नीरज चोपड़ा के भाले ने माँ भारती के भाल पर स्वर्ण तिलक किया है। ये देश के 131 करोड़ लोगों की आकांक्षाओं का सम्मान तो है ही, पर ये पदक इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि ये भारत में खेलों को लेकर एक नई संस्कृति के विकास में बहुत महत्वपूर्ण योगदान देगा। क्रिकेट के दीवाने इस देश में किसी अभिनव बिंद्रा, दीपा करमाकर, मेरीकॉम, विजेंद्र, मीराबाई चानू, रानी रामपाल, गीता फोगाट, विनेश फोगाट, रवि दहिया, बजरंग पुनिया, लवलीना बोरगोहेन या अदिति अशोक को हम तभी जानते हैं जब वो ओलंपिक के इस विश्व मंच पर अंतिम आठ या अंतिम चार तक पहुँच कर हमारी उम्मीदों को जगा देते हैं। उसके पहले ये सभी और इनकी तरह के अनगिनत खिलाड़ी किन संघर्षों से गुजर रहे होते हैं, कैसे अपने सपनों को पूरा करने के लिए कड़ी मेहनत कर रहे होते हैं, ये कोई नहीं जान पाता। ऐसी कितनी ही कहानियाँ हैं जो अनसुनी ही रह जाती हैं। नीरज चोपड़ा ने मेहनत और संघर्ष की उन्हीं कहानियों को सुनहरी आवाज़ दी है। हरियाणा के पानीपत के गांव खंडरा के नीरज की कहानी भी कम दिलचस्प नहीं है। अपने शरीर को मजबूत बनाने के लिए वो जिम जाते थे। जिम के बगल में ही स्टेडियम था। टहलते हुए अक्सर स्टेडियम पहुंच जाने वाले नीरज ने खेल-खेल में ही भाला उठाकर फेंका जो काफी दूर जा गिरा। वहीं मौजूद गुरु द्रोण समान एक कोच का आभार जो उन्होंने भविष्य के इस स्वर्ण पदक विजेता को पहचान लिया। नीरज को आगे इसी का प्रशिक्षण लेने की सलाह दी। फिर तो बस जैसे नीरज पर जुनून सवार हो गया। 2016 में ही वो जूनियर वर्ल्ड रिकॉर्ड बना चुके थे, बस रियो जाने से चूक गए। 2018 में उन्होंने एशियाई और राष्ट्रमंडल खेलों में स्वर्ण पदक जीता।
टोक्यो ओलंपिक के दौरान नीरज के चेहरे और चाल से जबर्दस्त आत्मविश्वास झलक रहा था। शनिवार को अंतिम मुक़ाबले के पहले दौर में ही वो भाले की नोक से सुनहरा इतिहास लिख चुके थे। पहला थ्रो ही 87.03 मीटर पर जाकर गिरा। कोई उसके पास भी नहीं आ पाया था कि अगली बार उनका भाला 87.58 मीटर दूर जाकर गिरा। ये उनके अब तक के सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन 88.08 मीटर से कुछ कम था, पर सोना जिता देने के लिए काफी था। इसके बाद आखिर तक कोई भी खिलाड़ी 87.58 के करीब नहीं पहुंच पाया। जब नीरज ने ये दूसरा थ्रो फेंका था तो उनका आत्मविश्वास इतना जबर्दस्त था कि उन्होंने पलट कर भी नहीं देखा कि भाला कितनी दूर जा रहा है। वो बस विजयी मुद्रा में जोशीले उद्गार के साथ वापस आ गए। नीरज ने वो कर दिखाया, जिसके लिए हर भारतीय बेताब था। अब आवश्यक ये है कि सोने का ये सफर अभिनव बिंद्रा और नीरज चोपड़ा के व्यक्तिगत जीवट और संघर्ष से ऊपर संस्थागत रूप ले। हम एक देश के रूप में खेलों को बेहतर तरीके से अंगीकार करें। किसी की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा को मंच देना, संस्थाओं के माध्यम से उसको विकसित करना तो आवश्यक है ही पर उससे भी ज्यादा जरूरी है ऐसी व्यवस्था कायम करना, जिसमें हम विश्व मंच पर छा जाने वाली पौध को पहचान कर, सींच कर, सही खाद-पानी देकर बड़ा करें। हर किसी में सोना जीतने की अदम्य भूख जगाएं। हर कोई अभिनव, नीरज, मीराबाई, रवि, बजरंग, सिंधु, या लवलीना बनना चाहे। तभी हम देश के द्वार पर सोने के पदकों का तोरण हार सजा पाएंगे। तभी हम सात पदकों से सत्तर पदकों तक का सफर तय कर पाएंगे। नीरज के भाले से निकला ये स्वर्ण तिलक लंबे समय तक जगमगाता रहेगा, नए पदक विजेताओं को राह दिखाएगा और इसका संदेश नीरज के भाले से भी कई गुना दूर तक जाएगा। सभी भारतीय खिलाड़ियों और खास तौर पर नीरज चोपड़ा को बहुत बधाई!!
और हाँ, ये ओलंपिक खेल भारत की स्वर्णिम उपलब्धियों, सात पदकों और अब तक के श्रेष्ठ प्रदर्शन के लिए तो जाने ही जाएंगे, पर उससे भी बढ़कर टोक्यो में आयोजित ये खेल कोरोना से त्रस्त मानवता को कुछ अलग सोचने, देखने, हंसने, उत्सव मनाने और अवसाद से उबरने का एक सुंदर अवसर देने के लिए भी याद किए जाएंगे। इतनी कठिन परिस्थितियों में भी ओलंपिक आयोजित करने और ज़बरदस्त मेहनत के लिए आयोजकों को भी बहुत बधाई।