी की छवि किसी पतझड़ में खड़े हरियाले पेड़ की बन रही है। राजनीति में पीढ़ी परिवर्तन का अर्थ यह नहीं होता है कि निष्ठावान व तपे हुए अनुभवी राजनीतिज्ञों की छंटनी करके उनके स्थान पर नवोदित नेताओं को बैठा दिया जाये।भारत के सन्दर्भ में सामाजिक क्लिष्ठताओं के चलते जमीन पर पकड़ रखने वाले राजनीतिज्ञों का बहुत महत्व होता है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण कांग्रेस में आज भी मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमन्त्री कमलनाथ हैं जो राज्य में एक कर्मठ व ऊर्जावान विपक्षी नेता की भूमिका बहुत सक्रियता से निभा रहे हैं। मगर इसके उलट भारत की लोकसभा में विपक्ष के नेता के समकक्ष दर्जा प्राप्त श्री अधीर रंजन चौधरी हैं जो किसी भी ज्वलन्त विषय पर स्पष्टता और निडरता के साथ पार्टी की विचारधारा के अनुसार विचार व्यक्त नहीं कर पाते हैं। यह विरोधाभास कांग्रेस को ऐसी दिशा में धकेल रहा है जिसमें सामान्य नागरिक मतिभ्रम में पड़ जाता है। सबसे ताजा उदाहरण उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमन्त्री हरीश रावत का है जिन्होंने अपनी पार्टी की शीर्ष संगठन इकाई की मनमानी से दुखी होकर राजनीति छोड़ने तक का विचार व्यक्त कर दिया है। हो सकता है कि श्री रावत की यह प्रतिक्रिया कांग्रेस संगठन के उत्तराखंड के चुनाव प्रभारी देवेन्द्र यादव के किसी काम से झुंझला कर की हो परन्तु अपने विचारों को फेसबुक के माध्यम से व्यक्त करके श्री रावत ने यह तो साफ कर ही दिया है कि नवोदित नेता या संगठक पार्टी के चुनाव प्रबन्धन को अपने तरीके से ही चलाना चाहते हैं। लोकतन्त्र में चुनाव संचालन वास्तव में एक शास्त्रीय कला होती है जिसमें किसी भी राजनीतिक दल के नेता या प्रबन्धन प्रभारी को आम जनता की भावनाएं समझते हुए ऊपर से लेकर नीचे तक के कार्यकर्ताओं को ऐसी डोर से बांधे रखना पड़ता है जिसका सिरा कहीं से भी कमजोर न होने पाये। यह कला रातों- रात कोई भी नेता नहीं सीख सकता। इसकी असली वजह यह होती है कि चुनाव प्रभारी को बूथ स्तर से लेकर शीर्ष स्तर तक के प्रबन्धन को अपनी पार्टी की लय के साथ पिरोना पड़ता है। श्री रावत उत्तराखंड में कांग्रेस के चुनाव प्रचार के प्रमुख हैं अतः चुनाव प्रभारी को यह देखना पड़ेगा कि उनके काम में आने वाली सभी बाधाओं को इस प्रकार दूर किया जाये जिससे आम कार्यकर्ता उत्साहित होकर पार्टी के पक्ष में पूरी लगन के साथ काम कर सके। इससे पूर्व पंजाब में हमने कांग्रेस की भीतरी खींचतान को देखा था जिसमें कैप्टन अमरिन्दर सिंह को हटा कर चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमन्त्री बनाया गया था। हालांकि कांग्रेस आलाकमान का यह निर्णय पंजाब की राजनीतिक स्थिति को देखते हुए दूर की कौड़ी समझा गया था और इसकी प्रशंसा भी हुई थी मगर नवनियुक्त प्रदेश पार्टी अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू की अलग थपली से राग निकालने की आदत अभी तक गई नहीं है। चुनावों में पूरी पार्टी को एक एकीकृत इकाई के रूप में लोगों के सामने जाना पड़ता है जिससे विरोधी दल उसकी आपसी खींचतान का लाभ न उठा सकें। इसकी वजह यह है कि मतदाता कमोबेश पार्टी को ही वोट देते हैं बेशक नेतृत्व की महत्ता भी होती है मगर संसदीय प्रणाली में नेता का प्राथमिक चुनाव तो उसकी पार्टी ही करती है। अतः चुनावी समय में पार्टी की एकजुटता का बहुत महत्व होता है। संपादकीय :भारतीय हाकी सिरमौर बनना ध्येय होभारत और भारत की संसदजानलेवा ओमीक्राेन : तीसरा युद्धआपका स्नेह आशीर्वाद , बहुत याद आता हैजम्मू-कश्मीर की बढ़ी सीटेंअफस्पाः संवेदनशील मुद्दाकांग्रेस के समक्ष मौजूदा दौर में जिस प्रकार चुनौतियों का अम्बार लगा हुआ है, उन पर पार पाने के लिए आवश्यक है कि पार्टी जनता के मुद्दों पर एक स्वर के साथ बोले और संगठन के स्तर पर ही नेताओं के मतभेद सुलझाये जायें। पार्टी को समझना होगा कि यह 2021 चल रहा है और साठ व सत्तर के दशक के वे दिन काफूर हो चुके हैं जब इसके पास इन्दिरा गांधी जैसी करिशमाई नेता हुआ करती थीं। अतः बहुत जरूरी है कि संसद से लेकर सड़क तक इसके पास ऐसे समर्पित व विद्वान व कर्मठ नेताओं की मंडली हो जो सड़कों पर कार्यरत कार्यकर्ताओं में ऊर्जा भर सकें। यह प्रयास समन्वित होना चाहिए और इस प्रकार होना चाहिए कि आम जनता में सकारात्मक सन्देश जाये। इस सन्दर्भ में कांग्रेस पार्टी मध्य प्रदेश में श्री कमलनाथ व उत्तर प्रदेश में श्रीमती प्रियंका गांधी के नेतृत्व में जिस रणनीति पर चल रही है उसे अन्य राज्यों के लिए नजीर माना जा सकता है। जबकि इसके दूसरी तरफ हम देखते हैं कि प. बंगाल में अधीर रंजन चौधरी के लोकसभा में नेता रहते इस पार्टी का पूरे राज्य से सफाया हो चुका है। इन कारणों के बारे में पार्टी को गंभीरता से विचार करना चाहिए क्योंकि लोकतन्त्र में सशक्त विपक्ष बहुत जरूरी होता है। भारत की सामाजिक बनावट के सन्दर्भ में तो यह और भी ज्यादा महत्वपूर्ण है क्योंकि यह देश बहु धार्मिक, बहु पंथ व मतवादी और विविध भाषा व संस्कृतियों से भरपूर देश है।