संविधान की शपथ : बदल गया है सामरिक दृष्टिकोण
क्योंकि मेरे पाकिस्तान जाने से पूरी फौज के मनोबल पर बुरा असर होता।
भारत की सेना अपने संविधान की शपथ पर काम करती है। संविधान कहता है कि सेना के तीनों अंगों को राजनीतिक नेतृत्व के सामरिक दृष्टिकोण का पालन करना होगा। इसका इम्तिहान सेना प्रमुख होने के नाते मुझे करगिल युद्ध के दौरान देना पड़ा। प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी चाहते थे कि सेना करगिल से पाकिस्तानियों को खदेड़ दे, लेकिन खुद नियंत्रण रेखा (एलओसी) पार नहीं करे। इस पर मेरा सरकार से गंभीर मतभेद था। मैंने कहा अभी तो मैं आपकी बात मान रहा हूं, लेकिन समय आने पर आपको एलओसी पार करने की इजाजत देनी पड़ेगी। वाजपेयी साहब मुस्करा कर रह गए।
आजाद भारत में सरकार की सैन्य नीति हमेशा से रक्षात्मक और प्रतिक्रियावादी रही, लेकिन अब हमारा सामरिक दृष्टिकोण आक्रामक होता दिख रहा है। राजनीतिक नेतृत्व ने इशारा भर किया और उसी सेना ने एलओसी की परवाह किए बिना सर्जिकल स्ट्राइक और बालाकोट जैसे ऑपरेशन को अंजाम दिया। दूसरी तरफ पूर्वी लद्दाख में चीनी सेना की सोच से परे जाकर पैंगोंग इलाके की सामरिक महत्व वाली चोटियों पर दबदबा कायम किया। आजाद भारत के 75 साल में राजनीतिक नेतृत्व की सामरिक नीति का यह बदलाव सेना के लिए सबसे सुखद है, क्योंकि भारत को स्ट्रेटिजिक स्टेबलाइजर की भूमिका निभानी है। उपमहाद्वीप की शांति और समृद्धि के लिए भारत का मजबूत होना जरूरी है। इसमें सेना की भूमिका अहम है और उसे अपनी जरूरत के हिसाब से फैसले लेने होंगे।
हमें सैन्य विरासत अंग्रेजों से नहीं, बल्कि हमारे धर्म और संस्कृति से मिली है। सेना का यह मूल्य अंग्रेजी शासन के हजारों साल पहले से है। भगवद् गीता के सत्य के साथ खड़े रहने के संदेश और गुरु गोविंद सिंह के सवा लाख से एक लड़ावां जैसे दर्शन हमारी सेना के मार्गदर्शक हैं। हमारा प्रशिक्षण ऐसा है कि हम पहले देश, फिर अपने साथी और सबसे अंत में खुद अपने बारे में सोचते हैं। एक सैनिक के तौर पर मेरी निजी उपलब्धि कॉमरेडरी रही है। कॉमरेडरी यानी दूसरे सैनिक के साथ दोस्ती और अटूट भरोसे की घुट्टी। सिर्फ मेरी नहीं, बल्कि सेना के हरेक जवान का सबसे अहम हासिल कॉमरेडरी ही है। यानी लाखों भारतीय सैनिक एक-दूसरे पर अटूट विश्वास कायम रखते हैं। यह भारतीय फौज की सबसे ठोस अंदरूनी ताकत है और हम सब की जिम्मेदारी है कि इसे बचाकर रखें।
युद्ध लड़ने की कला निरंतर बदलती रहने वाली प्रक्रिया है। आजादी मिलते ही पाकिस्तानियों का कश्मीर पर हमला और 1962 के भारत-चीन जंग से अब तक हमने लंबा सफर तय किया है। साजो सामान और सुविधाओं के मामले में वाकई पहले के मुकाबले कोई तुलना नहीं। हमने 75 साल बड़े गौरव के साथ गुजारे। युद्ध और शांति, दोनों स्थिति में अपनी शालीनता बरकरार रखी। पर अब आने वाले दिनों में हमें जिस तरह की लड़ाई लड़नी है, उसके मद्देनजर कुछ बातों पर ध्यान देना जरूरी है। पहला तो बजट है।
सरकार चाहे जो भी हो, उसे फौज पर जीडीपी का कम से कम तीन फीसदी खर्च का लक्ष्य रखना ही होगा। शत्रुतापूर्ण व्यवहार रखने वाले हमारे दोनों पड़ोसियों के साथ-साथ भू-राजनीति का हम पर जो असर पड़ रहा है, उसके खिलाफ मजबूत मोर्चाबंदी करनी ही होगी। लिहाजा सरकार को रक्षा बजट को लेकर गंभीर होने की जरूरत है। मुश्किल यह है कि सरकार रक्षा खरीद मामले को अफसरशाही के चश्मे से देखती है और उसी हिसाब से फैसले लेती है। रक्षा से जुड़े तकनीकी पहलुओं पर अफसरशाही अक्सर मार खाती है, जिसका खामियाजा फौज को भुगतना पड़ता है। अब सेना में चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ की शुरुआत हुई है। उम्मीद है, सरकार अब फैसले के पुराने ढर्रे से हटकर नई सोच के साथ फैसले लेगी।
सरकार को फौज के मानव संसाधन पर ध्यान देने की भी जरूरत है। यह बात भले छोटी या अटपटी लगे, लेकिन है अहम। फौज की वरिष्ठता और काबिलियत के आधार पर पदोन्नति की अपनी एक ठोस व पुख्ता व्यवस्था है। लेकिन आजकल एक बात हवा में तैर रही है कि एक सीमा के बाद पदोन्नति के लिए राजनीतिक हस्तक्षेप की जरूरत होती है। मैं व्यक्तिगत तौर पर ऐसा नहीं मानता। अगर ऐसा होता है, तो यह भारत जैसे देश की फौज के लिए घातक साबित होगा। फौज के कैरियर को नौजवानों के लिए और आकर्षक बनाना होगा।
जहां तक सैन्य जरूरतों का सवाल है, उसके लिए आत्मनिर्भर भारत के तहत चलाया जा रहा अभियान काफी सराहनीय है। हमने करगिल युद्ध में देखा कि हमें 75 फीसदी सैन्य साजो सामान के लिए विदेशों पर निर्भर रहना पड़ा। इस वजह से जो मुश्किलें पेश आईं, उसे आसानी से नहीं बताया जा सकता। अगर भारत सैन्य-रक्षा उत्पादन में आत्मनिर्भर होता है, तो यह सैन्य लिहाज से आजाद भारत की दूसरी बड़ी उपलब्धि होगी। बस सरकार फौज को राजनीतिक हस्तक्षेप और भ्रष्टाचार से दूर रखे।
करगिल युद्ध कई मायने में अद्वितीय था। परमाणु ताकत से लैस दो पड़ोसी देश पहली बार परंपरागत युद्ध लड़ रहे थे, जिसका अंतिम परिणाम काफी भयावह हो सकता था। एक दिलचस्प पहलू यह है कि दोनों देशों के जनरलों का जन्मस्थान उस दुश्मन देश में था, जिसके खिलाफ वे लड़ रहे थे। पाक जनरल परवेज मुशर्रफ की पैदाइश दिल्ली की थी और मेरी पाकिस्तान के खैबर पख्तूनख्वा प्रांत के डेरा इस्माइल खान की। लेकिन एक सैनिक होने के नाते कभी यह बात दिमाग पर हावी नहीं हुई। करगिल की जंग हारने के बाद जनरल परेवज मुशर्रफ भारत के साथ बातचीत का माहौल बनाने की कोशिश कर रहे थे, जो दो साल बाद आगरा सम्मेलन के रूप में हुआ। उन्हें मालूम था कि मैं बातचीत के पक्ष में नहीं था।
प्रधानमंत्री वाजपेयी साहब से मैंने कहा कि अभी युद्ध में बहुत से सैनिक शहीद हुए हैं और उसी दुश्मन देश से बातचीत से अपनी सेना में अच्छा संदेश नहीं जाएगा। शायद इसकी भनक परवेज मुशर्रफ को लगी, तो उन्होंने अपने डिफेंस अटैची के जरिये मेरे जन्मस्थान डेरा इस्माइल खान आने का मुझे औपचारिक निमंत्रण भेजा। मैंने इस बारे में प्रधानमंत्री को बताया, तो उन्होंने कहा कि अगर तुम जाना चाहते हो, तो मुझे कोई आपत्ति नहीं होगी। लेकिन मैंने वह निमंत्रण ठुकरा दिया, क्योंकि मेरे पाकिस्तान जाने से पूरी फौज के मनोबल पर बुरा असर होता।