धर्मेतर पहचान

सांस्कृतिक चेतना के लिहाज से आज हम एक कुत्सित दौर में हैं। आज सम्यक चेतना वाला कोई आध्यात्मिक व्यक्ति भी, यह कह पाने का साहस नहीं कर पाता है कि मनुष्य की बुनियादी चेतना का संबंध, उसकी ‘धर्मेतर पहचान’ से होता है।

Update: 2022-05-29 04:37 GMT

विनोद शाही: सांस्कृतिक चेतना के लिहाज से आज हम एक कुत्सित दौर में हैं। आज सम्यक चेतना वाला कोई आध्यात्मिक व्यक्ति भी, यह कह पाने का साहस नहीं कर पाता है कि मनुष्य की बुनियादी चेतना का संबंध, उसकी 'धर्मेतर पहचान' से होता है।

रमण महर्षि, अरविंद और जे. कृष्णमूर्ति जैसे लोग, मौजूदा समय में, फिर से जरूरी लगने लगे हैं। ये धर्म की ज्ञानमीमांसा करने वाले लोग थे। वे ऐसे सवाल उठाते हैं, जिनके जवाब धर्म के पास नहीं होते, पर जिनसे मानवजाति का सांस्कृतिक रूपांतर संभव होता है।

ये लोग, मनुष्य को, बिना किसी धार्मिक कर्मकांड में उलझाए, खुद को सीधे, अपने तौर पर, जान सकने की ओर ले जाने वाले लोग हैं। ये मनुष्य की चेतना के रूपांतर के जरिए, समाज के रूपांतर की भूमिका बनाने की कोशिश करते हैं। तयशुदा धर्मों और उनकी संस्थाओं के बाहर खड़े लोग हैं, जो मनुष्य के वास्तविक स्वरूप को, एक तरह की 'धर्मेतर पहचान' की तरह खोजने और पाने में मदद करते हैं।

पर दिक्कत यह है कि आधुनिक काल के ये आध्यात्मिक लोग भी, गोरखनाथ, कबीर और नानक की तरह, लोक चेतना के नए नायक नहीं हो सके थे। इसलिए हमें अचानक वहां लौटना पड़ेगा, उस ग्यारहवीं सदी में, जब गोरख 'अलख निरंजन' को जगाने वाले अपने योगियों के साथ, पूरे भारत की चेतना का रूपांतर करने के लिए प्रस्तुत हो गए थे।

एक तीसरी वजह भी है। गोरख के साथ हिंदी पहली दफा आकार लेती दिखाई देती है और आज हमारे दौर में हिंदी नवजागरण की संभावनाएं अब तक की सर्वाधिक अवरुद्ध स्थिति में हैं।

हिंदी का विकास अपने मूल रास्ते से भटक गया है। गोरखनाथ, अमीर खुसरो और कबीर के अंग-संग जिस हिंदी का विकास हो रहा था, वह बहुत-सी भाषाओं के समन्वय और आपसदारी वाली भाषा थी। संस्कृत से निकली अपभ्रंशों के अरबी-फारसी से हेल-मेल से जो भाषा बनी थी, उसे हिंदी या हिंदवी कहा गया।

अनेक संस्कृतियों के सच का सार वहां मनुष्य को मनुष्य की तरह बोलने में मदद कर रहा था। ग्यारहवीं शती से लेकर सोलहवीं शती के मध्य तक यह सिलसिला चलता रहा। फिर ऐसी हिंदी लिखने और बोलने की बात होने लगी, जो अधिकाधिक 'वेद पुराण निगमागम सम्मत' हो। अरबी-फारसी के मेलजोल से हमारे यहां जिस हिंदी का विकास होने लगा था, उस प्रक्रिया को सोलहवीं शती के मध्य में उलट दिया गया। नतीजतन हिंदी का, हिंदी की तरह विकास रुक गया।

फिर उन्नीसवीं शती में अंग्रेजों के आने के बाद तो हिंदी का, हिंदी और उर्दू में स्पष्ट और तीखा सांप्रदायिक विभाजन हो जाता है। आजादी की लड़ाई के दौरान केवल गांधी हैं, जो हिंदी को हिंदुस्तानी के रूप में ग्रहण करते हैं और उसे अपने उसी मूल व्यक्तित्व में लौटने में मदद करते हैं, जिसकी शुरुआत गोरखनाथ से हुई थी। लेकिन तत्कालीन हिंदी साहित्य, गांधी वाले हिंदी नवजागरण की उस समन्वयवादी जमीन को अपनाने के लिहाज से दुविधा का शिकार नजर आता है।

हिंदी नवजागरण को पहले तो उसके साहित्यकारों ने कमजोर किया, फिर आजादी मिलने के बाद, हिंदी को राजभाषा के रूप में नव निर्माण ने, उसकी तेजस्विता और समन्वयी भावभूमि को करीब-करीब नष्ट कर दिया। हिंदी से उम्मीद थी कि वह भारत की विविधता मूलक संस्कृति की जुबान बनती, पर नवजागरण की यह जमीन उसके नीचे से कब सरक गई, पता ही नहीं चला।

कहां से शुरुआत करें कि हम सोलहवीं शती के मध्यकाल से रुके अपने फिर से मनुष्य हो सकने के आत्मसंघर्ष से जुड़ सकें? क्या करें कि गांधी, अपने युग की सीमाओं की वजह से, अपना जो काम बीच में छोड़ कर रुखसत हो जाते हैं, उसे उसके मुकाम तक ले जा सकें?

इसके लिए पहला काम तो हमें यही करना होगा कि हम गोरख, खुसरो, कबीर और नानक को, नए अर्थ में दोबारा खोजें। दूसरा काम हमें यह करना होगा कि गांधी के 'ईश्वर अल्लाह तेरो नाम' को आधार बना कर हम उसे भी गोरख, कबीर, नानक के, 'न को हिंदू न मुसलमान' वाली बात तक ले जाएं। पर यहां समस्या यह होगी कि वह जो न हिंदू है, न मुसलमान, न सिख है, न ईसाई, न बौद्ध है, न जैन, उसे हम उसकी नई पहचान क्या देंगे। यह प्रश्न सबसे अधिक विकट है।

गोरख ने उस धर्मेतर पहचान वाले मनुष्य को 'जोगी' कहा। हालात बदले, तो कबीर ने उसे 'साधु' का नाम दिया। जोगी और साधु की पहचान भी रूढ़ होने लगी, तो नानक ने उसे 'सिख' कहना आरंभ कर दिया। ऐसे ही रैदास के पीछे-पीछे ऐसे मनुष्य को 'भगत' की तरह देखा गया। गांधी की आजादी की लड़ाई के भीतर से 'सत्याग्रही' और 'सुराजिए' अपनी अलग पहचान के साथ सामने आए, पर वे भी अब भारत के मनुष्य मात्र की पहचान का आधार नहीं रह गए हैं।

जब हमारे यहां धर्म निरपेक्षता की बात उठी, तो अनेक लोगों का ध्यान इस बात की ओर गया कि सामान्य भारतीय धर्मनिरपेक्ष नहीं होता, पर वह 'सर्वधर्म समभाव' वाला हो सकता है। लेकिन यह बात चली नहीं, क्योंकि इसे परंपरा-पुष्ट जमीन नहीं मिल सकी। जबकि अगर हमने अपनी सांस्कृतिक परंपरा की ओर ठीक से देखा होता, तो वहां कुछ ऐसा जरूर मिल जाता, जिसका हम अपने समय के इतिहासबोध की मदद से विकास कर सकते थे।

अगर हम अपने समय के हिंदुत्व के उभार की जमीन अपनी परंपरा में कहीं ठीक से खोजने निकलते हैं, तो वह हमें आदि शंकराचार्य की परंपरा से सीधे जुड़े 'दशनामी अखाड़े' तक ले जा सकती है। अंग्रेजों के भारत में पैर जमाने आरंभ करते ही बंगाल की नवाबी हुकूमत के खिलाफ जो संन्यासी विद्रोह हुआ था, उसकी कमान दशनामियों के हाथ में थी।

दुर्गा की शक्तिमाता के रूप में पूजा को उन्होंने, भारतमाता की एक नई देवी की तरह स्थापना करके, राष्ट्रभक्ति का रूप दे दिया था। यह उनकी 'पंचायतन पूजा पद्धति' का विस्तार था। इसमें हिंदू धर्म के उदार और समन्वयी रूप की मौजूदगी को देखा जा सकता है।

संन्यासियों के उदार होने का दूसरा सबूत यह है कि उन्हें इस्लाम से संबद्ध 'फकीरों' का सहयोग मिला था। इन बातों पर गौर करेंगे, तो हम एक नए सांस्कृतिक समीकरण को जन्म देने की संभावना तक पहुंच सकते हैं। हम 'पंचायतन पूजा' की जगह 'पंचायतन या पंचायती प्रार्थना' को चुन सकते हैं।

हिंदी के मूल स्वरूप में विविध भाषाओं और संस्कृतियों के प्रति जो उदार स्वीकार भाव है, उसे सामने रखेंगे, तो हिंदी नवजागरण का हमारे मौजूदा समय की जरूरतों से संबंध बैठता भी दिखाई देने लगेगा।

विविधता, बहुलता के रास्ते के परित्याग के लिए तर्क यह दिया जाता है कि इसके कारण हिंदुओं का पराभव हुआ और उसे मुसलमानों और ईसाइयों का गुलाम हो जाना पड़ा। यह अपने भीतर के कलह, वर्ण विभाजन और शूद्रों तथा स्त्रियों के दमन आदि से संबंध रखने वाले अपने दुर्गुणों पर पर्दा डालने के लिए खोजा गया बहाना है। हिंदू जाति के पराभव के कारण, उसकी संकीर्णता, पाखंड, आत्म विभाजन और अपने लोगों के दमन में छिपे हैं।

हमारे भीतर ये बुराइयां नहीं होतीं तो हमारा पराभव भी नहीं हुआ होता। पर हम आज भी आत्म विश्लेषण से दूर भागते हैं। परंपरा के प्रासंगिक पुनर्विकास का साहस हमने खो दिया है। इससे बाहर निकलने के लिए पहल तो हम लोगों को खुद ही करनी होगी।


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