सरकार एमएसपी की घोषणा इसलिए करती है, ताकि किसानों से उनके उत्पाद घोषित मूल्य से कम में नहीं खरीदे जाएं। मगर धान और गेहूं को छोड़ दें, तो बाकी फसलों का बाजार मूल्य एमएसपी से ज्यादा है। इसी कारण किसान उन फसलों को शायद ही एमएसपी पर बेचना पसंद करते हैं। यहां 2015 की शांता कुमार कमेटी की उस रिपोर्ट को भी याद कर लेना चाहिए, जिसमें कहा गया था कि देश भर में सिर्फ छह प्रतिशत किसान एमएसपी का लाभ उठा पाते हैं। ये मूलत: वही किसान हैं, जो धान और गेहूं उपजाते हैं। अभी का आंदोलन भी अमूमन इन्हीं किसानों का है।
अगर एमएसपी की कानूनी गारंटी दे दी गई, तब भी गोदामों में इन अनाजों (गेहूं और चावल) की कितनी बर्बादी होती है, यह कोई छिपा तथ्य नहीं है। बेशक, कोरोना संक्रमण काल में 84 करोड़ आबादी के भरण-पोषण के लिए सरकार ने जो खाद्यान्न बांटा, वह सरकारी खरीद से ही संभव हो सका, लेकिन अगर फसलों की गारंटी मिलने के बाद भी जरूरत नहीं पड़ी, तो उनको खरीदेगा कौन? यह पूरी तरह से मांग और आपूर्ति से जुड़ा मसला है। सरकार भी एक हद तक ही फसल खरीद सकेगी। यही कारण है कि हमें यह सोचना चाहिए कि किसानों को बाजार में उनकी फसल का बेहतर मूल्य कैसे मिल सके?
हमारा प्रयास किसानों को फसल पर न्यूनतम नहीं, बल्कि अधिकतम मूल्य देने का होना चाहिए। पूरे देश में एक समान एमएसपी इसलिए भी व्यावहारिक नहीं है, क्योंकि अलग-अलग क्षेत्रों में किसानों की लागत अलग-अलग है। कहीं खेती के लिए अनुकूल माहौल है, तो कहीं प्रतिकूल। भौगोलिक परिस्थितियां भी अलग-अलग हैं। कृषि चूंकि राज्य का विषय है, इसलिए इस पर केंद्र अपने तईं निर्देश नहीं जारी कर सकता। उसे राज्यों से सलाह-मशविरा करनी होगी। लिहाजा, कृषक उत्पादक संगठन (एफपीओ) को मजबूत करने का विचार ही सुखद है। केंद्र सरकार ने 10 हजार नए एफपीओ के गठन की बात कही है और इसके लिए 6,865 करोड़ रुपये का बजटीय प्रावधान किया है। हमें इसी तरह की नीति बनानी होगी, ताकि यह तय कर सकें कि किस इलाके में कौन सी फसल उपजाई जाएगी, उनकी कितनी पैदावार होगी, कहां उनका प्रसंस्करण करेंगे, कहां खपत होगी आदि। इसके लिए नीतिगत मोर्चे पर काफी मेहनत करने की जरूरत है।
सरकार कोई व्यापारी नहीं है, वह सुविधा देने वाली एजेंसी है। वह खेती-किसानी को प्रोत्साहित कर सकती है, किसानों से लेन-देन नहीं कर सकती। यह काम एफपीओ के माध्यम से किया जा सकता है। ऐसी कोई व्यवस्था ही अनुकूल है, जिसमें किसान अपनी फसल अपने हिसाब से बेच सकें। वे सरकारी खरीद के मोहताज न रहें। सवाल यह भी है कि कितने राज्य गेहूं-चावल उपजाते हैं? और फिर, जब चौतरफा उन्नत कृषि की वकालत की जाती है, तब हम ऐसी फसल क्यों उगाएं, जिनमें पानी की ज्यादा जरूरत हो? आज कई देश धान से इसलिए तौबा कर चुके हैं, क्योंकि इसको बेहतर पैदावार के लिए ढेर सारा पानी चाहिए। हमें भी कुछ ऐसा ही सोचना चाहिए।
आज जरूरत किसानों की आमदनी बढ़ाने की है। एमएसपी की कानूनी गारंटी दे भी दी गई, तो फायदा कुछ किसानों को ही मिल सकेगा। बाकी मुंह देखते रह जाएंगे। इसीलिए एफपीओ को मजबूत बनाना ही होगा। सरकार सुविधाएं दे सकती हैं, नीतियां बना सकती हैं, स्टार्टअप शुरू कर सकती हैं, लेकिन उन सुविधाओं का लाभ किसान किस कदर अपने हित में उठा सकते हैं, यह एफपीओ के माध्यम से आसानी से हो सकता है। 'आत्मनिर्भर भारत' की तरह हमें 'आत्मनिर्भर कृषि' की तरफ बढ़ना होगा। बाजार और प्रसंस्करण क्षेत्र को हमें मजबूत बनाना होगा। फसलों की गुणवत्ता सुधारनी होगी। तभी किसानों को अपने खेत में ही फसलों के बेहतर मूल्य मिल सकते हैं। इससे उनकी आमदनी स्वत: बढ़ जाएगी।
जब परिस्थितियां अनुकूल न हों और छोटे व सीमांत किसानों की संख्या 86 फीसदी हो, तब तो ऐसे प्रयास जल्द किए जाने की जरूरत है। हमें यह समझना ही होगा कि छोटे व सीमांत किसानों की उपज इतनी नहीं होती कि वे भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) के भरोसे फसलों की खरीद के लिए रुके रहें। वे स्थानीय बाजार में ही अपनी फसल बेच लेना चाहते हैं, ताकि उनको तुरंत पैसे मिल जाएं। यहीं पर आढ़ती जैसी व्यवस्था किसानों का दोहन करती है। ये लोग औने-पौने दाम पर किसानों से फसल खरीदते हैं और उसको ऊंचे मुनाफे पर बाजार में बेचते हैं। हमारा यही प्रयास होना चाहिए कि छोटे और सीमांत किसान स्थानीय बाजार में भी अगर जाते हैं, तो उन्हें अपनी फसलों की वाजिब कीमत मिले। कारोबारी रुकावटें जल्द से जल्द खत्म हों। उनका ऐसा कोई संगठन होना ही चाहिए, जो उनके शोषण को रोक सके। इसीलिए, हमारे देश के किसानों की खुशहाली मात्र एमएसपी की कानूनी गारंटी से संभव नहीं। इसका लाभ कुछेक किसान ही उठा पाएंगे। पूरे किसान समाज की बेहतरी के लिए हमें कई दूसरे प्रयास करने होंगे।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)