जनता से रिश्ता वेबडेस्क। हिंदी चीनी भाई-भाई नहीं हो सकते। भले ही भारत के चीन के साथ व्यापारिक और राजनीतिक संबंध हों लेकिन चीन के शासकों ने जून 2020 में जिस कुटिलता का परिचय देते हुए लद्दाख के अक्साई चिन इलाके में अपने पांव पसारने का प्रयास किया, उससे साफ है कि चीन 1962 वाला ही है। उसने भारत विरोध की नीति नहीं छोड़ी।
चीन की विस्तारवादी नीतियों से उसके सारे पड़ोसी परेशान हैं। चीन से खतरे को महसूस करते हुए भारत को अपनी नौसेना के आधुनिकीकरण और उसकी मारक शक्ति बढ़ाने के लिए लगातार खर्च करना पड़ रहा है। चीन भारत को घेरते हुए हिन्द महासागर में अपने नौसैनिक अड्डे और अन्य सुविधाओं की एक शृंखला बनाने में जुटा हुआ है और हिन्द महासागर के करीब एक दर्जन तटवर्ती देशों में चीन अब तक कम से कम 16 जगहों पर अपनी नौसेना के लिए विशेष अड्डे बनाने में सफल रहा है।
अब तो वह बंगलादेश को भी पनडुब्बियां देकर उसे अपने पाले में लाने के प्रयास कर रहा है। चीन का इरादा वहां के कोक्स बाजार में एक नौसैनिक अड्डा बनाने में सहायता देने का है। चीन भारत की घेराबंदी के लिए स्टिंग आफ पर्ल्स यानि मोतियों की माला तैयार कर रहा है। उसने नेपाल, म्यांमार और मालदीव को फंसा रखा है।
चीन ने पहले मालदीव पर डेढ़ अरब डालर के बराबर कर्ज चढ़ा दिया और बाद में इसका लाभ उठाकर मालदीव के 17 द्वीपों को पट्टे पर लेकर उन्हें हथिया लिया। चीन इन द्वीपों का इस्तेमाल सैनिक उद्देश्यों के लिए करता है। स्थिति यह है कि परमाणु शक्ति चालित चीनी पनडुब्बियों सहित उसके आठ युद्धपोत हमेशा हिन्द महासागर में तैनात रहते हैं।
हिन्द प्रशांत महासागर में चीन की मौजूदगी भारत के लिए सबसे बड़ा सिर दर्द है। दक्षिणी चीन सागर को भी चीन अपना बता रहा है और पड़ोसी देशों को धमका रहा है। पूर्वी लद्दाख में चीन के अड़ियल रवैये और दक्षिण चीन सागर में उसकी बढ़ती दखलंदाजी का तोड़ निकालने के लिए अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोम्पियो और रक्षा मंत्री मार्क एस्पर भारत पहुंच गए हैं। दोनों की रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह और विदेश मंत्री एस. जयशंकर से मुलाकात भी हुई।
देखना होगा कि इन वार्ताओं में चीन का क्या तोड़ निकलता है। भारत और अमेरिका में टू प्लस टू वार्ता काफी महत्वपूर्ण है। यह वार्ता बहुआयामी होगी। इस बैठक का फार्मेट जापान से निकला है जिसका मकसद दो देशों के बीच रक्षा सहयोग के लिए उच्च स्तरीय राजनयिक और राजनितिक बातचीत को सुविधाजनक बनाना है।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने 2017 में अपनी पहली मुलाकात के दौरान 2+2 वार्ता की घोषणा की थी। इसके बाद नई दिल्ली में इस बैठक का पहला संस्करण आयोजित हुआ था जबकि पिछले सात दिसम्बर को वाशिंगटन में दूसरी बार वार्ता हुई थी। यह बैठक ऐसे समय में हो रही है जब भारत पिछले 45 वर्षों में चीन के सबसे खराब रवैये वाले दौर से गुजर रहा है।
ट्रंप सरकार चीन के दूसरे देशों के साथ क्षेत्रीय विवाद और आक्रामक रुख की आलोचना करती रही है। एलएसी गतिरोध को लेकर हाल ही में माइक पोम्पियो ने कहा था कि चीन के पास अपने पड़ोसी देशों को सीमा विवाद के लिए उकसाने का एक तरीका है लेकिन दुनिया को उसकी बदमाशी की इजाजत नहीं देनी चाहिए। टू प्लस टू बैठक से पहले पिछले दिनों जापान में क्वाड वार्ता आयोजित की गई थी।
अमेरिका, आस्ट्रेलिया, जापान और भारत की बैठक ने चीन की टेंशन को बढ़ा दिया है। चीन भारत और अमेरिका के बीच बढ़ती सिक्योरिटी कॉपरेशन को हिन्द प्रशान्त क्षेत्र में अपनी महत्वाकांक्षा पर खतरे के रूप में देखता है। हिन्द महासागर में चीन की सभी सामरिक मंसूबों और गठजोड़ों पर भारत सतर्क निगाह रखता है।
पहले कभी स्वेच्छा से एक बड़े भाई के रूप में न कि हितैषी शक्ति के रूप में दक्षिण के देशों की मदद करने को तत्पर रहने वाले भारत की आज यह आवश्यकता बन गई है कि वह चीनी मंसूबों के प्रत्युत्तर में रणनीतिक साझेदारी, संवाद, सहयोग और सहायता के लिए आगे आए। भारत ने हमेशा चाहा है कि हिन्द महासागर, हिन्द प्रशान्त महासागर और दक्षिण चीन सागर का क्षेत्र शांत क्षेत्र घोषित किया जाना चाहिए।
इंदिरा गांधी शासनकाल में उन्होंने महासागर को शांत क्षेत्र घोषित करने के लिए पहल की थी लेकिन तबसे न जाने महासागर का कितना पानी वह चुका है और परिस्थितियां अब पहले से अधिक खतरनाक हो चुकी हैं। देखना यह है कि भारत के हित सुरक्षित कैसे रहेंगे। भारत का दौरा खत्म करने के बाद माइक पोम्पियो श्रीलंका, मालदीव और इंडोनेशिया की यात्रा भी करेंगे। चीन धीरे-धीरे इन देशों को परोक्ष रूप से अपने चंगुल में फंसा रहा है।
अमेरिकी नेताओं का इन देशों का दौरा भारत के लिए भी मुफीद माना जा रहा है। हिन्द प्रशांत महासागर में भारत का मजबूत होना बहुत जरूरी है और विश्व व्यापार की सहजता के लिए दक्षिण चीन सागर में चीन की गुंडागर्दी का इलाज बहुत जरूरी है।
भारत के अलावा दुनिया में कोई दूसरा देश नहीं है जिसके नाम पर किसी महासागर का नाम हो। अल्फ्रेड मेहैन 19वीं सदी में अमेरिकी नौसेना के रियर एडमिरल थे। उनकी पुस्तक थी 'इतिहास पर समुद्री शक्ति का प्रभाव।' उनका मानना था कि किसी देश की राष्ट्रीय महत्ता शांतिकाल में समुद्र के वाणिज्यिक उपयोग से और युद्धकाल में उसका अपने अलंघनीय नियंत्रण से जुड़ी होती है। उनकी भविष्यवाणी थी कि 21वीं सदी की दुनिया का भाग्य उसके सागरों से तय होगा। भारत को अपनी सुरक्षा के लिए चीन विरोधी देशों को साथ लेना ही होगा।